मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

मित्रता दिवस - ४ अगस्त २०१९

          मेरे सभी मित्रबंधुओं, मित्रसखियों को आपके-अपने मित्र का हार्दिक अभिवादन !!! सबसे पहले आप सभी को मित्रता दिवस की शत्-शत् मंगलकामनाएँ !!!
जीवन के किसी न किसी मोड़ पर आप मुझे मिलें और जीवन में बहार लायी. पाठशाला और कॉलेज के दिनों बहुत से सखाओं की निस्वार्थ साथ मिली जिससे जीवन में दोस्ती शब्द का अर्थ समझ आया. पहले झगड़ा फिर रूठना, मनाना, पढ़ाई की नोंकझोंक और न जाने क्या-क्या? इन अठखेलियों ने दोस्ती को और गहरा और अटूट बना दिया. बचपन के सभी, कभी न दिल से अलग होने वाले बालसखाओं के प्रति कृतज्ञ स्मरण.
जिम्मेदारी और कर्तव्य जीवन मार्गक्रमण में दोस्त स्वरूप धन में वृद्धि हुई. विभिन्न जगहों पर काम करते वक्त तथा बी.एड. कॉलेज की शिक्षा के वक्त भी जी-जान से प्रेम करने वाले और हमेशा साथ देते आए मित्रबंधुओं का स्मरण. शिक्षा क्षेत्र में आने के बाद तो दोस्त स्वरूप धन में  निरंतर वृद्धि हो रही है. जो मेरे जीवन को समृद्ध करने में सहयोगी बन रहा है.
साहित्यिक सृजन और हिंदी प्रचार-प्रसार के काम में मुझे प्रोत्साहित करने तथा आगे बढ़ने के लिए हमेशा साथ रहने वाले सभी गुरू जन, साहित्यकार मित्रों का नित्य स्मरण आवश्यक मानता हूँ.
सबसे करीब मित्र मैं जिन्हें मानता हूँ वे मेरे माता-पिता, ज्ञानदाता, पूरा छात्र वर्ग, सहपाठी, मार्गदर्शक, कठिन समय में अज्ञात होकर भी साथ देने वाले सभी मेरे मित्र और सखियों को भूलना असंभव हैं. भले ही प्रत्यक्ष बात न हो पाए तो भी आप मेरे थे, मेरे हो और मेरे रहोगे.
आप सभी को मेरा सादर अभिवादन.

आपका दोस्त
*मच्छिंद्र भिसे*
सातारा-महाराष्ट्र.
🌹🙏🌹🙏🌹🙏

🌹मित्रता दिवस पर🌹

मित्र जौहरी

मित्र ! शब्द को जब भी सुनता हूँ मैं,
अक्सर कई मुस्कराती तस्वीरें सरसरी से,
मानस पटल पर एक-एक कर उभर जाती हैं,
किसे अपना करीब कहूँ या सिर्फ नाम का,
न जाने कितने ही सवाल पैदा कर जाती हैं.

बचपन से लेकर आज तक,
कदम से कदम मिलें कईं
और छूटे हैं कभी किसी मोड पर,
पर दिल में आज भी  वे जीवित हैं,
बस! दोस्ती के एक नाम पर,
फिर क्यों  वो यादें ताजा हो जाती हैं और,
मेरे दोस्त हैं वो इसका एहसास दे जाती हैं.

खुशी में तो शरीक होते है सभी
गम के वक्त, भाई दोस्त ही काम आए,
न जाने दोस्ती के नाम कितने ही डंडे खाए,
बचाने के खातिर हमें माँ-बाप से डाँट पाए,
खुशी और गम में उफ् तक न किया कभी,
बेशरम की हँसी-खुशी से मैं जला था कभी,
यही जलन आज दोस्ती की मिसालें दे जाती हैं.

आज दोस्तों दोस्ती खुदगर्ज बनती है,
वास्ता देकर दोस्ती का खंजर खौंप जाती है,
दोस्त, यार, भाई कहकर जहर पीरों जाती है,
फेर देखकर समय का कौन हो तुम पूछ जाती है,
सावधान रहे उनसे जो चापलूसी को बने दोस्त हैं,
लेकर इम्तिहान कभी दोस्ती का  देखो यारों,
दोस्ती ही सारे सवालों के जवाब दे जाती है.
-०-
४ अगस्त २०१९
कवि:
*मच्छिंद्र भिसे*
अध्यापक-कवि-संपादक
भिरडाचीवाडी, पोस्ट भुईंज,
तहसील वाई, जिला सातारा. ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)
मो. 9730491952
🌹🙏🌹🙏🌹🙏🌹🙏

