मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

आलेख: एक ग़ज का नापता!

एक पहल - सह संपादकीय आलेख 
एक ग़ज का नापता
मच्छिंद्र भिसे 

है परों में शक्ति तो नाप लो उपलब्ध नभ सारा,
उड़ानों के लिए पंछी, गगन माँगा नहीं करते..
          चंद्रसेन विराट जी की उक्त पंक्तियाँ उन तमाम लोगों के लिए एक ऊर्जा प्रदान कर देती है जो जीवन का उद्देश्य भूल चुके है. देखा जाए तो एक मनुष्य को अपने जीवन में सभी से हटकर कुछ करना चाहिए क्योंकि सामान्य काम तो सभी करते है; परंतु असामान्य काम करने में जीवन का पुरुषार्थ और सार्थकता है. अगर आपकी भुजाओं में ताकत, खुद पर विश्वास, मेहनत करने की तैयारी, उद्देश्य के प्रति असीम श्रद्धा एवं लगन और प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास हो तो आपको मंजिल पाने से कोई रोक ही नहीं सकता. वही लोग आज समाज में अपना स्थान एवं सम्मान प्राप्त कर चुके हैं जिन्होंने दूसरों के सामने सहायता पाने के लिए हाथ नहीं पसारे बल्कि अपने आपको इतना ऊँचा उठाया कि दूसरों के सिर पर हाथ रख सके. यह सारी दुनिया आपकी है. आपके लिए अनगिनत रास्ते खुले हैं, बस आपको सही रास्ता चुनकर आगे बढ़ना होगा. कुछ लोग अपनी क्षमता को बिना पहचाने विशेष क्षेत्र में ही काम करना चाहते हैं और असफलता मिलने पर पछताते है. ‘पाछे दिन पाछे गए, लिए न हरी के हेत/अब पछताय होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत.’ सबसे पहले अपनी क्षमताओं एवं कमियों को पहचान कर समय रहते यदि सही निर्णय लिया गया तो फिर पछताना नहीं पड़ेगा.

          आज नई पीढ़ी भी भारी मात्रा में ऐसी ही बातों का शिकार होती हुई नजर आ रही है. इसके चलते गलत निर्णय लेकर अपने जीवन को अनिष्ट मार्ग पर ले जाते हैं या तो ख़त्म कर देते हैं. बच्चों में नैराश्य के भाव अभिभावकों की अभिलाषाओं की वजह से तो अधिक बढ़ता हुआ नजर आता है. यह अभिभावक इन बातों को कब समझेंगे कि बच्चे हमारे पंछी हैं, सिर्फ उनके परों में ताकत भरने का काम अपनी ओर से किया जाए न कि उनके पंख बन उन्हें अपाहिज बनाया जाए. जब तक बच्चों का सहारा हम बनते रहेंगे तबतक वे खुद अपने पंख नहीं फैलाएँगे और ऐसा ही रहा तो बाद में बच्चों के पंख तो होंगे किंतु सिर्फ बतख की तरह दिखावे के हो जाएँगे जो किसी काम के नहीं. जैसे किसी हाथी को बचपन में किसी छोटी श्रृंखला में बाँधकर रखते है लेकिन बड़े होने के बाद बलवान होने के बावजूद वह अपने पैरों की बेड़ी तोड़ नहीं पाता है. आजकल के अभिभावक अपने बच्चों के पैरों में अपनी अभिलाषाओं की श्रृंखला ऐसी बाँध देते है कि बच्चे बड़े होने पर अपनी मूल क्षमताओं को भूलकर जीवन में असफल बन जाते है और फिर परिवार में असंतोष का वातावरण निर्माण हो जाता है.

          क्या हमें अपने बच्चों को अनुशाशित कर सोचने के लिए मुक्त नहीं करना चाहिए? क्या ऊँची उड़ान भरने के लिए उन्हें हमारे बोझ से हल्का नहीं कर सकते? क्या उन्हें खुले आसमान में अपनी क्षमता को आजमाने के लिए नहीं छोड़ सकते? सोचकर देखिए. 

