मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

●संस्कार शिक्षा की त्रिवेणी●


●संस्कार शिक्षा की त्रिवेणी●
(आलेख)
‘विद्या विनयेन शोभते’ इस उक्ति के अनुसार हमारी विनयशीलता से हमारी शिक्षा का मूल्यांकन होता है। वर्तमान समय की उपभोक्तावाद संस्कृति में परिवार और समाज में विनयशीलता, सुसंस्कार, जीवन मूल्य, संवैधानिक जिम्मेदारी, नागरिकता आदि की कमी महसूस होती है। परिणाम स्वरूप हमें विरासत में मिली संस्कृति का हनन हो रहा है। यदि इसे पीढ़ी दर पीढ़ी जतन करना है तो प्रत्येक नई पीढ़ी को संस्कारक्षम करना बेहद आवश्यक है और इसकी जिम्मेदारी प्रधान शिक्षा केंद्र ही उठा सकते हैं। यह शिक्षा केंद्र होते हैं- परिवार, समाज और पाठशालाएँ। इन शिक्षा केंद्रों के छोटे से लेकर बड़े घटकों की नई पीढ़ी को संस्कारयुक्त बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 

संस्कारक्षम पीढ़ी निर्माण हेतु दी जा रही शिक्षा उतनी ही सक्षम होना आवश्यक है, चाहे वह कहीं से भी प्राप्त हो। वर्तमान अभिभावक और समाज शिक्षा के मूल उद्देश्य ही भूल गए हैं। अभिभावक बच्चों को लेकर भविष्य के बड़े-बड़े सपने बुनते हैं और अपने अनुसार उन्हें शिक्षा में अग्रेषित करते हैं। समाज प्रतिष्ठा हेतु बच्चों को स्पर्धक के रूप में देखते हैं जिसके चलते बच्चा अपनी वास्तविक पहचान खो देते हैं। उनके सर्वंगीण विकास में कमी आती है। शिक्षा का मूल उद्देश्य बच्चे का शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक एवं सामाजिक विकास हो, जिसे हम सर्वांगीण विकास कहते हैं। यह सर्वांगीण विकास संस्कारयुक्त शिक्षा के माध्यम से हो सकता हैं, बस! उसके लिए सकारात्मक पहल की आवश्यकता होती है।

संस्कारयुक्त शिक्षा परिवार, पाठशाला एवं समाज से ही प्राप्त होती है और इसकी कमी के कारण उसका विपरीत परिणाम सामाजिक संस्कृतिपर गिरता है। बच्चों को शिक्षा देते वक्त उनके सर्वंगीण विकास के शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक एवं सामाजिक इन घटकों को ध्यान में रखना आवश्यक है। इन्हीं में सम्मिलित संस्कारों में प्रमुखता से जीवन मूल्य, सामजिक मूल्य, संवैधानिक मूल्य, संस्कार एवं सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण एवं जतन में वृद्धि करते रहना ही संस्कारयुक्त शिक्षा है। 

बच्चे का परिवार ही प्राथमिक संस्कार शिक्षा केंद्र है। प्रत्येक बच्चा सबसे पहले अपने परिवार की इकाई होता है। आरंभ के पाँच-छह साल वह अपनी परिवार से संस्कार शिक्षा ग्रहण करता है। इस उम्र में बच्चे अनुकरणप्रिय होते हैं। जैसे, आप कुछ पढ़ते हो, तो छोटे बच्चे भी पढ़ने की नक़ल करते हैं। वे अपने परिवेश की बातें, व्यवहार, क्रिया-कलाप आदि का अनुकरण करते हैं। यहाँ हमारी वाणी में मृदुता, व्यवहार में कथनी एवं करनी में एकता, क्रियाकलापों में सामाजिकता का अवधान रखने पर उसका यथोचित परिणाम, हम अपने बच्चों में देख सकते हैं। उदहारण के लिए यदि अपने परिवार के किसी बच्चे को कोई चीज देने का वादा किया है तो वह समय पर दे। यदि किसी कारणवश समय पर न दे सके अथवा नहीं दे सकते, तो उसे स्पष्ट ‘ना’ कहे। बाद में देने वाले हो तो देने में अनिवार्यता लाए। आप यदि ऐसा करते हो तो आपका वह बच्चा आदर, सुसंवाद, स्पष्टवादिता, वचनपूर्ति, समयसूचकता, सुव्यवहार्यता आदि जीवन मूल्य सीखेगा जो भविष्य में एक अच्छा संस्कारक्षम नागरिक बनने के काम आएँगे। यह मात्र एक उदहारण है। बच्चों के लिए हमारी प्रत्येक छोटी-बड़ी हरकत में संस्कार एवं शिक्षा होती है। परिवार के सभी बड़े लोगों को बच्चों के संस्कारक्षम भविष्य हेतु वे छोटे है, अभी काफी समय है, इस वहम में न रहकर इन उपर्युक्त बातों का चिंतन करना आवश्यक है। क्योंकि यही अनौपचारिक शिक्षा औपचारिक शिक्षा की रीढ़ और बुनियाद होती है। इसमें कोताई बरतने पर बाद में दूसरों को दोष देने में कौन-सी अभिभावकता है? 