जिंदगी की तलाश में (कहानी) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'

(कहानी)
रचना: मच्छिंद्र भिसे

भादो की लगातार झमझमती बरसात में घर की ओर आ रहे अपरिचित–से  चेहरे को देखकर सावित्री की भौहें चढ़ गई। वह अपरिचित व्यक्ति घर पहुँचने से पहले ही सावित्री ने घर का दरवाजा धड़ाम-से बंद कर दिया और अपने काम में जुट गई। वहाँ वह व्यक्ति दरवाजे की सिटकनी बदस्तूर बजा रहा था। सावित्री द्वारा दरवाजा न खोलने पर प्रकाश खुद दरवाजे पर गया। दरवाजा खुलते ही दोनों की नजरें एक हो गईं और दोनों ऐसे गले मिलें जैसे कई दिनों बाद मिल रहे हो।
“कितने बड़े हो गए हो, दीपक!”, रुलाई भरी आँखों से प्रकाश ने दीपक को अपनी बाँहों में जकड़ते हुए कहा।
“हाँ भैया, सचमुच बड़ा हो गया हूँ, पर आप तो बिलकुल नहीं बदले। वहीँ प्यार, वही प्यारी बातें ! कुछ भी नहीं बदला। वही घर, वही अलमारी……और वह क्या है?”, बड़े भाई की बाँहों से निकलकर, उन्हें संभालते हुए दीपक ने पूछा।
“अरे वह, वह तो वही घड़ी है, जो माँ ने बचपन में दी थी। याद भी है तुझे या भूल गया।”
“भूल कैसे सकता हूँ, भैया!” यह कहते हुए दीपक की ऑंखें आँसुओं से डबडबाई। अपने आपको संभालकर, भीनी हँसी मुस्कराते हुए पुरानी यादों में खो गया। “भैया तुम्हें याद है कि कक्षा पाँच में मैं फेल हुआ था। मेरा परीक्षाफल देखकर आपने मुझे चिढ़ाया था - देख मुझे कितने अच्छे अंक मिले हैं और तू फेल होकर आया है। अपनी माँ की नाक कटवा दी। यह सुनकर माँ ने तुम्हें डाँट दी थी और दूसरे दिन दोनों के हाथ में एकसाथ नई घड़ी थमाते हुए कहा था- वक्त एक जैसा नहीं होता। जिंदगी में हार या जीत का कभी न कभी सामना करना ही पड़ता है। ऐसे वक्त में हार और जीत को समान रूप में देखना चाहिए। वरना समय रूठ जाता है।”
“और देखो न दीपक, वक्त आज मेरे साथ कैसे रूठ गया। कपडे के कारोबार में घाटा आ गया और अब तो दुकान बंद पड़ी है। सारा समय-समय का खेल है।” दीपक की बात को बीच में काटते हुए प्रकाश बोल पड़ा। दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे।
“अब मैं आ गया हूँ न भैया। अब कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।” दीपक ने अपने भाई को आश्वस्त करते हुए कहा।
“हाँ, सच कहते हो, दीपक। अब दीपक आ गया है तो प्रकाश फैलने से भला कोई कैसे रोक सकता है।” लंबी साँस छोड़ते हुए छोटे भाई की बात में प्रकाश ने सहमती दर्शायी और बचपन में माँ द्वारा दी अनमोल उपहार की ‘घडी’ साफ करने लगा।
“देख न छोटे, बचपन की बातों में खोकर मैं तो भूल ही गया कि आज तकरीबन पंद्रह साल के बाद तू लौट आया है। और मैं सिर्फ बातों में ही उलझ गया हूँ।” कहकर प्रकाश अपनी पत्नी सावित्री को आवाज देकर कहा, “अरी सावित्री, देखो तो कौन आया है?”
सावित्री रसोई छोड़कर बैठक के कमरे में मुस्कराती पहुँची। अपरिचित भाव में दीपक को नमस्कार किया। प्रकाश भांप गया कि सावित्री ने शायद दीपक को पहचाना नहीं। सावित्री की ओर नकली हँसी हँसकर कहा, “अरी यह मेरा छोटा भाई दीपक है। जो बचपन में घर छोड़कर चला गया था।”