          आज मनुष्य भौतिकता की चकाचौंध आकर्षकता की ओर इतना आकृष्ट हो रहा है कि वह जीवन के मूल उद्देश्य से ही भटक रहा है. अपने जीवन का लक्ष्य तय करता तो है; परंतु भविष्य में वह अपने लक्ष्य के करीब, दूर-दूर तक नजर नहीं आता है. कुछ दिन पूर्व एक मित्र मिला जो बचपन में पुलिस बनने का सपना देख बड़ा हुआ था. वह आज किसी बड़े शहर में किसी कंपनी में काम कर रहा है. जब उसे पूछा तो उसने कहा कि वह बचपन का सपना था अब समय कुछ और है. इस जवाब से मैं सोच में पड़ा कि सपने क्या समय के अनुसार देखे जाते है? सच है कि चद्दर देखकर पैर पसारने चाहिए परंतु अपने पैरों के नाप की चद्दर खुद क्यों नहीं निर्माण कर सकते? अगर समय के अनुसार ही सबकुछ होता तो देश की आजादी का दिन उगने के लिए सौ से भी अधिक साल क्यों लगे? 

          ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ कहकर देश के हर युवा को प्रेरणा देने वाले अंतर्राष्ट्रीय उद्योजक धीरुभाई अंबानी जी ने कौन-से समय बड़ा बनने का सपना देखा था? सचिन तेंडुलकर ने अपने रिकॉर्ड बनाने के लिए कौन-सा मुहूर्त निकला था? पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जी को मिसाइल मैन बनने के लिए किसी और की जरुरत पड़ी थी? यहाँ तक की प्राकृतिक आपदाओं के लिए भी निश्चित समय नहीं होता है. हम खुद समय को पलटे उतनी हिम्मत रखे.

          मनुष्य कुछ भी नहीं होता तो वह अपनी कमजोरियों को ढकने के बहाने बनता है. जिन लोगों ने भविष्य को बचपन में देखा था, उसके लिए जी-जान लगाकर, पागलों की भांति अपने सपने पर प्रेम किया और उससे भी ज्यादा उसे पाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाकर बिना लक्ष्य से भटके मेहनत करते रहे और मंजिल को हासिल कर खुद को मील का पत्थर बना चुके है, अब हर कोई उनके जैसा बनना चाहता है; आसान रास्ते से क्योंकि कठिनाइयों को झेलने की ताकत उनमें नहीं बची. ऐसे लोग वहीं के वहीं रहेंगे.

एक गज का नापता खुद का ऐसा भी बनाओ,
समुंदर की गहराई से आसमान की ऊँचाई तक 
जिंदगी का एक कुरता अनोखा सिलाओ. 
***
२६ फरवरी २०२०
लेखक 
● मच्छिंद्र भिसे ●
(अध्यापक-कवि-संपादक)
सातारा (महाराष्ट्र) पिन- 415 515
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
-०-

● वह माली बन जाऊँ मैं !●

● वह माली बन जाऊँ मैं !●
   (कविता)
पौधे सारे बच्चे हमारे
ज्ञान मंदीर जब आएँगे
कलरव होगा, क्रंदन होगा
रोना-धोना समझाएँगे
स्नेह रिश्ता ऐसा जोडूँ
प्रीत से उपजाऊँ मैं
वह माली बन जाऊँ मैं!

सदाचार की टहनी और
कोंपल उगे विनयता के
प्यारी बोली के रोए आएँगे
प्रेम के गीत भौंरे गाएँगे
आत्मविश्वास की कैंची से
ईर्ष्या-द्वेष-दंभ छाँटूँ  मैं
वह माली बन जाऊँ मैं!

