मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

■ देशवासियों के नाम हिंदी की पाती ■

 ■ देशवासियों के नाम हिंदी की पाती 

(पत्रलेखन)

मेरे देशवासियों,
सभी का अभिनंदन! सभी को अभिवादन! 
    आप सभी को मैं-  तू, तुम या आप कहूँ? किससे संबोधित करूँ? समझ नहीं आता कि मैं तुमसे हूँ या तुम सभी मुझसे! लेकिन एक बात निश्चित है कि हमारा एक अनूठा रिश्ता अवश्य है। मुझे पहचानने और जानने में तुम्हें कठिनाई बिलकुल नहीं होगी। मैं तुम्हारी सरल, सहज, कोमल एवं मिठास से भरी, सबके दिलों को जोड़ने वाली, देश की संवैधानिक राजभाषा ‘हिंदी’     आज इस शुभ अवसर पर ख़ुशी मनाऊँ या रोऊँ इस दुविधा में हूँ, लेकिन आपकी ख़ुशी और उत्साह में बिलकुल बाधा नहीं बनूँगी। बस तुम अपने दिल पर हाथ रखकर अपने आपको सवाल करिए कि क्या मेरा महत्त्व सिर्फ एक दिन का है? क्या इस दिन के बाद मेरा आपके जीवन में किसी प्रकार का स्थान नहीं है? अवश्य ही इसका जवाब मिलेगा- ‘नहीं’।
    सच है कि मेरी यात्रा सदियों से चली आ रही है। इसा पूर्व १५०० वर्ष पुरानी प्राचीन आर्यभाषा संस्कृत से मेरा जन्म हुआ। मेरा नामकरण सिंधु नदी से हुआ है। यहाँ आए ईरानी लोग ‘स’ को ‘ह’ और ‘ध’ को ‘द’ कहते थे। इस कारण सिंधु से हिंदु बना और हिंदु से हिंद। हिंद के निवासी हिंदु कहलाए। बाद में हिंदी भाषा नाम से मुझे पहचाना जाने लगा। मेरे विकास की अवधि हजारों वर्षों की है। वैदिक संस्कृत से लेकर लौकिक संस्कृत तक का लगभग १५०० वर्षों का समय मेरे लिए बाल्यकाल ही रहा। 
    मैं धीरे-धीरे बढ़ रही थी। संस्कृत से पाली, पाली से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश, अपभ्रंश से शौरसेनी और शौरसेनी से होते हुए खड़ी हिंदी में आने के लिए मुझे लगभग १००० वर्ष और लगे। यहाँ तक आते-आते मुझे पहचान मिली। यह समय था इसा वर्ष १ से लेकर इसा वर्ष १००० का। इन हजार वर्षों में मैं हिंदुस्थान में अलग-अलग रूप में विस्तारित हुई, लेकिन मूल में सामानांतर एक ही थी। इन दिनों मैं शौरसेनी, पैशाची, ब्राचड, महाराष्ट्री, मागधी आदि नामों से अलग-अलग स्थानों पर बढ़ती जा रही थी। इसके बाद मुझमें धीरे-धीरे प्रौढ़ता आई और मेरे कई रूप सामने आए। 
    स्थानीय विशेष प्रभाव के कारण भी मेरे रूपों में परिवर्तन आते रहे। जैसे आप मुझे वृंदावन की ब्रजभाषा, अयोध्या की अवधि, गढ़वाल की गढ़वाली, असम की असमिया, राजस्थान की राजस्थानी, हरियाणा की हरियाणवी आदि रूपों में जानते हो। मुझे आज ख़ुशी होती है कि एक समय था जब  विभिन्न रूपों में पाई जाने वाली मैं एक रूप ‘हिंदी’ में पूरे भारतवर्ष में दिखाई देती हूँ। इसका सारा श्रेय हिंदुस्थान के अतीत और वर्तमान के हरेक हिंदुस्थानी को जाता है। 
    आपको बताते हुए मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मेरे विकास के अंगों में एक महत्त्वपूर्ण अंग है साहित्य। मुझमें लिखे गए साहित्य को इतिहासकारों ने आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल नामों से सभी के सामने लाया।मेरे विकास के आदिकालीन समय के समकालिन कवि एवं राजाओं का बड़ा महत्त्व रहा है। राजाओं ने कवियों को राजाश्रय देकर कवियों का ही नहीं मेरा भी सम्मान किया है। 
    भक्तिकाल में सामाज को सही दिशा देने तथा अपने जीवन को अध्यात्म से मोक्ष की और ले जाने का काम निर्गुण और सगुण विचारधारा के संत कवियों ने किया। कबीर, मीरा, तुलसीदास, नंददास, सूरदास आदियों ने भक्ति एवं आस्था के रूप में मुझे पहचान दी। लोग मुझमें से होकर खुद को ईश्वर को समर्पित करते थे, तब अपने आपको उस फूल की तरह महसूस करती थी जैसे कोई ईश्वर को समर्पित किया जा रहा हो। तदुपरांत विदेशी आक्रमणों के कारण मुझमें अन्य भाषाई संस्कार होने लगे, इसके बावजूद हिन्दुस्थानियों ने रीतिकाल में भी मुझे जीवंत रखने का प्रयास किया और वे इसमें सफल भी रहे। 