“तो अब क्यों आया है? वही जाना चाहिए, यहाँ अब क्या लेने आया है? क्या अब अपने भाई की बदनसीबी देखने आया है? कारोबार का घाटा, परिवार ठीक है या उजड़ गया है? क्या यही देखने आया है?” अपने अंदर का गुस्सा निकालकर रसोई की ओर बढ़ी और कह बैठी, “और पूछो, कितने दिन रुकने वाला है।”
यह सुनकर सिर झुकाकर बैठा दीपक जाने के लिए उठा। प्रकाश ने उसे फिर बिठाया।
“दीपक, भाभी का बुरा मत मानना। वह तो मुँहफटी है। गुस्से में उसे ही पता नहीं चलता है कि वह क्या बात कर रही है। तू चिंता मत कर। मैं सावित्री को समझा दूँगा। तुझे जितना दिन रहना है रह ले।”
“जी नहीं, यहाँ मुफ्त की रोटियाँ बटोरी जाती है न, कि कोई भी आए उसे खिला दो। यहाँ राशन के लिए पैसे नहीं है और तुम हो कि ...” सावित्री यह कह रही थी कि दरवाजे पर पोस्टमैन की आवाज आई।
“सावित्री दीपक शर्मा जी के नाम मनीऑर्डर आया है।” सावित्री रसोई छोड़कर पोस्टमैन के पास गई।  मनीऑर्डर लेते हुए कहा, “भलमानस है वह इन्सान जो हर महीने हमें पाँच सौ की मनीऑर्डर भेज देता है। और किसी तरह से घर चल  जाता है। और यहाँ देखो, एक रूपया नहीं देना और मुफ्त की रोटियाँ तोड़ने चले आ जाते है कहीं से।”
“सावित्री बस भी करो। आखिर वह मेरा छोटा भाई है। मेरे पास नहीं आएगा तो कहाँ जाएगा? वह यही रहेगा।” सावित्री को फटकारते हुए कहा।
“दीपक, जो भी हो तुम यहाँ ही रहोगे। यह घर भी तुम्हारा है। तुम कहीं नहीं जाओगे।” प्रकाश अपने अंदर हौसला भर विश्वास से कह गया। और अकेले में ही बुदबुदाने लगा -‘काश, आज माँ होती !’
तकरीबन सोलह साल पूर्व अचानक माँ के फेफड़े ने दम तोड़ना शुरू किया था। खाँसी लगातार बढ़ती जा रही थी। किसी दवा का असर नहीं हो रहा था। उस वक्त दीपक दस साल का और प्रकाश कोई तेईस वर्ष होगा। माँ की बीमारी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। माँ ने प्रकाश को शादी करने को कहा। माँ की इच्छा की वजह से प्रकाश ने जल्दबाजी में एक माह के अंदर सावित्री के साथ शादी की। शादी के बाद दो-ढाई महीने के अंदर ही दीपक की पूरी जिम्मेदारी प्रकाश के हाथ सौंपकर चल बसी। परंतु उसके कुछ ही दिन बाद परिवार में झगड़े होना शुरू हो गए। नई दुल्हन बनकर आई सावित्री अपने रौब दिखाने लगी। प्रकाश दिनभर अपने व्यापार और पुश्तैनी खेतीबाड़ी के कामों में व्यस्त रहता था। सावित्री घर संभालती थी और दस वर्ष का दीपक, भैया और भाभी के हर काम में हाथ बटाता था। दिन किसी तरह कटने लगे।
एक दिन भाभी की साडी को प्रेस करते वक्त जल गई। सावित्री को जब पता चला तो दीपक को खूब पीटा और फटकारा भी। उस दिन भाभी ने दीपक को खाना भी नहीं दिया। शाम के वक्त प्रकाश आते ही दीपक उसे लिपटकर सुबकिया ले-लेकर रोने लगा। उसने सारी घटना बताई। और जब प्रकाश ने सावित्री से पूछना चाहा तो सावित्री ने फिर से प्रकाश के सामने ही दीपक को चुगली करता है, भाई के मन में जहर भरता है ऐसे आरोप करके फिर से पीटना शुरू किया। प्रकाश ने सावित्री को समझाने की बहुतेरा कोशिश की परंतु उसका कोई परिणाम सावित्री पर नहीं गिरा। सावित्री ने यहाँ तक कहा कि इस घर में अब मैं रहूंगी या तुम्हारा लाड़ला।