एक दिन कलियाँ चटकेंगी
खुशबू चारों ओर फैलाएँगी
बगियाँ में फिर पौधे आएँगे
खुशियों के दामन भर जाएँगे
हर पौधे को आकार देकर
जीवन को साकार कर पाऊँ मैं
वह माली बन जाऊँ मैं!
-०-
२३ फरवरी २०२०
● मच्छिंद्र भिसे ●
(अध्यापक-कवि-संपादक)
सातारा (महाराष्ट्र) पिन- 415 515
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
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●बने हैं एकत्व को●

●बने हैं एकत्व को●
   (कविता)
सृष्टि के निर्माता को वंदन हमारा
स्वीकार हो एक अनुनय प्यारा,
चाहत छोटी-सी है अपनी
बनें एक-दूजे का हम ही सहारा ।

बनें विशाल तन के कंकड़ हम,
हिमालयी चमकते ‘शूल’ बनों तुम।
बनें अथाह जलनिधि की बूंदें हम,
गरजती-इतराती ‘लहरें’ बनों तुम।
बनें उठती धूल के एक-एक रज हम,
अंगार बरसे तूफानी ‘बयार’ बनों तुम।
बनें मिट्टी में ख़ुद समेटे जड़ें हम,
खुशबू बिखराएँ वो ‘फूल’ बनों तुम।
बनें मंडराते हल्के बादल हम,
असीम पथ ‘आसमान’ बनों तुम।
बनें धूप की हल्की-तेज किरण हम,
दे दुनिया को चमक ‘सूरज’ बनों तुम।
बनें शमशानी उठती लौ-राख हम,
जिंदगी को जिए हर ‘साँस’ बनो तुम।

माँगा तो क्या माँगा!
खिल्ली उडाएँगे फिर सभी,
दीन अरज पर हँसोगे तुम
हम निराश न होंगे कभी।
बने हैं एकत्व को हम और तुम,
न्योच्छावर जीवन तुमपर सभी
समझकर देखो बात को
'श्वर' हैं हम और 'क्षर' हो तुम।
-०-
२३ फरवरी २०२०
● मच्छिंद्र भिसे ●
(अध्यापक-कवि-संपादक)
सातारा (महाराष्ट्र) पिन- 415 515
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
-०-

●गगन को हम नापा करें ●


●गगन को हम नापा करें ●
   (कविता)
चाहत हो बन पथिक
मील के पत्थर बन हम बैठा करें,
बुलंद हो हौसले और
भुजाओं में बल इतना भरे
गगन को भी हम नापा करें।

रोकेगा कौन तुम्हें
जब श्वास-विश्वास ले पंख पसारे,
होंगे ऊँचे पहाड़ नत हर पल
मेहनत से जीवन में रंग भरे
हिम्मत अपनी कभी न हारे।

चल पड़े मंजिल की ओर
होंगे काँटे ही काँटों की तारें,
रुकें न कदम तेरे कभी
सभी जय जयकार  करें
तुझपर कभी जो जलते थे सारे ।

पथ न छूटे कभी अपना
मिलें छल-कपट के बाड़े,
मिलेंगे रोकने वाले भी रोड़े
देख! शूल भी फूल बनेंगे सारे
बिछेंगी पथ पर तेरे प्रसून बहारें।

साथ अपनों का भी छूटेगा
फिर भी मन कष्ट न करे,
वक्त का पाँसा जब भी गिरे उल्टा
इतने बुलंद हौसले करें
वक्त भी हमारे यहाँ झूक पानी भरे।

हो भुजाओं में बल इतना
गगन को भी हम नापा करें।
-०-
२३ फरवरी २०२०
● मच्छिंद्र भिसे ●
(अध्यापक-कवि-संपादक)
सातारा (महाराष्ट्र) पिन- 415 515
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
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गुरूने केला शिष्याचा गौरव व कौतुक

  माझ्या किसन वीर कॉलेजचे हिंदी विभाग प्रमुख व पुरस्कार समारंभांचे अध्यक्ष प्रो.डॉ.भानुदास आगेडकर सरांचे कार्यक्रमा संदर्भातील अनुभव गुरु शब...

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