मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

वक्त के साथ समर (कविता) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'

वक्त का पहिया ऐसा चला कि नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा.
आशाएँ गढ़कर थे शासकीय शिक्षक भरती पर. परंतु नौ हजार की सूची में हमारी कैटेगरी और हिंदी विषय का एक भी अध्यापक भरती नहीं हुआ. अब नौकरी की तलाश में और परिवार के चिंतन में भी समय बदलने के इंतजार में भटक रहे हैं. जहाँ हो सके अपना परिचय पत्र लेकर पहुँचने की कोशिश में हूँ. शायद बहुत कुछ अच्छा अथवा बहुत कुछ बुरा होने की संभावना है. आशावादी बनकर समय काटने की कोशिश में हूँ. देखते हैं.......
इस चिंतन पर शब्दों ने अपने आपको इस कदर गढ़ा वह आपके सामने प्रस्तुत है.

वक्त के साथ समर
(विधा : कविता)

पगला मित्र समय हमारा खफ़ा हमसे हो गया,
संग था कभी हमारे आज दुश्मन हमारा हो गया,
निकला था कभी फूल बिछाने पथ पर हमारे,
लथपथ देखने हमें पथ काँटो-से सजाता गया.

अँधियारा है पर निशा का अहसास नहीं,
उजियाला है पर सूरज-सी चमक नहीं,
प्यासा पथिक मैं पर सुजल की धार नहीं,
रोटी है हाथ पर भूख की कोई पीड़ा नहीं,
उसने कुछ दिया हमें पर बहुत लुटता गया,
निकला था कभी धूल ....

देखा था हमने सपना आज सपना रह जाएगा,
वक्त की मार का घाव दिल पर ही रह जाएगा,
हम है आपके, आप है हमारे जमाना भी सताएगा,
आँसू की बूँद हमारी सिर्फ मरहम बताएगा,
वह पगला जख्म देता और मरहम छिनता गया,
निकला था कभी फूल...

जिंदगी अमृत थी कभी जहर उसमें मिला दिया,
तमाशबीनों ने देखो अपना ही तमाशा बना दिया,
भाग रहा हूँ जिंदगी की तलाश में खुद खो गया,
न राह का निशान दिखे लक्ष्य अपना भटक गया,
वक्त ने फाँसा ऐसा फेंका आँख रोशनी लेता गया,
निकला था कभी फूल....

तैयार हूँ मैं भी आज, ऐ वक्त!
टूटा पर मिट न पाए विश्वास खुद में भर दिया,
सूखा पर घट न पाए मेहनत पसीना पा लिया,
अपनों का सताया मैं व्यंग्य को ताकत बना गया,
रूठ जाए जमाना हमसे बसंत बनाना ठान  लिया,
फूल मत बिछाना अब मेरी राहों पर कभी,
मैंने काँटो को अपनाना सीख ही लिया,
निकला था कभी फूल.....
-०-
२१ सितंबर २०१९
***
रचनाकार : मच्छिंद्र भिसे ©®
अध्यापक-कवि-संपादक
सातारा (महाराष्ट्र)
मो.९७३०४९१९५२
***

पुरस्कृत बेईमान (कविता) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'



पुरस्कृत बेईमान
(विधा: व्यंग्य कविता)

शायद कलियुगी वक्त को,
समझने में मुझसे देर हो गई,
बेईमानों की रंगीन अदालत में,
ईमानदारी वारंवार सूली चढ़ गई.

पुरस्कारों की भरमार में आज,
चंद ईमानी चेहरे खिल गए,
चंद छोड़ बचे सब बेईमानी,
कईयों के सपने खा गई.

बधाईयों की गहमागहमी में,
कोने में दुबकी सच्चाई रो पड़ी,
व्यंग्य हँसी से हर बेईमान की,
ईमानदारी अंतस्थल तक हिल गई.

षड़यंत्री वक्त में सच्चाई और अच्छाई,
शाबासी थाप इंतजार में बूढ़ी हो गई,
विडंबन देखो आज, एक चेहरा नकाबी,
इंच का सीना अपना सौ इंच का कर गई.

पुरस्कारों के बाजार में आज,
मुस्कानें रंगीन कभी बेरंग हो गईं,
'बेईमानी', दलालों के गाल गुलाबी,
ईमान की खाल लाल कर गई.

देख के सारा खेल छिछौना आज,
सारी ईमानी हवा निकल गई,
सच्चाई-खुद्दारी खुद के लिए रख बंधु,
बेईमानी कलियुग में हमें सीखा गई.

नामिनेशन भी तभी भरना प्रियवर,
जब हो धन अपार और सत्ता भी गहरी
बिन इसके सिर्फ तालियाँ ही ठोकते रहोगे,
'समझ' आज हिला-हिला मुझे समझा गई.
-०-
१५ सितंबर २०१९
©®
रचनाकार
मच्छिंद्र भिसे
सातारा (महाराष्ट्र)
मो. ९७३०४९१९५२
***

■ देशवासियों के नाम हिंदी की पाती ■

  ■ देशवासियों के नाम हिंदी की पाती  ■ (पत्रलेखन) मेरे देशवासियों, सभी का अभिनंदन! सभी को अभिवादन!       आप सभी को मैं-  तू, तुम या आप कहूँ?...

आपकी भेट संख्या