मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

आलेख : ●राष्ट्रभाषा बिन गूंगा है मेरा देश●

●राष्ट्रभाषा बिन गूंगा है मेरा देश●
हिंदी दिन विशेष
           मित्रो! हर साल की तरह १४ सितंबर २०२० के दिन ‘मैं’ ‘राष्ट्रभाषा हिंदी दिन’ मनाने जा रहा हूँ। मैं हिंदी को अपने देश की राष्ट्रभाषा ही मानता हूँ क्योंकि यह मेरे देश के हर नागरिक तक मेरी बात पहुँचाती है। भारतवर्ष में मैं कहीं पर भी चला जाऊँ, मेरे व्यवहार नहीं रुकते। उसका पूरा श्रेय हिंदी को ही जाता है।
        और ‘हम’ सभी संविधान के तहत ‘हिंदी राजभाषा दिन’ मनाने जा रहे है और मनाएँगे। ‘मैं और हम’ को यहाँ पर विशेष अंकित करना चाहता हूँ। इसका कारण यह है कि अपने देश में आजकल भाषा स्वातंत्र्य पर जाने-अनजाने पाबंदी आ गई है। इसके जिम्मेदार ‘हम’ है क्योंकि जब मैं/मेरी की बात आती है तो लोग धाडस के साथ ‘हिंदी मेरी राष्ट्रभाषा है’ कहने के लिए कतराते हैं और जब हम की बात आती है, तो हिंदी ही हमारी राष्ट्रभाषा है कहते तो है परंतु जब इस बात पर बवाल खड़ा होने पर मैं नहीं कोई और की ओर निर्देश करके खुद को बचाकर आराम से बचकर निकलते हैं। यह वास्तव मैं देख, अनुभव कर रहा हूँ। इसका मतलब कहीं न कहीं हमारे मन में देश को एकसूत्र में पिरोने वाली भरतीय भाषा 'हिंदी' के प्रति भारतीयता की कमी और स्वायत्त नागरिकता बढ़ती हुई नजर आती है। इसी का परिणाम आज हिंदी बहुभाषी मेरे भारत देश को अपनी आवाज नहीं मिली है, अर्थात गूंगा है मेरा देश। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी ने कहा भी था, राष्ट्रभाषा बिना देश गूंगा हैं।
            संविधान ने राजकाज/कार्यालयीन भाषा के तौर पर हिंदी को स्थान दिया लेकिन अंग्रेजी के विकल्प के साथ! इसी विकल्प के कारण आज अपने देश की अपनी कोई भाषा नहीं है। महज लगभग ढाई सौ वर्ष देश पर अधिकार जताकर हार मानकर वापस चलें गए अंग्रेजों की अंग्रेजी भाषा को संविधान में हिंदी के साथ मात्र पंद्रह वर्षों के लिए स्थापित किया। लेकिन, सन १९६५ से लेकर आज तक वह राजभाषा के रूप में हिंदी के साथ अधिकारीक भाषा के रुप में चलाई जा रही है। यह सबसे बड़ा आघात भारतीय भाषाओं पर हुआ है, परिणामतः किसी एक भाषाछत्र के निचे अपना देश नहीं आ रहा है। यह अपने देश के लिए लगा सबसे बड़ा ग्रहण है।
        विश्व में जिन देशों ने अपने देश की ही राष्ट्रभाषा और राजभाषा को स्वीकार किया है, वे देश दुनिया विकास की गति में अपने देश से कई गुना आगे है। जिसमें रशिया, अमेरिका, चीन, जापान, आदि  देश हैं।
        मैं तो इतना विद्वान नहीं हूँ, पर हमेशा मेरे मन में आशंका उभरती रही है। अंग्रेजों ने शासन करते वक्त शासन और लोगों के बीच संपर्क करने के लिए दुभाषी को अपनाया। वह दूसरी भाषा भारतीय ही थी, न की अन्य। और अंग्रेजों ने देश चलाया। जब देश आजाद हुआ, अंग्रेज चले गए, अपना शासन आया तो फिर अपना देश चलाने के लिए अन्य भाषा का प्रावधान क्यों? भारतीय किसी एक भाषा को देश की राष्ट्रभाषा और राजभाषा घोषित करके उसके साथ अन्य एक भारतीय भाषा को ही सहभाषा के रूप में स्थापित कर दिया जाता तो शायद अपने देश को एक वाणी मिल जाती और जहाँ आवश्यकता हो वहाँ दुभाषी का प्रयोग करके काम चल सकता था। परंतु राजकीय षड्यंत्र में फँसी हमारी भाषाएँ न उभर पाती हैं न देश की आवाज बनती है, विपरीत कुछ भाषाएँ लुप्त होने के कगार पर है। हमें इन्हें बचाना होगा।
            हम सभी जानते हैं, सन १९४९ में संविधान समिति ने हिंदी को संविधान के अनुच्छेद ३४३ के तहत हिंदी को राजभाषा का दर्जा देकर हिंदी को गौरवान्वित किया साथ ही हिंदी के प्रचार-प्रसार करने का प्रावधान भी किया। उद्देश्य था अपने देश को अपनी भाषा देने का! कारण आजादी के वक्त और आज भी अपने देश को एकसूत्र में बाँधे रखने का सामर्थ्य यदि कोई भाषा रखती है तो वह है 'हिंदी'। आज विश्व में सर्वाधिक बोली और समझी जाने वाली भाषाओं में हिंदी दूसरे स्थान पर और इंटरनेट पर जानकारी संकलन में हिंदी प्रथम स्थान पर है। हम सभी यह जानते है कि यदि देश की राष्ट्रभाषा बन सकती है तो हिंदी ही, पर मानते नहीं, लेकिन भविष्य में एक दिन इसे स्वीकारना ही होगा। आज विदेशों में हिंदी भाषा को शिक्षा में विषय के तहत पढ़ाया जा रहा है और अपने देश में हिंदी सीखने, बोलने और व्यवहार में लाने में कमी महसूस करने वाले ‘खुद’ भारतीय होकर देशपरस्त है या विदेशिपरस्त खुद तय करें।
        हमें अपने देश की हर भाषा के प्रति आत्मीयता और अभिमान होना चाहिए, क्योंकि हम सबसे पहले भारतीय है और बाद में प्रांतिक। मातृभाषा मेरी साँस है, तो राष्ट्रभाषा मेरा प्राणवायु है। बगैर दोनों के मेरा होना, न होने के बराबर है। हमारी कोशिश यही हो कि भारतीय भाषाओं का सम्मान हो, अपने देश को राष्ट्रभाषा देने हेतु प्रयास हो। महत्वपूर्ण - अपने देश को गूंगे से मुखर होने हेतु सहायता करें। जय भारत! जय राष्ट्रभाषा हिंदी! 
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8 अगस्त 2020
लेखक
मच्छिंद्र भिसे ©®
(अध्यापक-कवि-संपादक)
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सातारा (महाराष्ट्र) पिन- 415 515
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
प्रकाशनार्थ अप्रकाशित, स्वरचित व मौलिक ।

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