वृक्ष !
(कविता)हे वृक्ष!
कितना सहते हो
शीत, घाम और मेह
उठते हो ऊपर और ऊपर!
पानी की तलाश में
चुपचाप अंदर ही अंदर
रिस जाते गहरी जमीं में
पाते हो पानी का भँवर!
और लद जाते हो
पर्ण, फूल और फलों से
भर देते हो गंध हवा में
और खोते स्वांत सुखाय में!
पर, मनुष्य आता, छाँव लेता
फूलों की खुशबू लिए
फलों को चखता, डकारता!
और, चलाता है कुल्हाड़ी
तेरे तन पर कृतघ्न बन
कट जाते तेरे बंधू जन
फिर भी तू है मौन!
क्योंकि, तुझे पता है
ज़र-ज़र मर जाएगा
वो न तुझे बोएगा
तू निशब्द अमरत्व पाएगा।
हे इन्सान!
अब तो कुछ शर्म कर
दो पौधों का उपकार तो कर!
-०-
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©® संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
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