मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

वाचन प्रेरणा दिन से कलाम जयंती तक (व्यंग्य आलेख) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'

  

वाचन प्रेरणा दिन से कलाम जयंती तक
(व्यंग्य आलेख)
अपने देश में तीज-त्यौहार, जयंती एवं पुण्यस्मरण दिन बड़े जोर-शोरों से मनाए जाते हैं. खासकर जब कोई विशेष दिन/दिवस मनाने की बात आती है तो अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों पर उसी दिन की चर्चा, संगोष्ठी, सभाएँ आदि का आयोजन करके वह एक दिन पूरी तरह से उस विशेष दिन को समर्पित किया जाता है. जैसे बालिका दिन, युवक दिन, पर्यावरण दिन, गांधी जयंती आदि. इन विशेष दिनों की विशेष भीष्म प्रतिज्ञाएँ ली जाती हैं लेकिन अल्पावधि में ही फुर्र हो जाती है. कभी पूछे तो ‘याद नहीं आ रहा’ ऐसे जवाब देकर कलियुग के भीष्म और समाज के व्यक्तिनिष्ठ पितामह अपनी ली हुई प्रतिज्ञा अपने पैरों तले रौंदते हैं और किसी नए विशेष दिन की प्रतिज्ञा की तैयारी में जुट हैं. परंतु इनमें से भी कुछ सच्चे अपनी प्रतिज्ञा के संवाहक हरिश्चंद्र भी मिलते हैं; परंतु अपनी प्रतिज्ञा को ऐसे-तैसे समयानुसार और यथासंभव निभाने की कोशिश भी करते हैं. उनका मैं अभिनंदन करता हूँ. पूरी निष्ठा के साथ अपनी प्रतिज्ञा को भीष्म प्रतिज्ञा साबित करने वाले बिरले मोती भी कभी-कभी हाथ लग जाते हैं लेकिन अन्यों से सताए भी होते हैं यह वास्तव के पुण्यात्मा! आज आपके सामने अपने मन की व्यथा रख रहा हूँ, व्यंग्य तो है पर समाज मानसिकता का व्यंग भी है. 

