मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

आलेख : शिशु के प्रति सूझ-बुझ

शिशु के प्रति सूझ-बुझ 
          ''चाचा जी, पाठशाला की कविताओं का पठन न हुआ देखकर मुझे माँ ने बहुत डाँटा बल्कि एक कविता तो सुनाई भी। क्या आप सुनना चाहेंगे?" शिशुवर्ग में पढ़ रहे विशाल रुआँसा होकर अपनी माँ की शिकायत कर रहा था। उसकी झुँझलाहट समझ पाया और भाभी के प्रति गुस्सा भी आया। भाभी का डाँटना आज के समय एवं आधुनिकता के माहौल के अनुसार सही भी होगा। परंतु शिशुवर्ग में पढ़नेवाला विशाल इन बातों को से क्या लेना-देना वह अभी नहीं समझेगा? मनोविज्ञान एवं उसके बर्ताव से साबित हो रहा था कि उस अबोध बालक को समय एवं आधुनिकता की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वो खेलने में जूट गया। हाँ, कुछ समय के लिए मैं भी दुविधा में रहा कि किसके पक्ष में अपनी बात रखे, भाभी के या विशाल के। विशाल बड़ा प्यारा और तोतले बोल बोलनेवाला एवं आयु के अनुसार खेलकूद जैसी बचपना हरकतों में जीनेवाला मस्त परंतु समझदार बालक है, उससे दो मीठी बातें करेंगे तो फिर से भला-चंगा हो जाएगा। भाभी भी पढ़ी-लिखी और शिक्षित हैं, उन्हें भी समझा देंगे तो बात को स्वीकार भी लेगी। 

