मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

'गवरी' - डॉ. महेंद्र भानावत

'गवरी'
रचनाकार- डॉमहेंद्र भानावत
समीक्षात्मक अभिमत - मच्छिंद्र भिसे
'गवरी' एक सांस्कृतिक लोककला का धरोहर     
      हिंदी के जेष्ठ साहित्यकार डॉ. महेंद्र भानावत द्वारा लिखित मेवाड़ की सांस्कृतिक धरा
'गवरी नृत्य' को प्रकाश में लानेवाली साहित्यिक कृति 'गवरी' इसी वर्ष (२०१७) में चित्रा प्रकाशन, अकोला (चित्तौड़गढ़) राजस्थान द्वारा प्रकाशित हुई। सामाजिक संस्कृति की विरासत को जतन एवं उसकी वृद्धि हेतु प्रकाशित इस कृति के रचनाकार डॉ. महेंद्र भानावत जी एवं चित्रा प्रकाशन की पूरी टीम को हार्दिक बधाईयाँ एवं मंगलकामनाएँ।
            'गवरी' यह सिर्फ एक साहित्यिक किताब होकर मेवाड़ प्रांत की भील समाज की लोकसंस्कृति का लोकनृत्य हैं जिसका कई पीढ़ियों से लेकर आज तक उसके सम्मान के साथ अनुभव किया जा रहा हैं। यह कृति मुझे पढ़ने को मिली तो मेरे मन में अनगिनत अनुत्तरित प्रश्न अपने-आप उठे। जिनके जवाब खोजना बेहद जरुरी हैं, जो इस किताब के विषय से जुड़े हैं।
            'गवरी' कृति के मुखपृष्ठ पर चित्रित इस सामूहिक लोकनृत्य की समर्पक छवि देखते ही विषयवस्तु का परिचय हो जाता हैं तो मलपृष्ठ से आदरणीय डॉ. महेंद्र भानावत जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से परिचित होते हैं। चित्रा प्रकाशन से यह कृति A4 पन्ने पर आकर्षक ढंग से सचित्र प्रकाशित की हैं जो देखकर ही पढ़ने को लालायित हो जाते हैं। जितनी बाहरी आकर्षकता हैं उससे भी बढ़कर 'गवरी' लोकनृत्य को सहज, सरल एवं आकर्षक ढंग से शब्दबद्ध किया हैं, वह पाठक के मन में रूचि उत्पन्न करता हैं। कुल मिलकर ३२ पृष्ठों वाली यह क़िताब इस लोकनृत्य के इतिहास के अनगिनत पन्ने खोल देती हैं।
            'गवरी' लोकनृत्य तो हैं ही, साथ में इसकी प्रस्तुति नाट्यसंगीत का आधार लिए हुई हैं। यह किताब जब मैंने पढ़ी तो बैसाख में मैंने 'गवरी' लोककला का कल्पनात्मक परंतु प्रत्यदर्शी अनुभूति की, इतना सटीक वर्णन इस किताब में पाया गया हैं। किताब को मैंने इसे पाँच चरणों में पढ़ा हैं।
     प्रथम चरण में 'गवरी' लोकपरंपरा का परिचय दिया है, इससे राज्यस्थान स्थित भील जनजाति का आत्मीय परिचय हो जाता हैं तथा इस जनजाति की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि का कम शब्दों में परंतु सटीक परिचय दिया हैं।
     दूसरे चरण में 'गवरी' लोकनृत्य-नाट्य कला का उद्भव एवं विकास के अंतर्गत मुखोद्गत करते हुए पीढ़ी-दर-पीढ़ी जो इस कला के संदर्भ में प्रचलित दो लोककथाओं का परिचय कराया हैं, वह रोचक हैं। जिसमें शिव जी तथा भस्मासूर संबंधी आख्यायिका, देवी अंबाव का सपना देखने से लेकर उस सपने को जब हकीकत में लाने की कोशिश में एक के बाद एक कड़ी जुड़ जाती हैं और इस लोकनृत्य-नाट्य के कई नायक, नायिका तथा विपक्ष के किरदार उभरकर आते हैं जिसमें भंवरी, वासुकि, बड़ल्या,चामुंडा, कंजरिया, धारिया भील, जुड़ी भीलनी, कालका, चावंड, सेणा आदि। इन सभी का प्रस्तुत कथानक बिलकुल सरल एवं अंत तक अपनी क्रमिकता नहीं छोड़ता, इसके कारन पाठक किताब से जुड़ा रहता हैं। 'गवरी' लोकनृत्य की दूसरी लोकजीवन से प्रचलित कथा भी यहाँ प्रस्तुत हैं जो कुछ पैमाने पर पहली लोककथा से मेल खाती हैं।
