वक्त का पहिया ऐसा चला कि नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा.
आशाएँ गढ़कर थे शासकीय शिक्षक भरती पर. परंतु नौ हजार की सूची में हमारी कैटेगरी और हिंदी विषय का एक भी अध्यापक भरती नहीं हुआ. अब नौकरी की तलाश में और परिवार के चिंतन में भी समय बदलने के इंतजार में भटक रहे हैं. जहाँ हो सके अपना परिचय पत्र लेकर पहुँचने की कोशिश में हूँ. शायद बहुत कुछ अच्छा अथवा बहुत कुछ बुरा होने की संभावना है. आशावादी बनकर समय काटने की कोशिश में हूँ. देखते हैं.......
इस चिंतन पर शब्दों ने अपने आपको इस कदर गढ़ा वह आपके सामने प्रस्तुत है.
वक्त के साथ समर
(विधा : कविता)
पगला मित्र समय हमारा खफ़ा हमसे हो गया,
संग था कभी हमारे आज दुश्मन हमारा हो गया,
निकला था कभी फूल बिछाने पथ पर हमारे,
लथपथ देखने हमें पथ काँटो-से सजाता गया.
अँधियारा है पर निशा का अहसास नहीं,
उजियाला है पर सूरज-सी चमक नहीं,
प्यासा पथिक मैं पर सुजल की धार नहीं,
रोटी है हाथ पर भूख की कोई पीड़ा नहीं,
उसने कुछ दिया हमें पर बहुत लुटता गया,
निकला था कभी धूल ....
देखा था हमने सपना आज सपना रह जाएगा,
वक्त की मार का घाव दिल पर ही रह जाएगा,
हम है आपके, आप है हमारे जमाना भी सताएगा,
आँसू की बूँद हमारी सिर्फ मरहम बताएगा,
वह पगला जख्म देता और मरहम छिनता गया,
निकला था कभी फूल...
जिंदगी अमृत थी कभी जहर उसमें मिला दिया,
तमाशबीनों ने देखो अपना ही तमाशा बना दिया,
भाग रहा हूँ जिंदगी की तलाश में खुद खो गया,
न राह का निशान दिखे लक्ष्य अपना भटक गया,
वक्त ने फाँसा ऐसा फेंका आँख रोशनी लेता गया,
निकला था कभी फूल....
तैयार हूँ मैं भी आज, ऐ वक्त!
टूटा पर मिट न पाए विश्वास खुद में भर दिया,
सूखा पर घट न पाए मेहनत पसीना पा लिया,
अपनों का सताया मैं व्यंग्य को ताकत बना गया,
रूठ जाए जमाना हमसे बसंत बनाना ठान लिया,
फूल मत बिछाना अब मेरी राहों पर कभी,
मैंने काँटो को अपनाना सीख ही लिया,
निकला था कभी फूल.....
-०-
२१ सितंबर २०१९
***
रचनाकार : मच्छिंद्र भिसे ©®
अध्यापक-कवि-संपादक
सातारा (महाराष्ट्र)
मो.९७३०४९१९५२
आशाएँ गढ़कर थे शासकीय शिक्षक भरती पर. परंतु नौ हजार की सूची में हमारी कैटेगरी और हिंदी विषय का एक भी अध्यापक भरती नहीं हुआ. अब नौकरी की तलाश में और परिवार के चिंतन में भी समय बदलने के इंतजार में भटक रहे हैं. जहाँ हो सके अपना परिचय पत्र लेकर पहुँचने की कोशिश में हूँ. शायद बहुत कुछ अच्छा अथवा बहुत कुछ बुरा होने की संभावना है. आशावादी बनकर समय काटने की कोशिश में हूँ. देखते हैं.......
इस चिंतन पर शब्दों ने अपने आपको इस कदर गढ़ा वह आपके सामने प्रस्तुत है.
वक्त के साथ समर
(विधा : कविता)
पगला मित्र समय हमारा खफ़ा हमसे हो गया,
संग था कभी हमारे आज दुश्मन हमारा हो गया,
निकला था कभी फूल बिछाने पथ पर हमारे,
लथपथ देखने हमें पथ काँटो-से सजाता गया.
अँधियारा है पर निशा का अहसास नहीं,
उजियाला है पर सूरज-सी चमक नहीं,
प्यासा पथिक मैं पर सुजल की धार नहीं,
रोटी है हाथ पर भूख की कोई पीड़ा नहीं,
उसने कुछ दिया हमें पर बहुत लुटता गया,
निकला था कभी धूल ....
देखा था हमने सपना आज सपना रह जाएगा,
वक्त की मार का घाव दिल पर ही रह जाएगा,
हम है आपके, आप है हमारे जमाना भी सताएगा,
आँसू की बूँद हमारी सिर्फ मरहम बताएगा,
वह पगला जख्म देता और मरहम छिनता गया,
निकला था कभी फूल...
जिंदगी अमृत थी कभी जहर उसमें मिला दिया,
तमाशबीनों ने देखो अपना ही तमाशा बना दिया,
भाग रहा हूँ जिंदगी की तलाश में खुद खो गया,
न राह का निशान दिखे लक्ष्य अपना भटक गया,
वक्त ने फाँसा ऐसा फेंका आँख रोशनी लेता गया,
निकला था कभी फूल....
तैयार हूँ मैं भी आज, ऐ वक्त!
टूटा पर मिट न पाए विश्वास खुद में भर दिया,
सूखा पर घट न पाए मेहनत पसीना पा लिया,
अपनों का सताया मैं व्यंग्य को ताकत बना गया,
रूठ जाए जमाना हमसे बसंत बनाना ठान लिया,
फूल मत बिछाना अब मेरी राहों पर कभी,
मैंने काँटो को अपनाना सीख ही लिया,
निकला था कभी फूल.....
-०-
२१ सितंबर २०१९
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रचनाकार : मच्छिंद्र भिसे ©®
अध्यापक-कवि-संपादक
सातारा (महाराष्ट्र)
मो.९७३०४९१९५२
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