              यह कहानी सिर्फ विशाल और भाभी की ही नहीं है यह तो आज-कल हर घर में घटती हुई नजर आती है। ऐसी घटनाओं का अबोध बालक के दिल, दिमाग और स्वास्थ्य पर क्या असर होता होगा, इन बातों से बहुत-से अभिभावक अनभिज्ञ हैं। और होंगे भी क्यों नहीं ? दिनभर दोनों भी नौकरी या व्यवसाय की वजह से बच्चों से अलग होकर घर गृहस्ती चलाते है। शाम ढलते ही दिनभर की भागदौड़, थकान साथ ही दफ्तर की अतिरिक्त जिम्मेदारियों के बोझ लेकर घर आते हैं। फिर बच्चों से साथ सुसंवाद करने को समय ही कहाँ बचता हैं ? वे जो भी करते हैं अपने बच्चों के लिएकरते हैं, तो क्या बच्चों से थोड़ी-सी उम्मीद भी नहीं रख सकते ? बिल्कुल रख सकते है और बच्चों को भी अपने माता-पिता की ये छोटी-छोटी इच्छाएँ पूर्ण करने में हर्ज नहीं होना चाहिए। अभिभावक बच्चों को बार-बार न टोके और न अधिक उम्मीद रखें ताकि बच्चे बोझ समझे। ऐसा व्यवहार न ही करें तो अच्छा हैं। खिलखिलाते माहौल में बालकों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें। मिलनसार व्यवहार से तृटियों को छूते हुए उनके आदर्श, मार्गदर्शक एवं दिशादर्शक बने ना कि बारंबार उनकी गलतियाँ दर्शाएँ। बच्चों में आत्मविश्वास भरने का काम हम करें और उसे उड़ने दें। भागमभाग भरी जिंदगी में बच्चों की प्रिय परीकथाएँ, पशुपक्षियों की कहानियाँ समय के साथ लुप्तप्राय हो रही हैं, तो बच्चे कैसे सुनेंगे? अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाएँ।  
               शिक्षित एवं अशिक्षित अभिभावकों ने अपनी अभिलाषा पूर्ति के लिए जहाँ बच्चों के खेलने, स्व-विचार करने, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं सामाजिक विकास के समय में ही पीठ पर बस्ते का बोझ लदकर बच्चों के मन को अपाहिज बनाने की होड़ ही लगाईं हैं ऐसी हालत में बढ़ती उम्र के साथ क्या वह बच्चा समायोजन कैसे कर पाएगा? जहाँ परिजन बच्चों में अपनी अपेक्षाओं की पूर्ति के स्वप्न देखते हैं वहाँ बच्चे मुक्त बचपन के सपने देखने की दृष्टि निर्माण होने से पहले ही खो रहे हैं। आज समाज का हर तीसरा बालक इस सोच का शिकार बनता जा रहा है। बच्चा जैसे ही तीन साल का हो जाता है तो आंगनवाड़ी में भेज दिया जाता हैं। आंगनवाड़ी का सही अर्थ और उद्देश्य ही हमारे अभिभावक और शिक्षा संस्थाएँ भूलते हुए नजर आ रहे हैं। आंगनवाड़ी एक ऐसा स्थल हैं जहाँ बच्चे बंधनमुक्त होकर मनचाहा खेलें-कूदें, गिरे-संभले, मिटटी से मटमैले बने, हँसे-गाएँ, स्व-अनुभव से सीखे आदि गातीधियाँ कर सकते हैं। परंतु इन्हीं आंगनवाड़ियों में इन क्रियाकलापों को नियम, बस्ते एवं अपेक्षाओं में कैद कर हर बच्चा इनका बोझ ढो रहा हैं। पता नहीं कब यह छूटेंगे,और जब छूटेंगे तब शायद देर हुई होंगी। 
              बचपन अलमस्त होता हैं। असमय उठना, खाना, खेलना, सीखना आदि क्रियाएँ मनमौजी की तरह करने की एक उम्र होती है। परंतु सुबह जब आठ-नौ बजे पाठशाला की गाड़ी आकर खड़ी होती हैं, तो बच्चे पर क्या बीतती होगी। खैर वो ईश्वर जाने। अधूरी नींद, जल्दी-जल्दी नहा-धोकर तैयार होना और नाश्ता किया तो किया नहीं तो वैसे ही शिशुवर्ग में पहुँचता है। कभी-कभी अधूरी नींद गाड़ी में या अपनी कक्षा में पूरी कर लेता है, ऐसी मनस्थिति में कैसे विकास हो पाएगा, यह भी एक सवाल ही है। भोजन की भी वहीँ अवस्था और व्यवस्था होती हैं। कुछ पाठशालाओं में शिशुवर्ग से लेकर प्राथमिक पाठशाला में मध्याह्न भोजन की व्यवस्था की जाती है। यह एक प्रशंसनीय उपक्रम चलाया जा रहा हैं। जिसकी पूरी जिम्मेदारी आंगनवाड़ी सेविकाएँ निष्ठा से निभा रही हैं। मेरी तो इसके संबंधी ऐसी सोच और राय भी है कि शिशुवर्ग के बच्चे पाठशाला में आते वक्त साथ में कुछ भी ना लाए। एक बात और है। शिशुवर्ग के बच्चों के लिए गृहकार्य एवं स्वाध्यायों की परिपाठी ना हो, यदि स्वाध्याय अथवा गृहकार्य देकर पाठशाला के समय में ही अच्छे माहौल में पूरा कराएँगे, तो बच्चे सभी बच्चों के साथ मिलकर ख़ुशी-ख़ुशी करेंगे और घर जाकर निश्चिंत रहेंगे। मैं तो चाहूँगा कि बच्चों के भोजन, खेल-कूद और अध्ययन, आदि अन्य गतिविधियों का प्रबंध पाठशाला में ही किया जाए तो, बच्चे हर्षोल्लास के साथ पाठशाला आपनाएँगे। बच्चों को डाँट-फटकार से तो परे ही रखें। बच्चे गलतियाँ करेंगे, उन गलतियों को बड़ी सावधानी और प्यार भरी बातों में समझाकर सही वर्तन परिवर्तन लाने की कोशिश करें , बदलाव कभी थोपें नहीं। 
         कुछ बच्चों को पाठशाला अच्छी लगती हैं, तो कुछ बच्चे पाठशाला से अच्छा घर में ही रहना पसंद करते हैं। इसका मतलब यही होगा कि पाठशाला और घर के माहौल में अंतर हैं। यह अंतर मिटाकर पाठशाला के अभिभावक (शिक्षक) और घर के अभिभावक (परिजन) अपने-अपने स्थानों के माहौल में सकारात्मक सोच से बदलाव लाने की कोशिश करें। बच्चों के सामने हो रही बातचीत एवं व्यवहार में भी सावधानी बरतना आवश्यक हैं, बच्चे आपका अनुकरण, अनुसरण करते हैं, इनकी और भी अनदेखा ना करें। 
           अंतिम बात बच्चे समय के अनुसार सबकुछ हासिल करेंगे। थोड़ा-सा धीरज बँधे और बच्चों के साथ हो सके तो बच्चों-सा ही बर्ताव करें, बच्चे ही बने रहें। अपना बचपन फिर से उनके साथ अनुभव करें, जो कभी हमने खोया था। संक्षेप में बस इतना ही कहूँगा कि बच्चों को अच्छी तरह से समझो और उनको संस्कारों के पंख, आत्मविश्वास की सकारात्मक दृष्टि और कर्मवादिता का लक्ष्य देखर जीवन समुंदर रूपी समुंदर में छोड़ दीजिए ताकि खुद अपनी जीवन नैया पार लगाए। उसकी चिंता ना करें। शुभंभवतु !!!!
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आलेख लेखन 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 

उपशिक्षक 
ज्ञानदीप इंग्लिश मेडियम स्कूल, पसरणी। 
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)
चलित : ९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३
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आलेख : शिशु के प्रति सूझ-बुझ 

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