■ मैं महुआ चुनती हूँ ■
(कविता)
हाँ, मैं महुआ चुनती हूँ
गलत न समझना मुझे
किसी के सामने हाथ न फैलाती हूँ
हाँ, मैं महुआ चुनती हूँ।
मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता इससे
कि वे कहाँ बिकते हैं, कहाँ ढलते हैं
पता नहीं इससे बनती है दवा या दारू
बेचने से मिले सिक्कों से बच्चों को पढ़ाती हूँ
हाँ, मैं महुआ चुनती हूँ।
सोचती हूँ कि कुछ और रुपए जोड़ लूँ
आने वाली बरसात के लिए छत सँवार लूँ
पानी के वक्त महुआ कहाँ मिल पाती है
बदहोश हो आज उसकी खोज करती हूँ
हाँ, मैं महुआ चुनती हूँ।
किसी ने कहा तुम नशा चुनती हो
कभी झोंपड़ी में आकर देखो बाबू
जब चूल्हा न जला हो और पेट खाली हो
वे गिलास में उँडेलते, मैं टोकरी में भरती हूँ
हाँ, महुआ चुनती हूँ।
अनपढ़-गँवार मानकर शहरों ने ठुकरा दिया
बन पतझर में उपजे कुदरत ने करीब किया
उम्मीद क्या करूँ उनसे जो खुद टूट गए
मेरे अपने टूटे महुआ के फूल है उन्हें ही चुनती हूँ।
कुदरत का खजाना है महुआ मेरा
हाँ, मैं उसे ही चुनती हूँ।
-०-
रचनाकार
● मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'● ©®
सातारा (महाराष्ट्र)
सेवार्थ निवास : शिक्षण सेवक, जिला परिषद हिंदी वरिष्ठ प्राथमिक पाठशाला, विचारपुर, जिला गोंदिया (महाराष्ट्र)
9730491952
27052024
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