यह सुनकर दीपक का बचपना गुस्सा परवान चढ़ा। गुस्से से लाल होकर, अपनी रुलाई रोककर दरवाजे की ओर बढ़ा और भैया को कहा,“भैया अब मैं यहाँ कभी भी नहीं आऊँगा परंतु तुम्हारा प्यार भी नहीं भूलूँगा। भाभी माँ से कहना अब कभी परेशान नहीं करूँगा।” यह कहकर घर से जो निकल पड़ा। उस दिन से ही शायद इस परिवार को ग्रहण लगा। धीरे-धीरे प्रकाश का कारोबार डूब गया और अब अपनी पुश्तैनी खेतीबाड़ी पर ऐसे–तैसे गुजारा करने लगा।
आज बरसों बाद प्रकाश का दीपक आया था परंतु भाभी माँ के शब्दों ने फिर से दीपक के मन को झकझोर दिया। मन में आया कि बचपन की घटना को दोहराया जाए। परंतु बड़े भाई के प्यार की जंजीर ने आज दीपक को जकड़ लिया था। ऐसे हालात में भाई को छोड़कर जाने को जी नहीं मान रहा था।
भाभी के पास विनती के स्वर में कहा,“भाभी, मैं आपपर बोझ नहीं बनूँगा। मैं भी भैया को खेतीबाड़ी में मदत करूँगा। काम के बाद ही खाने को देना। फिर तो ठीक है न! परंतु अब मुझे अपने भाई से अलग मत कीजिए। आप जो कहेगी वह मैं करूँगा।” आखिर भाभी मान गई। दीपक का रहने का प्रबंध अलग कमरे में किया गया।
दिन बितते गए। बात-ही-बात में प्रकाश ने दीपक से पूछा, “इतने दिन कहाँ थे? क्या कर रहे थे?” दीपक सिर्फ इतना ही कह पाया, “जिंदगी की तलाश में !”
“क्या जिंदगी मिली?”
“हाँ भैया!” हँसकर दीपक ने कहा।
“कैसे?”
“आप, अपने जो वापस मिलें, परिवार मिला और दूसरी कौन – सी जिंदगी होती है क्या?” दीपक ने हँसकर कहा.
प्रकाश मन ही मन मुस्करा रहा था। आज वह जीवन की सबसे आनंददायी अनुभूति का अनुभव कर रहा था। उसे लगा कि अब दीपक बड़ा हो गया है। उसकी शादी करनी होगी। प्रकाश ने दीपक को शादी के बारे में पूछा तो उसने कहा, “भैया आप जैसा चाहोगे वैसा ही होगा।”
कुछ दिन बाद दिवाली का पर्व प्रारंभ हुआ। चारों ओर दीवाली का माहौल था। लक्ष्मीपूजन का दिन आया। दीपक और प्रकाश स्नान करके अच्छे कपडे पहनकर तैयार हो गए। माता लक्ष्मी की पूजा करने के लिए बैठे परंतु चढ़ावे के लिए धन नहीं था। सावित्री ने प्रकाश से कुछ रुपये माँगे।
“कल ही तो मिठाई और कपड़ों पर खर्च हो गए। अब मेरे पास एक रूपया भी नहीं है।” प्रकाश ने जवाब दिया।
“देवर जी, आपके पास तो होंगे ही नहीं आप तो अपने भाई से भी बढ़कर भिखारी हो, आप कहाँ से दोगे? सदा कंगाली का हाथ लेकर घुमाते हो।” सावित्री के पास चढ़ावे और पूजा के लिए रुपये न होने के कारण उसका गुस्सा शुभ दिन देख न पाया। उतने में दरवाजे पर पोस्टमैन की आवाज आ जाती है। “मैडम जी, मनीऑर्डर।”
सविर्त्री मनीऑर्डर लेने गई, तो उसके साथ एक पार्सल भी आया था। पार्सल खोलकर देखा तो प्रकाश और सावित्री के लिए नए-नए कपडे, मिठाई और बम्बई आने के दो वातानुकूलित बस के टिकट थे। टिकट पर पता था-‘प्रसादी सदन, मलबर रोड, वरली, मुंबई’। सावित्री की खुशी  का ठिकाना नहीं रहा। लक्ष्मीपूजन के दिन लक्ष्मी का प्रसन्न हो जाना मतलब सोने पे सुहागा। शादी के बाद सावित्री और प्रकाश कभी घुमने नहीं गए थे।
