मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

आलेख: आजाद देश में वर्तमान आजादी मायने


आजाद देश में वर्तमान आजादी के मायने
   (१५ अगस्त –स्वातंत्र्य दिन विशेष)          
          सभी भारतीयों को ७४ वें स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ! हम सभी मिलकर प्रतिवर्ष यह दिवस
बड़े धूमधाम से मनाते आए हैं और मनाते रहेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। आप सभी इस बात से भली-भाँती परिचित है कि अपने देश पर अंग्रेजों ने लगभग ढाई सौ साल तक शासन किया। १८५७ की लड़ाई से लेकर १९४७ के मध्य भारत वर्ष में आजादी पाने की लहर उठी। हर क्षेत्र से प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार से अपना योगदान देता रहा। इसमें सामजिक, राजकीय, धार्मिक तथा शैक्षिक संगठनाओं ने सामूहिक तौर पर अंग्रेजी राजनीती और शासन का सख्त विरोध किया। इसी में गरम दल और नरम दलों के नेताओं ने  भारतीयों में उत्साह बढ़ाया और आखिर सभी के प्रयासों का फलित था - १५ अगस्त १९४७ का आजादी का दिन! हमें आजादी मिलकर लगभग ७३ साल पूरे होने जा रहे हैं। आज चिंतन का विषय है कि आजादी की लड़ाई जिन कारणों की वजह से लड़ी गई; क्या उसका सकारात्मक परिणाम आजाद भारत में दिखाई दे  रहा है?

         सबसे अहम बात! आजादी के कुछ वर्ष पूर्व हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी की अध्यक्षता में संविधान समिति का गठन किया। इस समिति के सभी सदस्य और संविधान के शिल्पकार डॉ. बाबासाहब अंबेडकर जी ने मिलकर अपने देश को सही दिशा देने हेतु अपने देश का संविधान बनाया। २६ जनवरी १९५० के दिन अपने देश में लागू भी किया। सभी ने उसे तहदिल से स्वीकार भी किया। आज हम सभी इसका ‘सम्मान’ भी करते है; परंतु अब प्रश्न उठता है कि क्या उसका सही अनुपालन हो रहा है?

         आजादी के बाद अपने देश के राजकीय पक्ष-विपक्ष में आपसी द्वेष निर्माण होने लगा। इसके बीच सामान्य जनता जो राजनीति के बारे में सिर्फ चुनाव में अपना मत (वोट) देना जानती हैं; जो अपने देश की अधिकांश आबादी है। इनके झगड़ों में पीसी जा रही थी और आज भी वही हालात है। हाँ एक बात है कि कुछ परियोजनों के कारण कुछ हद तक सुकून मिला भी; परंतु जैसे ही शासन परिवर्तन हुआ, उन परियोजनाओं में भी परिवर्तन होता रहा। मैं यह नहीं कहता कि पूरी तरह सामान्य जनता कष्ट में थी और है, ‘आजादी के बाद अंग्रेज समतल भारतीय शासन चल रहा है’। मतलब अंग्रेज शासक गए और अपने शासक आए। और फिर वैसा ही हो रहा है जैसे कि अंग्रेजी शासन में हो रहा था। कहा जाता है कि मुट्ठीभर अंग्रेजों ने अपने देश पर राज-काज किया और आज मुट्ठीभर राजनेता पर। इनमें से चुटकीभर सच्चे देशभक्त कहे जा सकते हैं और बाकी वह सब आप जानें! क्योंकि आप सभी २०२० के शिक्षित एवं सुज्ञ पाठक हो। राजनीती पर अधिक बात न हो तो ही अच्छा है। आज अंग्रेजों से नहीं अपनों से डर लगता है। एक और बात, आजादी के पूर्व भी राजनैतिक गुटबाजी थी परंतु सभी का उद्देश्य अपने देश की आजादी था। आज राजनैतिक गुटबाजी का उद्देश्य क्या है, आप सभी जानते होंगे।   