     तीसरे चरण में 'गवरी' लोकनृत्य के नामकरण संबंधी प्रचलित छह बातों को सामने रखने की सफल कोशिश की हैं। विशेषकर शिव जी की सेवा में अपना सिर चढाने की बात मन को छू जाती हैं। उसी श्रृंखला में लिखी अन्य बातें भी कम रोचक नहीं हैं।
     चौथे चरण में रचनाकार ने 'गवरी' लोकनृत्य-नाट्य कला के प्रदर्शनी-समय का परिचय कराया हैं। जो इस संस्कृति की खास विशेषताएँ ओढ़ी हुई है। रक्षाबंधन से लेकर अगले सवा महीने तक लगातार सामूहिक नृत्य अलग-अलग स्थानों पर जाकर करते हैं और यह सभी कलाकार बिना थके-हारे अपनी संस्कृति का पालन करते हैं, शायद ही कोई ऐसी लोककला की धरोहर होगी।
     पाँचवें एवं अंतिम चरण में 'गवरी' इस लोकनृत्य-नाट्य से जुड़े परंपरागत सभी पात्रों का परिचय, पोशाख पहनने के ढंग के साथ रंग, भावमुद्रा, जनव्यवहार तथा कार्य-कलाप का विस्तार से परिचय कराने का प्रयास किया हैं। विशेषकर इन पात्रों को छह प्रकारों में दिखाकर उनकी अलग-अलग विशेषताएँ दर्शाने में सहजता लाई हैं।
     समूची किताब ही बाल पाठक वर्ग ही नहीं अपितु भारतवर्ष के सभी पाठकों के लिए पठनीय एवं ज्ञानवर्धक हैं। इसे अपने निजी संग्रह के साथ ही पाठशालाओं के पुस्तकालयों में भी छात्रों को अपने देश की सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा का परिचय कराने के लिए फायदेमंद होगा।
            'भारतवर्ष' विविधता में एकता का आदर्श दुनिया सामने रखें हुआ हैं। और इसकी बुनियाद में आते हैं - रीतिरिवाज, परंपराएँ, तीज-त्यौहार, लोकसंस्कृति तथा मानवता धर्म का पालन आदि। परंतु आज इस उपभोक्तावाद भरी भागदौड़ में मनुष्य अपनी बुनियादी बातें ही भूल गया हैं। ऐसे वक्त में तो प्रसिद्ध तथाकथित बातों को मनुष्य लोकलज्जा के कारन नियमों का पालन करता हैं परंतु यह सब बाहरी होता हैं और इसी की वजह से भारतीय संस्कृति की धरोहर की अमानत को अनदेखा कर भूल भी जाता हैं। ऐसे समय समाज से पिछड़े तथा प्रताड़ित लोगों की संस्कृतियाँ, परंपराएँ  एवं लोककला को देखने का समय किससे पास हैं। परंतु यह करते वक्त हमें अपने देश की विरासत रूपी बुनियादी बातों को कतई नहीं भूलना  चाहिए अन्यथा अपने देश की वह परंपराएँ, संस्कृति तथा लोककलाएँ लुप्त हो जाएँगी। हमें इन्हें बचाना होगा नहीं तो अगली पीढ़ी इस देन से परे हो जाएगी और सिर्फ यह  किताबों, अंतरजाल और बातुनी बातों में ही रह जाएगी।
     डॉ. महेंद्र भानावत जी द्वारा लिखित 'गवरी' (आदिवासी भीलों  आनुष्ठानिक नृत्य) शीर्षक की साहित्यिक कृति एवं प्रकाशक राजकुमार जैन 'राजन' जी की टीम द्वारा भूली-बिसरी सांस्कृतिक परंपरा को पुनर्जिवित करने तथा इस श्रृंखला को कायम करने हेतु मेरी और से बहुत बहुत मंगल कामनाएँ एवं इस कृति हेतु रचनाकार एवं प्रकाशक टीम का पुनश्च अभिनंदन !!!
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समीक्षक

श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे
अध्यापक
ग्राम भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)
चलित : ९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३
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