 सावित्री ने तुरंत प्रकाश से कहा, “हम कल ही निकलेंगे। कितना भलमानस है। जिसने डूबते परिवार को सहारा दिया लेकिन कभी नाम तक नहीं बताया। आज तो उसने  हमें मिलने के लिए टिकट भी भेजे हैं। नहीं तो यहाँ हमारे सर पर बैठकर हमारा सिर खाने वाले भी कम नहीं है।” यह इशारा दीपक समझ गया। खुशी के मौके पर उसने बात को बढ़ाना नहीं चाहा इसलिए वह घर से निकालकर खेत में चला गया।
दूसरे दिन सुबह सावित्री ने मुंबई जाने की तैयारियाँ शुरू थी। प्रकाश ने दीपक को भी साथ लेने की बात सावित्री से कही। सावित्री ने नकार दर्शाते हुए कहा, “दो ही टिकट है और उनके पास अच्छे कपडे भी नहीं है।” “तो क्या हुआ? उसे हम हर हाल में साथ लेकर जाएँगे। उसका यहाँ कौन ख्याल रखेगा।” प्रकाश ने कहा। अंत में उसे भी साथ ले जाने का तय हुआ। दीपक ने भी अपने अच्छे कपडे पहने। सफ़र के सामान के बैग कंधे पर लदकर दीपक, भाभी और प्रकाश स्टेशन की ओर बढ़े। टिकट पर लिखे समय और बस के अनुसार वे तीनों मुंबई के वरली स्टेशन पहुँचे। स्टेशन के बाहर लगी किराए की एक रिक्शा में बैठकर दिए पते पर पहुँचे। रिक्शा एक बड़े से गेट पर आकर रुकी। गेट पर लिखा था – ‘प्रसादी सदन’। “आखिर पहुँच गए।”, सावित्री ने कहा।
गेट के अंदर झाँककर देखा तो अंदर फूलों से लदे पौधों के बीच सजा एक मकान दिखाई दिया। सावित्री ने प्रकाश को बाजू में लेकर कहा, “आपके भाई को यहाँ पर ही ठहराइए। उसका पेहराव देखकर वह भलमानस कहेगा कि किस गँवार को साथ लेकर आए हो? अपनी इज्जत मत उतरवाओ।” अब सावित्री के आगे प्रकाश की एक न चली।
“दीपक, हम साहब जी को मिलकर तुरंत आते हैं। तुम यहाँ ही ठहरना।” प्रकाश ने समझाते हुए बैग संभालते हुए कहा।
“ठीक है।” दीपक ने सहमति दर्शाई और रिक्शावाले के साथ बातों में जुट गया।
गेट पर आवाज देते ही सुरक्षा रक्षक आ गया और कहा, “आइए, आइए, प्रकाश बाबू और सावित्री बहना।” यह सुनकर दोनों दंग रह गए। अनमने वे दोनों उस मकान के दरवाजे पर पहुँचे। दरवाजे पर लिखा था – ‘प्रसादी निवास’। दरवाजे पर लगी कालबेल दो बार बजाई। घर के नौकर रतन ने दरवाजा खोल दिया और दोनों को प्रणाम किया। दोनों फिर से चकित हो गए। मकान के अंदर प्रवेश करते ही दोनों चौंक गए। प्रकाश के हाथ के बैग अपने-आप हाथ से छूट गए।
दरवाजे के सामने दीवार पर तीन तस्वीरें थीं। प्रकाश, सावित्री और प्रकाश की माँ की। यह देखकर प्रकाश ने नौकर को आवाज दी। नौकर तुरंत दौड़ते आया। “तुम्हारा नाम क्या है?” “जी, रतन।” 
प्रकाश ने हकलाते हुए आवाज में कहा, “र..र ..रतन, क्या तुम इन्हें जानते हो?”
“हाँ !” रतन ने सहजता से जवाब दिया, “यह है प्रकाश बाबू याने आप और यह सावित्री बहन जी याने की आपकी पत्नी तथा उपर की तीसरी तस्वीर आपकी माता जी की है न!” रतन की बात सुनकर प्रकाश और सावित्री को कुछ भी सूझ नहीं रहा था। सावित्री को रहा नहीं गया। उसने रतन से पूछा, “तुम्हारे साहब कहाँ है और इनका हमसे क्या संबंध है?”
“साहब जी, वे तो आते ही होंगे। और रही बात इन लोगों की तो वे हमेशा कहते है कि यह लोग नहीं होते तो मैं नहीं होता।” रतन ने भावुक होकर कहा। रतन ने दोनों को सोफे में बैठने के लिए विनती की। दोनों सोफे में बैठ गए।
“तुम्हारे मालिक का नाम क्या है?” सावित्री ने कुतुहलवश पूछा।
“जी, प्रसाद बाबू।” रतन ने कहा।