         किसी भी देश के विकास की गति में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है शिक्षा। आप सभी जानते हैं कि आजादी के पूर्व भारत में अंग्रेजों के मशीनरी स्कूल हुआ करते थे, आज भी कही जगह पर देखे जाते हैं। मैं उनका विरोधी बिलकुल नहीं हूँ। मैं सिर्फ आपको आजादी के पूर्व और आजादी के बाद के शिक्षा व्यवस्था से अवगत कराना चाहता हूँ। उन दिनों देशभक्ति, देशप्रेम में कई भारतीयों ने मशीनरी पाठशालाओं का त्याग कर भारतीय पाठशालाओं को अपनाया, यहाँ तक कईयों ने शिक्षा लेना ही बंद किया था। यह था अपने देश के प्रति स्वाभिमान और प्रेम। आज की परिस्थिति क्या है? आज अपने देश में शिक्षा क्षेत्र में ‘भारतीयता’ की कमी महसूस होती है। शिक्षा में अमीरी-गरीबी का अंतर आया हुआ है। जो गरीब है वह शासकीय स्कूलों में और जो अमीर है वह बहु उपलब्धियों वाली खासगी स्कूलों में पढाई करें। यह सोच अपनी सामान्य जनता की भी हो गई है। अपने देश में शिक्षा को लेकर पूरी आजादी तो है परंतु यही आजादी शासन द्वारा चलायी जा रही पाठशालाओं की आजादी छीन चुकी है। इसका प्रमुख कारण है शिक्षा प्रशासनिक अव्यवस्था। आज शासकीय पाठशालाएँ बंद होने की कगार पर है तथा निजी, स्वायत्त शिक्षा आर्थिक उत्पाद के केंद्र बनते जा रहे हैं और इसमें भी विशेष बात यह है कि इनमें से कुछ पाठशालाएँ राजनीतिज्ञों की हैं। अर्थ स्पष्ट है, अपने ही लोग अपनी ही शिक्षा व्यवस्था डूबा रहे हैं। शिक्षाविदों की पाठशालाएँ होती तो आज अपने देश में शासकीय पाठशालाओं के हालात कुछ और होते। कहने का अर्थ यह है कि यह विषमता मिटे और नयी पीढ़ी के हर बालक को समान रूप में अच्छी और पूरी तरह से मुफ्त शिक्षा मिलें। अपने देश में १४ वर्ष की उम्र तक की शिक्षा मुफ्त की है फिर भी पाठशालाओं में विद्यार्थियों की घटती संख्या के बारे में सोचना होगा। जो शिक्षा सुविधाएँ धन देकर ‘अमीर पाठशालाओं’ में मिलती है, क्या वह अपनी शासकीय पाठशालाओं में नहीं मिल सकती? जरुर मिल सकती है, हमारे शासन की सोच मात्र राजनीती न होकर समाजनीति की बुनियाद पर चले, तो सब संभव है। सोचिए, सभी पाठशालाओं का व्यवस्थापन यदि मूलतः शासकीय हो जाए तो यह अमीर-गरीब का भेदभाव क्यों पलता।

         आजादी के लिए गाँवों-शहरों में से लोग अपना-अपना योगदान समान रूप से दे रहे थे। उस वक्त सभी के सामने अपने देश की आजादी थी। कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था। हो सकता है अपवादात्मक स्थिति में नेतृत्व करने वाले नेता। आज चाहे शहर हो या गाँव, सामान्य सुविधाएँ जो शासन की और से प्राप्त होती है क्या वह पूरी तरह से मिल जाती है? यहाँ तक कि कोई परियोजना शासकीय स्तर पर घोषित हो जाए तो वह अंतिम व्यक्ति तक पहुँचते-पहुँचते पच्चीस फीसदी भी नहीं बचती है। तो फिर पचहत्तर फीसदी परियोजना का धन कहा जाता है? अब जो प्राप्त हुआ है उसमें से सार्वजानिक पानी व्यवस्था, बिजली, सड़कें आदि पर खर्च की जाती है पर अगले आर्थिक बजट आते-आते पूर्व परिस्थिति पर आ जाते है। अंग्रेजों ने सभी शासकीय कार्यालय, बिजली व्यवस्था, यातायात व्यवस्था तथा सार्वजनिक व्यवस्था के बारे में अधिक ख़याल रखा था।  इसके प्रमाण उनके द्वारा निर्माण की गई अस्सी-नब्बे सालों पूर्व की इमारते एवं दस्तावेज है। पर आजादी के बाद पूरी प्रणाली बदलने के चक्कर में अपने देश की आजादी की बुनियादी परिभाषा ही बदल दी गई। भ्रष्टाचार जैसी भयानक बीमारी अपने देश को लगी है। प्राकृतिक विपदा पर प्रतिबंधात्मक व्यवस्था की जा सकती है, भ्रष्टाचार जैसी दिमागी बीमारी का नहीं। यह एक सामान्य उदहारण है। आप अपने देश के हालातों से अनभिज्ञ नहीं हैं। गरीब और गरीब होता जा रहा है, और अमीर और अमीर। इसमें कहीं न कहीं संतुलन लाना बहुत ही आवश्यक है। संसद में बैठकर चर्चाएँ हो जाती है परंतु संसद की बात गाँव-शहरों तक नहीं पहुँचती। मतलब आजाद देश में हम जी तो रहे है परंतु आर्थिक दृष्टि से हम आजादी पाना चाहते हैं। निजात पाना चाहते हैं।

