गुरूशब्द मोती जैसे
(दोहे - मुक्तछंद)गुरू के बिन जीवन खाली, जैसे बंजर जमीन।
सही ज्ञान के निशान कहाँ, जग में सबसे दीन।।
गुरू राह देखता-दिखाता, नव अंकुर के आन।
भटके कोई फटके उसको, छिड़कता उनपर जान।।
अंधा बन बैठ गया, गुरू को न अपनाय।
औरन् ले खुद भी डूबा, फिर-फिर गोता खाए।।
बरगद-सा गुरू बना, हम बन जाए शाख।
कितने ही पत्ते झरते जाए, झूके न उनकी आँख।।
गुरूज्ञान से बना अमीर, गुरू ही सबसे अमीर।
धन-दौलत क्या तूने पाई, गुरू बिन सबै फकीर।।
गुरू का न जाति-धरम, बनाए सबको संज्ञानी।
धरम की बात जो भी करै, सदा रहा मूर्ख-अज्ञानी।
गुरूशब्द मोती जैसे, गलहार बना पहन।
शब्द छूटा; जनम मिटा, सब हो जाएगा दहन।।
गुरू से लेकर ज्ञान को, ज्ञानी हम सब बन जाए।
गुरू तो गुरू ही रहता, चाहे सब आसमान भी पाए।।
गुरू न कोई छोटा-बड़ा, ज्ञान जित मिलें उत पाए।
सम्मान सबका करते रहना, 'मैं' का साया न छू जाए।।
गुरू वंदन वारंवार करें, सिर न झूकता जाए।
जो सिर गुरू झूका 'मंजीतें', अपने को राख में पाए।।
-0-२३ जुलाई २०२१
मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
(अध्यापक-कवि-संपादक)
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