नकाब ओढ़े चेहरे से
देता खुश होने की तसल्ली
तो मेरी रूह काँप उठती हैं और,
सवाल मन को पूछ बैठती है।
क्या बेचिराग है खुशियों का वतन,
और जल उठा है सपनों का बदन?
जवाब भी क्या दे पाता मैं,
जहाँ समय के घेरे में,
जलकर राख है आशाएँ,
और पथहीन हुई दिशाएँ,
फिर किस राह के पथिक बने,
जिस क्षितिज नये विधान बुनें।
आह ! सपना भी सवाल पूछता अब,
क्या आँखे खो दी हैं सपने देख-देख ?
आखिर सुनकर जवाब उम्मीद का,
मिट गया रूह औ' सपने का भरम।
ना ही खुशियाँ है राख बनीं,
और ना ही आँखों के सपने है टूटे।
एक बात बता ये रूह और सपने,
अपने ही लोग रास्ते काँटे बोए,
और चिराग बनी पगडंडियाँ भी मिटायें,
फिर कैसे किसी को आपने देखें हैं सोए।
तो बता दो इस मेरे पागल मन को,
कैसे न ढकूँ झूठे नकाब से अपने तन को।
रूह और सपने सुन अब बात मेरी,
बिना ये नकाब पहने स्वीकार ही नहीं
अस्मिता और अस्तित्व की पहचान हो मेरी।
रचना
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे
उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)
9730491952 / 9545840063
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