    एक ख़ास बात तो बताना भूल ही गई कि प्राचीन काल से लेकर रीतिकाल तक मेरा साहित्यिक रूप पद्य याने काव्य-सा ही था। आधुनिक काल में आने के बाद मुझे गद्यात्मक रूप प्राप्त हुआ यह लगभग इसवी सन १८५० के आसपास की बात है। कई चढ़ाव-उतार के बाद इस सदी में मुझे बहतरीन, सटीक, शुद्ध और वर्तमान का रूप मिला, आगे बढ़ते-बढ़ते कई छोटे बड़े परिवर्तनों के बाद आज मैं आपके सामने इस रूप में हूँ। मैंने अपनी भाषाई बहनों को पराया नहीं माना यहाँ तक की संस्कृत से लेकर अंग्रेजी तक को मैंने अपने-आपमें समा लिया है।
     यहाँ तक के सफ़र में आप जैसे हजारों लोगों का योगदान रहा है। ऐसे में उन्होंने मुझे और मैंने उन्हें अलग पहचान दी, यहाँ तक कि कुछ लोग तो मेरे सम्मान और परवरिश के लिए लड़ते गए, कभी जीते तो,  कभी हारे। इन सभी को सलाम करती हूँ, उन सभी के प्रति अपनी संवेदनाएँ व्यक्त करती हूँ।
    मुझे याद है जब अपना देश अंग्रेजी शासन का गुलाम था, ऐसे में अपने देश की आवाज बनने का अवसर मुझे मिला। झाँसी की रानी के वे बोल कि ‘मेरी झाँसी नहीं दूँगी’, मैं कैसे भूल सकती हूँ हजारों महात्मा गाँधी जी के ‘चले जाव’ से सुभाषबाबू की ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ तक के नारों में मैं थी। उन दिनों राष्ट्रीय नेता जन-मन की भाषा मानकर भाषण के लिए मेरा ही प्रयोग कर रहे थे। जब कोई सूरमा ‘इंकलाब जिंदाबाद, जय हिंद, वंदे मातरम’ कहते-कहते अपने प्राणों के बलिदान देते थे, उस समय मैं मन-ही-मन उनके सामने नत हो जाती थी। 
    इन दिनों मेरे महत्त्व को समझकर मेरे प्रचार-प्रसार हेतु कई संस्थाएँ स्थापित हुई। कई साहित्य एवं साहित्यिक पत्रिकाओं ने जनम लिया, कई समाचार पत्रों के प्रकाशन होने लगे। मैं ढाल बनकर हर भारतवासी के साथ खड़ी थी। मैं मानती हूँ कि अपने देश को आजाद कराने में मेरी प्रधान भूमिका रही है, इसपर कोई संदेह नहीं कर सकता।
    अपना देश आजाद हुआ, नया देश बना और साथ ही बना देश का संविधान। आजाद देश को चलाने के लिए राजभाषा के रूप में १४ सितंबर १९४९ के दिन मुझे अपनाया गया, उस दिन मैं बहुत खुश थी। लेकिन मेरी यह ख़ुशी कुछ पल की रही। मेरे साथ सुविधा हेतू १५ वर्षों के लिए अंग्रेजी को रखा गया। देश प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू जी ने ‘१४ सितंबर-हिंदी दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की और १४ सितंबर १९५३ से मेरा पर्व मनना शुरू हो गया। इसके पीछे भूमिका यह रही कि हिंदी का प्रचार-प्रसार हो तथा देश को एक प्रधान राष्ट्रभाषा मिले; परंतु दुर्भाग्य रहा कि अगले पंद्रह साल बीतने के बाद राजनैतिक उदासीनता के कारण आज तक अंग्रेजी देश की राजभाषा बनी रही। दुःख इस बात का होता है कि इतने विशाल देश को निजी न राष्ट्रभाषा है, न राजभाषा; इसके बावजूद अपने देश के हिंदी प्रेमी मुझे ही अपनी राष्ट्रभाषा मानते हैं, कारण – हिंदी सामान्य व्यक्ति तक पहुँचने का एकमात्र माध्यम है, इस बात से मैं गर्व और आनंद का अनुभव महसूस करती हूँ।
