■ पितृ बरगद ■
(कविता)
कल जो हम थे
वहीं आज भी हैं
बदला है तो बस
समा औ समय।
हम तो वहीं हैं
उस बरगद के पेड़ से
फैलाते हुए टहनियाँ
और जड़ों की ओर
बढ़ाते रेशमियाँ
जो नींव में ढलकर
नव बरगद हो जाएगी
नव शिशु बड़ कहेगी।
झूम उठेगा बरगद
देता जीवन को अर्थ
बढ़ा और बढ़ाता रहा
न किया जीवन व्यर्थ।
आँधियाँ थीं बहारें
बरस रही थीं अंगारे
पर थके कभी न हारे
बस चलता चला
सभी को बाँधे-
एक तान में
एक जान में
एक आन में
अभिमान में
कि रहेगा समा
और मेरी जड़ें,
वहीं मुझे लिए
अपनी गोद में खड़े!
आश्वस्त होऊँगा
कि अब चलने को है
रहें न रहें हम यहाँ
फूल-सा महकने को है!
(एक बाप की अभिलाषा)
-०-
19 जनवरी 2022
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
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