खुशियाँ मनाए शाम
कवि- मच्छिंद्र भिसे
(सातारा महाराष्ट्र)
रात धीरे रंग चढ़े,
सजने लगी शाम,
थके-हारे जीव,
करने लगे आराम,
सपने देखें नींद में,
रोटी लगे महान,
स्वार्थी दिन के रंग अनेक,
खुशियाँ मनाए शाम.
सच का साथ,
सिर्फ मन की ही बात,
बेईमानी चाल चले,
घनी अँधेरी रात,
नींद गहरी हो रही,
मन मचता कुहराम,
स्वार्थी दिन के रंग अनेक,
खुशियाँ मनाए शाम.
नींद तो है,
पर नींद नहीं,
सपने है बहुत,
अपना कोई साथ नहीं,
किसे कोसे किसे अपनाएँ,
दिखता कहीं न राम,
स्वार्थी दिन के रंग अनेक,
खुशियाँ मनाए शाम.
नींद से डर लगे,
साँस चैन की कहाँ मिले,
अब डर का सामना करना होगा,
चाहे अँधियारा खौफ साथ चले,
नींद के होश उड़ जाए ऐसा करूँ,
उम्मीद और विश्वास से करूँगा प्रयाण,
फिर अँधेरा भी रोशनी फैलाएगा,
न होगा डर न डर का कोई पैगाम.
स्वार्थी दिन के रंग अनेक,
खुशियाँ मनाए शाम.
***
१२ जुलाई 2019
रचनाकार
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे
अध्यापक-कवि-सह संपादक
भिराडाचीवाडी,
डाक
भुईंज, तहसील वाई,
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