    महात्मा गांधीजी ने कहा था- ‘राष्ट्रभाषा बिन मेरा देश गूँगा है और हिंदी देश की राष्ट्रभाषा बनने की क्षमता रखती है।’  लोकमान्य टिळक जी ने १८९२ में कह गए- ‘यदि देश के लिए कोई एक भाषा चुनना हो तो मैं बेहिचक ‘हिंदी’ को चुनुँगा’। कई महानुभावों ने हिंदी को अपने देश की राष्ट्रभाषा कहा और माना भी; उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के लिए भी भरसक प्रयास किए, लेकिन वे सब विफल रहे।  
    वर्तमान में भाषावाद, प्रांतवाद दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। मैं जिन राज्यों की मातृभाषा नहीं हूँ, वहाँ मेरा विरोध अधिक मात्रा में हो रहा है और जिन राज्यों में मातृभाषा हूँ वे मुझसे विमुख हो बैठे है। मैं इन्हें कैसे समझाऊँ कि हम पहले भारतीय है बाद में प्रांत के। पहले देश बना, बाद में अपने प्रांत। मैंने कभी किसी प्रांतीय भाषाई बहन को दूजा नहीं माना, यहाँ तक कि जितना हो सके अपने में समा लिया, अपना मान लिया है। फिर ये लोग अंध प्रांतवाद, भाषावाद फैलाकर क्या साबित करना चाहता है? निसंदेह हमें अपनी जन्मभाषा याने मातृभाषा को अपनाना ही चाहिए, उसपर प्रेम करना चाहिए, उसके संरक्षण एवं समृद्धि की जिम्मेदारी हमारी ही है। मैं मानती हूँ कि सभी भाषाएँ अपने-आप में श्रेष्ठ है फिर यह छोटी, वह बड़ी कहकर कुछ लोग अपने अज्ञान का प्रदर्शन क्यों कर रहे है? सुज्ञ भारतीय ऐसे झमेले से परे होकर सर्वोच्च स्थान पर देश को मानकर देश की मातृभाषा का सम्मान अवश्य करेंगे।
    साथियों, आज हरेक भाषा में कई संभावनाएँ, सफलताओं के क्षेत्र हैं, वैसे मुझमें भी हैं। मैं आपको यहाँ आने के लिए अनुरोध करती हूँ। आपको बताते हुए ख़ुशी होती है कि आज मैं दुनिया की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओँ में द्वितीय स्थान पर हूँ, मैं वैश्विक भाषा का रूप ले रही हूँ। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दुभाषक, अनुवादक आदि क्षेत्रों में आप मुझे आजमा सकते हो। दूरदर्शन, आकाशवाणी, साहित्य, अभिनय, शिक्षा, बैकिंग, अर्थ, राजनीति आदि क्षेत्रों में आप मेरे माध्यम से अपने जीवन को समृद्ध कर सकते हैं। आपको कलेक्टर, कमिशनर, पुलिस अधीक्षक जैसे उच्चस्थ अधिकारी के रूप में मैं देखूँगी, तो मुझे गर्व होगा कि आप सामान्य जनता की सेवा करते समय अपनी क्षेत्रीय भाषा के साथ मेरा भी प्रयोग करेंगे। ऐसे कई क्षेत्र हैं जिसमें आप मुझे अपना कर देश के सुजान एवं आदर्श नागरिक बनेंगे।
    आशा करती हूँ कि आप सभी भाषाओँ का सम्मान करेंगे, अपनी भाषाओं को समृद्ध करेंगे, भाषाई झगड़े-टंटों से दूर रहे और अपने तथा देश कि समृद्धि के बारे में सोचेंगे। आपको मालूम है कि आपके जनम से पहले मैं थी, आज हूँ और आपके के बाद भी रहूँगी। मैं आपको वचन देती हूँ कि आप मुझे जो सम्मान दे रहे हो, मेरी वृद्धि में जो योगदान दे रहे हो, याद रखिए आपके इन कार्यों को यह धरती, चाँद और सूरज जबतक है तबतक याद रखूँगी, आने वाली हर पीढ़ी को आपकी याद दिलाती रहूँगी? 
समापन में मैं आपसे कुछ प्रश्न करना चाहती हूँ, दिल से जवाब दीजिए। क्या मुझे अपनाओगे? क्या मुझे अपने गले का हार बनाओगे? क्या आप अपने देश को राष्ट्रभाषा देंगे? यदि हाँ है तो –
    चलो मिलकर साथ चले
    अपने हाथों में मेरा हाथ ले चले
    चाहे आए लाख तूफान यहाँ
    दो कदम मैं चलूँ, सौ कदम आप चले।
तुम सभी को वंदन करती हूँ।
तुम्हारी सखी या सहेली, देश की बिंदी
तुम्हारी हिंदी!
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08 सितंबर 2023
रचनाकार:  मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©® 
संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका,  सातारा (महाराष्ट्र)