समूचे भारत देश में १५ अक्तूबर के दिन भारतरत्न स्वर्गीय भूतपूर्व राष्ट्रपति एवं महान वैज्ञानिक ए.पी.जे.अब्दुल कलाम जी का जन्म दिवस ‘वाचन प्रेरणा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. कलाम जी का सहृदय स्मरण करते हुए उन्हें आदरांजलि अर्पित करता हूँ. सच में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने का हक़दार मानता हूँ और आप? स्वयं प्रतिदिन कुछ-न-कुछ अच्छी सामग्री पढ़कर तथा औरों को अच्छी सामग्री एवं साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करता हूँ. मैं पाठकों से सवाल करता हूँ, जिसका जवाब देने की आवश्यकता नहीं, बस! उसपर चिंतन करें. क्या आप वाचन प्रेरणा दिन मनाने एवं कलाम जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के कितने प्रतिशत हकदार हैं?
गत कुछ वर्षों में वाचन संस्कृति एवं परंपरा धीरे–धीरे लुप्त होती जा रही है, उसी का परिणाम हमें ‘वाचन प्रेरणा दिवस’ मनाना पड़ रहा है. वाचिक परंपरा के ह्रास का प्रमुख कारण हैं प्रौद्योगिकी और मल्टीमीडिया का विकास. नई तकनीक समयानुसार जरुरी है परंतु आदर्श संस्कार, संस्कृति एवं परंपराओं को नुकसान पहुँचाने वाली यह तकनीक भविष्य में सबको यंत्रमानव न बना दे, इसका भय सताया जा रहा है. उसकी वर्तमान उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए उसे ज्ञान, संस्कार एवं मानव चरित्र विकास के साथ जोड़ना मूर्खता ही कही जाएगी. ऐसे में आभासी जगत के वाचन से प्राप्त ज्ञान, आभासी जगत की तरह पढ़ते ही गायब हो जाता है, वहाँ शाश्वत अभिधा कैसे प्राप्त हो? जहाँ परिणाम अल्प और समय का व्यय अधिक हो वहाँ बौद्धिक एवं मानसिक विकास की कल्पना मात्र कल्पना ही कही जाएगी. ‘किताबें’ पठन से प्राप्त ज्ञान की तुलना कभी आभासी जगत से प्राप्त ज्ञान से हो ही नहीं सकती. किताबें पढ़ने और पढ़ाने से अपनी संस्कृति और परंपराओं का संरक्षण एवं संवर्धन होना निश्चित है. माना कि मोबाईल और इंटरनेट पर किताबें पढ़ी जाती हैं लेकिन उन्हें याद रखने के लिए कागज़ पर कुछ बातें उतारनी ही पढ़ती हैं. ऐसे में भौतिक किताबें आवश्यकता के अनुसार कभी भी और कहीं भी उसे पढ़कर आवश्यक बातों को देखा और पढ़ा जा सकता है.
दुनिया में संस्कारक्षम, चरित्र निर्माण एवं भौतिक सुविधाओं के विकास की किताबें कहीं मिलती हैं, तो वह अपने देश में! आदि ग्रंथों के लेखन, पठन-पाठन और आधुनिक तकनिकी तक लाने का सबसे अधिक श्रेय जाता है अपनी वाचन संस्कृति को. किताबों के लेखन एवं पठन-पाठन की आद्य धरा पर पठन की वर्तमान अवस्था क्षीण होती जा रही है, यह अपनी जननी-जन्मभूमि के सपूत कहने वाले भारतीयों के लिए शर्म की बात है.
