(कविता)
धरा के गाल पर
काल के भाल पर
अखंड हूँ, प्रचंड हूँ
कर्म का महाचंड हूँ।
झकझोर दे मुझे यहाँ
अंधकार की छाह में
दीप भी उजाड़ दे
घनघोर काली रात में
जल उठेगी प्राण ज्योति
हृदय का मेरुदंड हूँ।
रवि भी गला दे
अंगारों की राह में
धरा भी उबाल दें
अंतस्थ ज्वालधार में
जलधि है अंग-अंग
हिमाद्री-सा भूजदंड हूँ।
आँधी का खौफ बुन
पग भी न साथ दे
हवा का चक्रवात सुन
तन-बदन थाम दे
जितना लूट सकें लूट लें
परोपकार का देहकुंड हूँ।
कोशिश करें खंड की
अखंड की मैं राह हूँ
शर्त है मिटने की
बेशर्त फिर भी उठता हूँ
तिल-तिल मिटूँगा कभी
याद रहूँ वो उदित मार्तंड हूँ।
-०-
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©® संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
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