संस्कार शिक्षा एवं औपचारिक शिक्षा का दूसरा स्थान हैं शिक्षा संस्थाएँ! पाठशाला में सिर्फ बौद्धिक शिक्षा ही नहीं वरन् अन्य सर्वांगीण घटकों की पूर्ति का स्थान हैं। प्राचीन काल में ज्ञान एवं संस्कार हेतु बालकों को गुरुआश्रम में भेज दिया जाता था। आधुनिक काल में गुरुआश्रमों का स्थान पाठशालाओं ने और आचार्यों का स्थान शिक्षकों ने ले लिया है। पाठशाला के शिक्षक बच्चों के दूसरे जिम्मेदार अभिभावक होते हैं। उन्हें भी उपर्युक्त परिवार शिक्षा केंद्र की सभी बातें लागू होती हैं। प्राचीन काल का पारिवारिक, शैक्षिक सामाजिक, राजकीय एवं भौतिक वातावरण वर्तमान से कईं गुना भिन्न था। आज आधुनिकीकरण एवं वैज्ञानिकीकरण की वजह से परंपरागत संस्कार शिक्षा संस्कारों की जगह व्यवसायिक शिक्षा ने ली है। जो नागरिकता, सामाजिकता एवं राष्ट्रीयता के लिए घातक साबित हो सकती है। आधुनिक शिक्षा पाठ्यक्रम एवं अभ्यासक्रम में समयानुकूल परिवर्तन स्वागतार्थ है। उसमें वर्तमान पीढ़ी को सर्वगुणसंपन्न बनाने में पूरक एवं सक्षम है। वह बच्चों की उम्र, पूर्वज्ञान, बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमताओं के अनुसार निर्माण किया जाता है। बच्चों तक पहुँचाने वाले भी उतने ही सक्षम होने आवश्य है। वह जिनके लिए है उनतक सही ढंग से स्थापित करना सही संस्कारयुक्त शिक्षा है, जो बच्चों का सर्वांगीण विकास कर पाएगी।

मूलभूत शालेय भौतिक सुविधाएँ होने के बावजूद भी उन चीजों का बच्चों के लिए प्रयोग न हो तो उनका फायदा क्या? जैसे खेल सामग्री भरी पड़ी है, पर बच्चे खेल नहीं सकते, पुस्तकालय किताबों से भरा है पर बच्चे पढ़ नहीं सकते, यह शारीरिक एवं बौद्धिक विकास के रोड़े है। ऐसे कई उदहारण दे सकते हैं। हम इससे अवगत हो कि ‘परिवार’ सिमित सर्वांगीण विकास घटकों की पूर्ति करता है, परंतु पाठशाला सभी घटकों के समन्वय के साथ-साथ बच्चों का सर्वांगीण विकास करती है। इसके लिए समुचित व्यवस्था में सकारात्मक ऊर्जा के साथ सभी के समन्वय से कार्य करने की आवश्यकता है। पाठशाला और शिक्षक बच्चों के संस्कारी जीवन निर्माण में अभिन्न अंग माने जाते हैं।

अंतिम संस्कार शिक्षा केंद्र है - सामाजिक परिवेश। प्रत्येक व्यक्ति परिवार एवं पाठशाला के जीवनकाल में समय-समय पर प्राप्त की शिक्षा को समाज में विभिन्न माध्यमों से अभिव्यक्ति देता है। जैसा ज्ञान एवं संस्कार उसे प्राप्त हुए है, वैसा प्रतिबिंब समाज में साफ-साफ दिखाई देता है। यहाँ पर एक बात ध्यान देने योग्य है कि जब बच्चा सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेता है, तो वह समाज का निरिक्षण और अनुकरण करता है। ऐसे में बच्चों को उत्कृष्ट सामाजिक परिवेश, वातावरण एवं भौतिक सुविधाओं पूर्ति करना परिवार एवं पाठशाला का प्रथम कर्तव्य है। परिवार समाज की बहुत छोटी तथा पाठशाला समाज का प्रतिनिधित्व करती दूसरी प्रतिकृति होती है। बच्चों के सर्वंगीण विकास में विशेषकर सामाजिक विकास में पाठशाला महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यहाँ शिक्षा उद्देश्य एवं शिक्षा मूल्यों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा प्रदान करने से बच्चों के सर्वांगीण विकास में चार चाँद लग जाएँगे। 

सारांशतः नई पीढ़ी के सर्वांगीण विकास के लिए संस्कारयुक्त शिक्षा महत्त्वपूर्ण है। परिवार, पाठशाला एवं समाज यह त्रिवेणी अपनी-अपनी भूमिका जिम्मेदारी से निभाते हैं तो अपने बच्चे ही नहीं, वरन् इनमें बसने वाला भविष्य का भारत देश शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं सामाजिक गुणों से युक्त परिपूर्ण एवं संस्कारयुक्त निर्माण होगा। जिससे हमारी प्राचीन संस्कृति एवं संस्कारों का जतन एवं संवर्धन होगा। चलो, अपनी सोच एवं अपने शिक्षा कार्य में परिवर्तन लाते हैं।
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12 अक्तूबर 2020
मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
(अध्यापक-कवि-संपादक)
सातारा (महाराष्ट्र) पिन- 415 515
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
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