गोरी खेलें होरी
(कविता)गाँव की गोरी खेलें होरी
देख अंबर भयो है लाल
बसंत भी संग खेलें होरी
प्रीत रंग से रंग गए गाल।
हँसी-ठिठोली में मगन आज
भूल गई वो नित के काज
माई आवै घुड़की भर जावै
अधर खिला मिटाती मलाल।
होरी में रंगी लाड़ो को देखे
धरती पर सरग आनंद लखे
सब खुशियों के रंग यहाँ
फीका भी लगे है गुलाल।
हर रंग से सजी है गोरी
रंग-अंग भी गाता लोरी
त्याग-समर्पण के रंग से
करती सबै मालामाल।
होरी के रंग में रंग गई छोरी
शील-विनय की भर पिचकारी
हर दिन घर में उत्सव भारी
बिटिया ही है सम के लाल।
-०-
28032021
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©® संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
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