वर्तमान समय में बाल्यावस्था काल में बच्चों को वाचन विधि से अवगत कराया जाता है. समय के अनुसार बच्चे बड़े होते ही परीक्षाई पठन शुरू होता है. ऐसे में सिर्फ ज्ञानवृद्धि हेतु पठन करना एकांगी बनता जा रहा है. जहाँ शिक्षा में सर्वांगीण विकास की बात होती है वहाँ परीक्षांगीण विकास की ओर अधिक बल दिया जाता है. संस्कारक्षम शिक्षा में वाचन का बहुत महत्त्व है इसी लिए तो गाँवों, शहरों एवं पाठशालाओं में पुस्तकालय होते हैं परंतु क्या इन पुस्तकालयों में बच्चों की उम्र, रूचि, ज्ञान की स्तरीयता के साथ विविधताओं से युक्त पुस्तकें उपलब्ध हैं? यह देखना भी आवश्यक है. कई स्थानों पर पुस्तकालय हैं परंतु किताबें पढ़ने को नहीं मिलती या दी ही नहीं जातीं और जहाँ पाठक हैं वहाँ किताबें उपलब्ध नहीं होतीं. ऐसे में संस्कृति और परंपरा के जतन के लिए पूरक वातावरण कैसे तैयार होगा? ऐसे में वाचन प्रेरणा दिवस मनाना एक ही पर्याय है. कम से कम एक दिन ही सही कुछ अच्छा देखने और अल्प पढ़ने का मन भी होता है और पढ़ते भी है. इससे बड़ा व्यंग्य तो यह है कि कुछ पाठशालाओं में ऐसे विशेष दिन मात्र शासन परिपत्रकों की फाइलें तैयार करने हेतु मानाए जाते हैं.
हम जानते है कि बच्चे अभिभावक और गुरुजनों का अनुकरण करते हैं, तो क्या गुरुजन और अभिभावक अपने बच्चों का वाचन के प्रति रुझान बढ़ाने हेतु स्वयं किताबें और पत्र-पत्रिकाओं का वाचन करते हैं? क्या आपके घर में अच्छी किताबें उपलब्ध है? अपने घर में कितनी पत्र-पत्रिकाएँ मातृभाषा एवं भारतीय भाषाओं की मँगवाते हैं? इनके उत्तर खोजने पर पता चलेगा कि प्रधान संस्कार परिवार केंद्र में पठन का क्या स्तर कितना गिरा हुआ है. आज एक वर्ग ऐसा भी है जो किताबें खरीदना व्यर्थ का व्यय मानते हैं. ऐसे लोगों को तो शिक्षित होकर भी ‘ढपोरशंक’ की उपाधि देना ही उचित है, जो खुद किताबों के बलबूते पर उछल-कूद करते हैं. 
आज हमें वाचन प्रेरणा दिवस मनाने की नौबत आयी है, मतलब अपनी आदर्श संस्कृति एवं परंपराएँ खतरें में हैं. इसे बचाने के लिए हमें ही आगे आना होगा. स्वयं पठन करके औरों के सामने आदर्श निर्माण कर उन्हें भी प्रेरित करना होगा. जब आप भौतिक सुविधाओं की वस्तुएँ खरीदते हो तो कभी-कभी अच्छी किताबें ख़रीदना भी न भूलें. भौतिक वस्तुएँ क्षणिक आनंद प्रदान करती हैं, तो किताबें शाश्वत आनंद का निर्झर होती हैं. जिस घर में किताबों का निवास और उनके पाठक हो उस घर में सरस्वती एवं लक्ष्मी का सदा निवास होगा. जब प्रत्येक दिन हर घर में ऐसा होगा उस दिन हम सब अदब से आदरणीय कलाम जी का जन्मदिवस कलाम जयंती के रूप में मनाएँगे न कि वाचन प्रेरणा दिवस! तो फिर चलो, अपने घर और पाठशालाओं को किताबों का आश्रय बनाते हैं. किताबों को अपना मित बनाते हैं.
-०-
-०-  
15 अक्तूबर 2020
मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
(अध्यापक-कवि-संपादक)
सातारा (महाराष्ट्र) पिन- 415 515
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
-०-

