और खो रहा मानव संवेदना,
फिर कैसे हो ख़ुशी की सुबह
जहाँ रात भी हो दिन तह-ब-तह
एकता से कब पनपेगी मानवता
और खिले यहाँ इंसानियत का बसंत।
जाती, मजहब और धरम,
बन रहे हरदम हथियार,
मिट रहे मानव भलाई के करम
मानवता के पुजारी बन रहे लाचार,
बने एक रहे नेक चलो लाए विचार ,
आओ मिलकर करें कुरीति का अंत।
सड़क पर इंसान है खड़ा,
खोल पहने है भेड़िए-सा अड़ा,
पता नहीं किस दाँव वार करें,
जैसे शिकारी शिकार पर टूट पड़े,
आओ भेद खोले बने सब पावन
चुने इन्सानियत डगर हो सुपंत।
अब घुटन है खुली हवा में,
बदबू है अंधाधुंध राजनिती की,
स्वार्थ, कर्महीनता, असत्य और लूट का,
खुले आम हो रहा है व्यापार इनका,
मिटा दे समूल अस्तित्व इन सबका,
हे ईश,बनाओ सभी को मानवता का महंत।
एकता से कब पनपेगी मानवता
और खिले यहाँ इंसानियत का बसंत।
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