संपर्क पता
● मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'  
संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका
भिरडाचीवाडी, डाक- भुईंज,  
तहसील- वाई, जिला- सातारा महाराष्ट्र
पिन- 415 515
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
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गुरूने केला शिष्याचा गौरव व कौतुक

 माझ्या किसन वीर कॉलेजचे हिंदी विभाग प्रमुख व पुरस्कार समारंभांचे अध्यक्ष प्रो.डॉ.भानुदास आगेडकर सरांचे कार्यक्रमा संदर्भातील अनुभव गुरु शब्दातून व्यक्त 

गुरूने केला शिष्याचा गौरव व कौतुक

दि.10 फेब्रुवारी 2024, राष्ट्रभाषा भवन, सातारा


प्रिय गणेश

*आज माझ्या* आयुष्यातील अत्यंत आनंदाचा आणि गौरवपूर्ण क्षण अनुभवला.आपण चांगल्या माणसांच्या सतत संपर्कात राहिल्याने आपल्या हातून जे संस्कारानुरुप सतकर्म होऊन जाते त्याचे सन्मानपूर्वक फळ मिळतेच याचा प्रत्यय आज मला आल्याने आपण खऱ्या अर्थाने शिक्षक झाल्याचे आणि असल्याचा सार्थ अभिमान वाटला.आज सातारा जिल्हा हिंदी अध्यापक मंडळाने आयोजीत केलेल्या गुणी व उपक्रमशील  शिक्षक व विद्यार्थ्यांच्या सत्कार सोहळ्याचे अध्यक्षपद याच सतकर्माचे रसाळ फळ असल्याची मला व्यासपीठावर बसल्या पासून प्रकर्षाने जाणीव होत होती.परम आदरणीय भाऊंनी जनतेच्या या राऊळात मला संधी आणि माझ्या गुणावगुणांसह मला सहंन करुन नेहमी आपल्या कुवती नुसार वंचितांना मदत करण्याची म्हणजे निस्वार्थी भावाने सेवा करण्याची जी सवय लावलेली आहे ; त्यांचेकडून आपल्याला मिळालेल्या या संस्कारशील सतकार्याचा आज मला आभिमान वाटून एक शिक्षक असल्याचे सार्थक झाल्यासारखे वाटले.आपण करत असलेल्या निस्वार्थी कार्याचा अभिमान त्यावेळी वाटला जेव्हा आपल्या महाविद्यालयाचा माजी विद्यार्थी *मच्छिद्र भिसेला* मिळालेल्या गौरवाला उत्तर देत असताना त्याने अभिमानाने मी किसन वीर महाविद्यालयाचा विद्यार्थी आणि अत्यंत भावनिक होऊन मला जर प्रा.गणेश चव्हाण आणि त्यांच्या पत्नीने सर्व प्रकारची मदत केली नसती तर आज मी या ठिकाणी नसतो माझा हा पुरस्कार मी या दोघांना अर्पण करतोय.त्याचे हे शब्द मला  शिक्षक म्हणून मिळणाऱ्या कोट्यावधी पुरस्कारा पेक्षा अनमोल वाटले.

खरच आपण नशिबवान अहोत निस्वार्थी आणि परिसासम व्यक्तिंच्या मार्गदर्शनाखाली आपल्या आयुष्याच सोन झालेल आहे याची जाणीव मला नेहमीच असते आज जरा जास्तच तीव्रतेने  अनुभवत होतो म्हणून तुझ्याशी शेअर करावस वाटल.