●समय चूक की हूक● (व्यंग्य आलेख) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'

 

●समय चूक की हूक●
(व्यंग्य आलेख)
‘समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक। चतुरण चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक।’ रहीम जी समय के लाभ-हानि के बारे में बताते हुए कहते हैं कि समय के लाभ जैसा लाभ नहीं और व्यर्थ गवाए समय जैसी कोई हानि नहीं, जो होशियार लोग होते हैं वे समय का सही फेर देखकर उसका लाभ उठाते हैं, समय की बर्बादी उन्हें अखरती है। ‘समय जैसा कोई गुरु नहीं’, ‘बीता समय वापस नहीं आता’, ‘कल करें सो आज कर, आज करें सो अब’ आदि समय के महात्म्य पर कहावतें, सुविचार, कहानियाँ, निबंध और भाषण सभी सुनते हैं। ऐसी बातें सुन-पढ़कर बहुत आनंद उठाते हैं। समय के साथ चलने का प्रण किए जाते हैं, कुछ पल के लिए तो समय के महत्त्व के स्टार प्रचारक-प्रसारक बन जाते हैं। इसका प्रभाव अधिक समय तक कहाँ रहता है, चुनावी हवा की तरह! जैसे सुबह के भजन का आनंद मात्र दिन चढ़ने तक ही सिमित रहता है। बाद में जैसे था वैसे! इसी लिए शाम होते ही घर में पुनः भजन गाए अथवा सुनाए जाते हैं ताकि उसका प्रभाव बराबर में होता रहे। इसी छोटे उद्देश्य को लेकर समय के बारे में सार्वभौमिक सोच के लाभ एवं हानियाँ संक्षेप में लेकर आपके सामने प्रस्तुत हूँ।  
वर्तमान में मनुष्य के पास समय कहाँ? वह यही हमेशा रोना रोता रहता है। समय ही नहीं मिलता, बहुत व्यस्त हूँ। हम सभी और वह भी यह जानता है कि समय और जीवन बराबर चलते हैं। उन्हें न ही अग्रिम जी सकते हैं और न ही वापस ला सकते हैं। बावजूद इसके मनुष्य समय का लाभ न उठाने की चूक करते हैं और अपने पैरों खुद कुल्हाड़ी मारते हैं। मित्रता या स्नेहवश सलाह दे तो यह पुण्यात्मा बताएँगे कि हम सबकुछ जानते हैं मानो कि वह बातें सिवाए उनके दुनियाभर के लिए हैं। लेकिन जब यही महाशय समय की चपेट में आ जाए तो, माथा पीटने के अलावा दूसरा चारा नहीं होता हैं। खैर...
साथियों हरिवंशराय बच्चन जी की आत्मकथा में उन्होंने गाँधी जी का एक प्रसंग लिखा है। जिसमें गांधी जी को नहाने के समय पर गरम पानी न मिलने के कारण बगैर हैंडिल वाली गरम पानी की बाल्टी अपने दोनों हाथों से उठाकर हमाम की ओर चले गए और जाते वक्त कहा – ‘जो काम जिस वक्त करना है करना, न करना वक्त के साथ दगाबाजी हैं।’ समय का महत्त्व प्रत्यक्ष कार्य के माध्यम से दर्शाते वक्त गरम पानी के उछालने से उनके दोनों हाथ जलें थे। आज हमारी सोच बिलकुल इसके विपरीत बनती जा रही है, जिसके कारण बहुत नुकसान उठाना पड़ता है। इस लघु प्रसंग से क्या हम कुछ नहीं सीख सकते! क्या आज सोच इतनी टुच्ची बनी है कि समय पर काम करने वाले को मूर्ख माना जाता है? बहुत-से दफ्तर और संस्थाओं में समय पर काम करने वाले को रोका जाता है अथवा उसे अपना निजी दुश्मन माना जाता है। वह समय पर काम करेगा तो हमें भी करना पढ़ेगा। उनका मानना है कि समय पर काम करना मतलब अधिक काम का बोझ उठाने की मुसीबत मोड़ लेने जैसा है। तो दूसरी तरफ समय पर काम निपटाने का आनंद उठाने वाले लोग सकारात्मक ऊर्जा से भरे होते हैं। वे समय का बहुत लाभ उठाते हैं। वे अपनी बचत के समय का अच्छा सदुपयोग करते हैं। जैसे- व्यायाम, वाचन, लेखन, विभिन्न कलाओं के संवर्धन आदि में लगा देते हैं। परिणाम स्वरूप ऐसे लोगों का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य उत्तम रहता हैं। नए काम के लिए उत्साहित एवं उर्जावान महसूस होते है।
वही अभी का बाद में, बाद का कल..परसों कहने वाले हमेशा चिंताग्रस्त, शारीरिक एवं मानसिक थकान से भरें, हमेशा कुछ-न-कुछ बीमारी का बहाना बनाते नजर आएँगे। वैसे तो इन लोगों को समय से जी चुराने की आदत होती है। बाद में समय विपरीत प्रभाव दिखाते हुए उनपर हावी होने लगता है तो कहेंगे, बाप रे! कितना काम है और कैसे करेंगे; फिर यह लोग दूसरों से उनका समय मुफ्त में उधार माँगेंगे। यदि कोई मदद करके इनके लिए समय दे भी दे; यह कभी वापस नहीं करेंगे और दे भी नहीं सकते क्योंकि ‘हमारे पास समय कहाँ?’ यह पत्थर की लकीर का जवाब पहले से ही मौजूद होता है।
हमारी हँसी तो तब छूटती है जब कुछ लोग कहते हैं - मेरा समय (टाईम) ख़राब चल रहा है। ऐसे में कई बहाने बनाकर अथवा हानि का सारा दोष किसी और अथवा समय पर थोंप देते हैं। समय ख़राब करके समय को ख़राब कहने वाले कैसे समय के साथ चलेंगे? वे तो समयपीड़ा के कीड़े से ग्रस्त रहेंगे और हमेशा पीछे ही रहेंगे। इस पीड़ा की वेदना असहनीय होती है। समय की अच्छाई और खराबी हमारी कार्यशैली पर निर्भर है। समय अपना है, उसके संवाहक हम खुद है, तो समय का सदुपयोग अथवा दुरूपयोग के जिम्मेदार दूसरे कैसे हो सकते हैं? हमें अपने वक्त को सही काम, स्वहित के साथ समजहितार्थ व्यय करना ही सही समय का सदुपयोग है।
समय तो बंद मुट्ठी में लिए पानी और समुंदर की रेत की तरह होता है, जो कब हमारे हाथ से फिसल जाए पता ही नहीं चलता। जिस व्यक्ति ने समय की फिसलन होते हुए भी उसे अपनी मुट्ठी में जकड़ लिया हो, वह मनुष्य जीवन के सभी सुखों की प्राप्ति करने में सक्षम माना जाएगा। हमें तो अपने आपको समय के साथ इतना तैयार रहना चाहिए। हर पल हमारे कदम समय से आगे ही होने चाहिए। कर्मरत व्यक्ति को अपने समय की बर्बादी बराबर खलती है। यह कसक और अनुभूति ही आपको समय के साथ चलने और दुनिया के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है जो हमें और आगे ले जाती है। तो मित्रो!  देरी किस बात की। अभी का समय आपका है उसे अपनी मुट्ठी में थाम लो, हर सफलता तुम्हारा हाथ थामेगी।
-०-  
15 अक्तूबर 2020
मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
(अध्यापक-कवि-संपादक)
सातारा (महाराष्ट्र) पिन- 415 515
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
-०-