“कहाँ है वे हम उन्हें मिलना चाहते हैं। उन्होंने हमें बुलाया और वे गायब!” उतावली होकर सावित्री ने कहा।
“रुको मैं अभी बुलाता हूँ, वे यहीं हैं।” यह कहकर हँसते हुए रतन अंदर के कमरे में चला गया। यहाँ सावित्री और प्रकाश की दुविधा बढ़ती जा रही थी। कुछ समय पश्चात रतन एक तस्वीर लेकर आया और उसे प्रकाश और सावित्री की तस्वीर के बाजू में लगा दी। तस्वीर देखकर प्रकाश की आँखे भर आईं।
उसने रतन से कहा, “रतन यह पहेली बुझाना छोड़ दो, मालिक को जल्दी बुलाओ। हम अभी के अभी मिलना चाहते हैं। यदि वे नहीं आएँगे तो हम चले जाएँगे।”
“मालिक कहाँ जाया करते हैं, साहब! मालिक तो मालिक होते हैं। वह अपना घर-बार छोड़कर कहाँ जा सकते हैं !” “मतलब !” प्रकाश ने अनमने स्वर में कहा।
“मतलब, आप लोग ही इस घर के मालिक हो, आप अपने घर को छोड़कर कैसे जा पाओगे। मकान पर भी तो आप ही लोगों का नाम है – प्रसादी सदन। ‘प्र-प्रकाश, सा-सावित्री, दी-दीपक’ ।”
अब प्रकाश को धीरे-धीरे पूरी गुत्थी सुलझ गई।
वह गेट की ओर ‘दीपकदीपकदीपक….’ आवाज लगाते-लगाते दौड़ने लगा। सावित्री सोफे पर धस चुकी थी। गेट पर दीपक अपने बड़े भाई का ही इंतजार कर रहा था। प्रकाश दीपक के पास आया। दोनों की आँखे फिर एक बार एक हो गई। शब्द फीके थे, अब शब्दों ने रुदन का स्थान ले लिया था। दोनों एक दूसरे की बाँहों में एक हो रहे थे। फिर दीपक ने प्रकाश को संभालते हुए कहा, “ भैया अंदर चलिए। दोनों भाई दरवाजे पर आए। सावित्री ने दोनों को दरवाजे पर देखा तो सोफे में धसी मुक्त होकर भागते-भागते आकर दीपक को गले लगाया और जोर-जोर से रोने लगी। दोनों भी आपसी रिश्तों को बेजोड़ बनाते हुए कुछ पल रोते ही रहे।
सावित्री अब आत्मग्लानी में डूब गई थी। वह माफ़ी माँगने के लिए दीपक के पैरों पर गिरने वाली ही थी कि दीपक ने मना किया और दोनों को फिर सोफे पर बिठाया। सावित्री के आँसुओं ने अपनी गलती का एहसास दिलाया। पश्चाताप ही सबसे बड़ा प्रायश्चित होता है। अब किसी के मन में क्लेश नहीं था। यह परिवार एक धागे में बंधा जा रहा था।  
सावित्री का आज का रूप देखकर प्रकाश ने दीपक से कहा, “देख दीपक, तुम्हारी भाभी भी आज रो रही है। आज तक तुझे गलती की वजह से रुलाती आई पर आज तुमने बिना गलती किए सावित्री को रुलाया।”
“लेकिन यह तो बताओ दीपक, तुम पंद्रह साल तक कहाँ थे?” रुलाई रोकते और प्यार से अधिकार जताते हुए सावित्री ने पूछा।
“जिंदगी की तलाश में! और आज जिंदगी की तलाश पूरी हो गई क्योंकि मेरा भाई और भाभी जी, जो मेरे साथ है, जिन्हें मैं पिछले पंद्रह सालों से तलाशता रहा।” दीपक ने अपनी आँसुओं को राह दिखाते हुए जवाब दिया। प्रकाश दीवार पर टंगी तस्वीरों को निहार रहा था।
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तिथि : ३ और ४ अगस्त २०१९ , शनिवार-इतवार  समय : रात ११ से ३  बजे 
*रचनाकार*
मच्छिंद्र भिसे (अध्यापक)
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063

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गुरूने केला शिष्याचा गौरव व कौतुक

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