         ऐसा भी नहीं है कि आजादी के बाद देश में सकारात्मक कार्य नहीं हुए हैं। बाँध परियोजनाएँ, हरित क्रांति, दुग्ध क्रांति, चतुर्भुज राहे, गाँव जहाँ बिजली वहाँ, स्वछता अभियान ऐसी कई परियोजनाएँ आईं भी और समय के साथ लुप्त भी हुईं, यह खेद की बात है। अपने देश ने कई आधुनिक तकनीकियों का आविष्कार किया। गतिमान जीवन में आवश्यक गतिमान सुविधाएँ देने की कोशिश की है। आंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने देश का स्तर कायम हो रहा है। आयुध निर्माण की बात हो या दवा की, अपने देश ने इनमें ऊँचाइयों को छू लिया है। यहाँ तक की मंगल ग्रह पर पहुँचने के सफल प्रयास भी किए; परंतु दूसरी और कई ऐसी जगह है जहाँ बिजली, दूरभाष, शिक्षा, पानी, सड़क आदि नहीं पहुँच पाया है। दुर्गम पहाड़ियों की तो कठिन परिस्थितियाँ है।  

         माना के आजादी के वक्त देश की आबादी कम थी। साधन सामग्री, सुविधाएँ, उपबधियाँ भी कम थी। जिसके कारण उस समय मूलभूत आवश्यकताओं को लेकर प्रशासनिक स्तर पर ज्यादा लड़ना नहीं पड़ा होगा; परंतु वर्तमान में अपने देश की आबादी जादा है, समस्याएँ भी जादा है परंतु सभी में संतुलन लाने वाले आर्थिक आय के स्त्रोतों की भी कोई कमी नहीं है। इतना होने के बावजूद अपने देश पर विदेशियों का कर्जा है। यह भी चिंतन का विषय है।

         आज अपने ही देश में प्रांतवाद, भाषावाद, धर्मवाद, जातिवाद की भी कमी नहीं है। यह सबसे बड़ी त्रासदी है आजाद देश की। आजादी पाने के लक्ष्य में यह प्रांत, भाषा और धर्म-जातियों में भेदभाव अधिक नहीं दिखाई देता। आजादी के पूर्व अपने ही लोगों के बिच किसी प्रांत विशेष, भाषा विशेष या जातिविशेष को लेकर लड़ाई की घटनाएँ सुनने को नहीं मिलती हैं। यदि हुई हो तो उनकी बुनियाद में कहीं न कहीं अंग्रेजी हुकूमत की बू थी। वर्तमान समय में आजाद देश में इन बातों के आधार पर गाँव से लेकर राजधानी तक हिल जाती है। तो क्या सच में आजाद देश में हम आजाद साँस ले पाते हैं?           

         आज अपने देश का हर पाँचवाँ व्यक्ति किसी न किसी के पारतंत्र्य में जी रहा है। चाहे वह शासकीय हो, घरेलु हो या अपनी कार्यस्थली पर हो। वह न कभी आजाद था, न है। बस! अब इंतज़ार है संपूर्ण आजादी का। जो कभी हमें १५ अगस्त १९४७ के दिन मिली थी। आजादी के पूर्व और आज भी सामान्य जनता चाहती हैं – आजाद शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी, कपड़ा और मकान!
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२७ जुलाई २०२०
लेखक
मच्छिंद्र भिसे ©®
(अध्यापक-कवि-संपादक)
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सातारा (महाराष्ट्र) पिन- 415 515
मो. 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com

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