●संस्कार शिक्षा की त्रिवेणी● (आलेख) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'

 


●संस्कार शिक्षा की त्रिवेणी●
(आलेख)
‘विद्या विनयेन शोभते’ इस उक्ति के अनुसार हमारी विनयशीलता से हमारी शिक्षा का मूल्यांकन होता है। वर्तमान समय की उपभोक्तावाद संस्कृति में परिवार और समाज में विनयशीलता, सुसंस्कार, जीवन मूल्य, संवैधानिक जिम्मेदारी, नागरिकता आदि की कमी महसूस होती है। परिणाम स्वरूप हमें विरासत में मिली संस्कृति का हनन हो रहा है। यदि इसे पीढ़ी दर पीढ़ी जतन करना है तो प्रत्येक नई पीढ़ी को संस्कारक्षम करना बेहद आवश्यक है और इसकी जिम्मेदारी प्रधान शिक्षा केंद्र ही उठा सकते हैं। यह शिक्षा केंद्र होते हैं- परिवार, समाज और पाठशालाएँ। इन शिक्षा केंद्रों के छोटे से लेकर बड़े घटकों की नई पीढ़ी को संस्कारयुक्त बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 

संस्कारक्षम पीढ़ी निर्माण हेतु दी जा रही शिक्षा उतनी ही सक्षम होना आवश्यक है, चाहे वह कहीं से भी प्राप्त हो। वर्तमान अभिभावक और समाज शिक्षा के मूल उद्देश्य ही भूल गए हैं। अभिभावक बच्चों को लेकर भविष्य के बड़े-बड़े सपने बुनते हैं और अपने अनुसार उन्हें शिक्षा में अग्रेषित करते हैं। समाज प्रतिष्ठा हेतु बच्चों को स्पर्धक के रूप में देखते हैं जिसके चलते बच्चा अपनी वास्तविक पहचान खो देते हैं। उनके सर्वंगीण विकास में कमी आती है। शिक्षा का मूल उद्देश्य बच्चे का शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक एवं सामाजिक विकास हो, जिसे हम सर्वांगीण विकास कहते हैं। यह सर्वांगीण विकास संस्कारयुक्त शिक्षा के माध्यम से हो सकता हैं, बस! उसके लिए सकारात्मक पहल की आवश्यकता होती है।

संस्कारयुक्त शिक्षा परिवार, पाठशाला एवं समाज से ही प्राप्त होती है और इसकी कमी के कारण उसका विपरीत परिणाम सामाजिक संस्कृतिपर गिरता है। बच्चों को शिक्षा देते वक्त उनके सर्वंगीण विकास के शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक एवं सामाजिक इन घटकों को ध्यान में रखना आवश्यक है। इन्हीं में सम्मिलित संस्कारों में प्रमुखता से जीवन मूल्य, सामजिक मूल्य, संवैधानिक मूल्य, संस्कार एवं सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण एवं जतन में वृद्धि करते रहना ही संस्कारयुक्त शिक्षा है। 