डॉ. भानुदास आगेडकर
हिंदी विभागाध्यक्ष, किसन वीर कॉलेज, वाई
अध्यक्ष, पुरस्कार वितरण समारोह
दि. १० फेब्रुवारी २०२४
राष्ट्रभाषा भवन


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माझ्या गुरुमाऊलींचा आशिर्वाद शब्द संदेश

 माझ्या गुरु माऊलींचा आशिर्वाद शब्द संदेश

*आपण शिक्षक* या भूमिकेतून कार्यरत असताना अनेक विद्यार्थ्यांशी आपला संपर्क येतो प्रत्येकजण लक्षात रहात नसला तरी जे लक्षात राहिले पाहिजेत त्यांचा विसर पडत नाही आणि ते ही विसरत नाहीत.परिस्थितीचे अत्यंत कठोर चटके सहन केलेला आणि आपल्या सातत्यपूर्ण बेस्ट प्रयत्नांची पराकाष्टा करणारा आमचा अत्यंत विनम्र विद्यार्थी मित्र *मच्छिंद्र भिसे* हा असाच एक गुणी शिक्षक.घरात शिक्षणाची कसलीच परंपरा नसलेल्या या मुलांने हिंदी विषय आणि भाषेमध्ये जी गति प्राप्त केली आहे ती खरोखर थक्क करणारी आहे.तंत्रज्ञानाच्या वापराचं उत्तम ज्ञान त्याच्या व्यक्तीमत्वाची गरिमा वाढवणारा भाग आहे.आपल्याला नाही शिकता आलं पण आपला दादा शिकतो म्हणून बकरी संभाळत वय विसरून लहान असून ही मोठया भावाची भूमिका निभावणारा बंधू पोपट याचं कौतुक करावं तेवढं थोडं आहे.असा एक प्रसंग आला की आपली सगळी बकरी विकून पोपटने मच्छिंद्रला बी .एड करण्यासाठी लागणाऱ्या पैशाची तरतूद करून दिली.खडतरपेक्षा ही खडतर प्रवास करणाऱ्या या गुणी विद्यार्थी मित्राला काल सातारा जिल्हयातील हिंदि विषया करीता दिला जाणारा *उपक्रमशील गुणवंत शिक्षक पुरस्काराने सन्मानित करण्यात आलं*.

आपल्या विद्यार्थ्यांचं कौतुक आपल्या गुरुच्या हस्ते व्हावं हा माझ्या आनंदाचा आणि समाधानाचा उच्च भाग आहे.ज्या जनता शिक्षण संस्थेत काम करतो त्याचे विश्वस्त आदरणीय भाऊ आणि आदरणीय मदनदादा ज्या हेतूने आणि ज्या निस्पृहपणे आजवर कार्यरत राहिले आहेत त्यातला ००.१ इतक्या छोट्या अंशाला केवळ स्पर्श करू शकलो मला सार्थकतेचं धन मिळाल्याचं समाधान आहे.मच्छिंद्रला वर्गात मी शिकवलं व मला डॉ.भानुदास आगेडकर सरांनी शिकवलं हा प्रवास आनंददायी आहेच पण मी आणि आगेडकर सर याचं श्रेय अतिशय निर्मळपणे आदरणीय भाऊ आणि दादांच आहे असं समजतो.

मला पुरस्कार कार्यक्रमाला हजर नाही रहाता आलं परंतु पुरस्कार घेतल्यावर तो आनंद शेअर करण्यासाठी मच्छिंद्र थेट माझ्या घरी आला माझ्या आई वडीलांचे आशीर्वाद घेतले हे समाधान हा आनंद कशात मोजता येईल ? हा पुरस्कार घेण्यासाठी तो एकहजार टक्के पात्रच आहे.पुरस्कारासाठी ज्यांनी निवड केली त्यांना मनपूर्वक धन्यवाद.दिशा ॲकॅडमीचे सर्वेसर्वा आमचे मित्र डॉ.नितीन कदम यांनी मच्छिंद्रला त्यांच्या माध्यमिक स्कूल मध्ये सहभागी करून घेतलेलं आहे त्यांना स्पेशली धन्यवाद .

खंत एवढीच आहे या गुणी शिक्षकाला अजून सरकारी यंत्रणेचा भाग होता आलेलं नाही पण आशा कायम आहे आज ना उद्या होईल याची.

मित्रा मच्छिंद्रा मन:पूर्वक अभिनंदन व शुभकामना आणि गुरुदेव डॉ.आगेडकरसर प्रणाम.

                  💐💐

            प्रा.गणेश चव्हाण 


शत्-शत् वंदन!

■ देशवासियों के नाम हिंदी की पाती ■

  ■ देशवासियों के नाम हिंदी की पाती  ■ (पत्रलेखन) मेरे देशवासियों, सभी का अभिनंदन! सभी को अभिवादन!       आप सभी को मैं-  तू, तुम या आप कहूँ?...

आपकी भेट संख्या