बच्चे का परिवार ही प्राथमिक संस्कार शिक्षा केंद्र है। प्रत्येक बच्चा सबसे पहले अपने परिवार की इकाई होता है। आरंभ के पाँच-छह साल वह अपनी परिवार से संस्कार शिक्षा ग्रहण करता है। इस उम्र में बच्चे अनुकरणप्रिय होते हैं। जैसे, आप कुछ पढ़ते हो, तो छोटे बच्चे भी पढ़ने की नक़ल करते हैं। वे अपने परिवेश की बातें, व्यवहार, क्रिया-कलाप आदि का अनुकरण करते हैं। यहाँ हमारी वाणी में मृदुता, व्यवहार में कथनी एवं करनी में एकता, क्रियाकलापों में सामाजिकता का अवधान रखने पर उसका यथोचित परिणाम, हम अपने बच्चों में देख सकते हैं। उदहारण के लिए यदि अपने परिवार के किसी बच्चे को कोई चीज देने का वादा किया है तो वह समय पर दे। यदि किसी कारणवश समय पर न दे सके अथवा नहीं दे सकते, तो उसे स्पष्ट ‘ना’ कहे। बाद में देने वाले हो तो देने में अनिवार्यता लाए। आप यदि ऐसा करते हो तो आपका वह बच्चा आदर, सुसंवाद, स्पष्टवादिता, वचनपूर्ति, समयसूचकता, सुव्यवहार्यता आदि जीवन मूल्य सीखेगा जो भविष्य में एक अच्छा संस्कारक्षम नागरिक बनने के काम आएँगे। यह मात्र एक उदहारण है। बच्चों के लिए हमारी प्रत्येक छोटी-बड़ी हरकत में संस्कार एवं शिक्षा होती है। परिवार के सभी बड़े लोगों को बच्चों के संस्कारक्षम भविष्य हेतु वे छोटे है, अभी काफी समय है, इस वहम में न रहकर इन उपर्युक्त बातों का चिंतन करना आवश्यक है। क्योंकि यही अनौपचारिक शिक्षा औपचारिक शिक्षा की रीढ़ और बुनियाद होती है। इसमें कोताई बरतने पर बाद में दूसरों को दोष देने में कौन-सी अभिभावकता है? 

संस्कार शिक्षा एवं औपचारिक शिक्षा का दूसरा स्थान हैं शिक्षा संस्थाएँ! पाठशाला में सिर्फ बौद्धिक शिक्षा ही नहीं वरन् अन्य सर्वांगीण घटकों की पूर्ति का स्थान हैं। प्राचीन काल में ज्ञान एवं संस्कार हेतु बालकों को गुरुआश्रम में भेज दिया जाता था। आधुनिक काल में गुरुआश्रमों का स्थान पाठशालाओं ने और आचार्यों का स्थान शिक्षकों ने ले लिया है। पाठशाला के शिक्षक बच्चों के दूसरे जिम्मेदार अभिभावक होते हैं। उन्हें भी उपर्युक्त परिवार शिक्षा केंद्र की सभी बातें लागू होती हैं। प्राचीन काल का पारिवारिक, शैक्षिक सामाजिक, राजकीय एवं भौतिक वातावरण वर्तमान से कईं गुना भिन्न था। आज आधुनिकीकरण एवं वैज्ञानिकीकरण की वजह से परंपरागत संस्कार शिक्षा संस्कारों की जगह व्यवसायिक शिक्षा ने ली है। जो नागरिकता, सामाजिकता एवं राष्ट्रीयता के लिए घातक साबित हो सकती है। आधुनिक शिक्षा पाठ्यक्रम एवं अभ्यासक्रम में समयानुकूल परिवर्तन स्वागतार्थ है। उसमें वर्तमान पीढ़ी को सर्वगुणसंपन्न बनाने में पूरक एवं सक्षम है। वह बच्चों की उम्र, पूर्वज्ञान, बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमताओं के अनुसार निर्माण किया जाता है। बच्चों तक पहुँचाने वाले भी उतने ही सक्षम होने आवश्य है। वह जिनके लिए है उनतक सही ढंग से स्थापित करना सही संस्कारयुक्त शिक्षा है, जो बच्चों का सर्वांगीण विकास कर पाएगी।

मूलभूत शालेय भौतिक सुविधाएँ होने के बावजूद भी उन चीजों का बच्चों के लिए प्रयोग न हो तो उनका फायदा क्या? जैसे खेल सामग्री भरी पड़ी है, पर बच्चे खेल नहीं सकते, पुस्तकालय किताबों से भरा है पर बच्चे पढ़ नहीं सकते, यह शारीरिक एवं बौद्धिक विकास के रोड़े है। ऐसे कई उदहारण दे सकते हैं। हम इससे अवगत हो कि ‘परिवार’ सिमित सर्वांगीण विकास घटकों की पूर्ति करता है, परंतु पाठशाला सभी घटकों के समन्वय के साथ-साथ बच्चों का सर्वांगीण विकास करती है। इसके लिए समुचित व्यवस्था में सकारात्मक ऊर्जा के साथ सभी के समन्वय से कार्य करने की आवश्यकता है। पाठशाला और शिक्षक बच्चों के संस्कारी जीवन निर्माण में अभिन्न अंग माने जाते हैं।

अंतिम संस्कार शिक्षा केंद्र है - सामाजिक परिवेश। प्रत्येक व्यक्ति परिवार एवं पाठशाला के जीवनकाल में समय-समय पर प्राप्त की शिक्षा को समाज में विभिन्न माध्यमों से अभिव्यक्ति देता है। जैसा ज्ञान एवं संस्कार उसे प्राप्त हुए है, वैसा प्रतिबिंब समाज में साफ-साफ दिखाई देता है। यहाँ पर एक बात ध्यान देने योग्य है कि जब बच्चा सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेता है, तो वह समाज का निरिक्षण और अनुकरण करता है। ऐसे में बच्चों को उत्कृष्ट सामाजिक परिवेश, वातावरण एवं भौतिक सुविधाओं पूर्ति करना परिवार एवं पाठशाला का प्रथम कर्तव्य है। परिवार समाज की बहुत छोटी तथा पाठशाला समाज का प्रतिनिधित्व करती दूसरी प्रतिकृति होती है। बच्चों के सर्वंगीण विकास में विशेषकर सामाजिक विकास में पाठशाला महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यहाँ शिक्षा उद्देश्य एवं शिक्षा मूल्यों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा प्रदान करने से बच्चों के सर्वांगीण विकास में चार चाँद लग जाएँगे। 

सारांशतः नई पीढ़ी के सर्वांगीण विकास के लिए संस्कारयुक्त शिक्षा महत्त्वपूर्ण है। परिवार, पाठशाला एवं समाज यह त्रिवेणी अपनी-अपनी भूमिका जिम्मेदारी से निभाते हैं तो अपने बच्चे ही नहीं, वरन् इनमें बसने वाला भविष्य का भारत देश शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं सामाजिक गुणों से युक्त परिपूर्ण एवं संस्कारयुक्त निर्माण होगा। जिससे हमारी प्राचीन संस्कृति एवं संस्कारों का जतन एवं संवर्धन होगा। चलो, अपनी सोच एवं अपने शिक्षा कार्य में परिवर्तन लाते हैं।
-०-
12 अक्तूबर 2020
मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
(अध्यापक-कवि-संपादक)
सातारा (महाराष्ट्र) पिन- 415 515
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
-०-

■ देशवासियों के नाम हिंदी की पाती ■

  ■ देशवासियों के नाम हिंदी की पाती  ■ (पत्रलेखन) मेरे देशवासियों, सभी का अभिनंदन! सभी को अभिवादन!       आप सभी को मैं-  तू, तुम या आप कहूँ?...

आपकी भेट संख्या