पुरस्कृत बेईमान
(विधा: व्यंग्य कविता)
शायद कलियुगी वक्त को,
समझने में मुझसे देर हो गई,
बेईमानों की रंगीन अदालत में,
ईमानदारी वारंवार सूली चढ़ गई.
पुरस्कारों की भरमार में आज,
चंद ईमानी चेहरे खिल गए,
चंद छोड़ बचे सब बेईमानी,
कईयों के सपने खा गई.
बधाईयों की गहमागहमी में,
कोने में दुबकी सच्चाई रो पड़ी,
व्यंग्य हँसी से हर बेईमान की,
ईमानदारी अंतस्थल तक हिल गई.
षड़यंत्री वक्त में सच्चाई और अच्छाई,
शाबासी थाप इंतजार में बूढ़ी हो गई,
विडंबन देखो आज, एक चेहरा नकाबी,
इंच का सीना अपना सौ इंच का कर गई.
पुरस्कारों के बाजार में आज,
मुस्कानें रंगीन कभी बेरंग हो गईं,
'बेईमानी', दलालों के गाल गुलाबी,
ईमान की खाल लाल कर गई.
देख के सारा खेल छिछौना आज,
सारी ईमानी हवा निकल गई,
सच्चाई-खुद्दारी खुद के लिए रख बंधु,
बेईमानी कलियुग में हमें सीखा गई.
नामिनेशन भी तभी भरना प्रियवर,
जब हो धन अपार और सत्ता भी गहरी
बिन इसके सिर्फ तालियाँ ही ठोकते रहोगे,
'समझ' आज हिला-हिला मुझे समझा गई.
-०-
१५ सितंबर २०१९
©®
रचनाकार
मच्छिंद्र भिसे
सातारा (महाराष्ट्र)
मो. ९७३०४९१९५२
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बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर...
ReplyDelete🌺🌺 समीक्षा 🌺🌺
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आदरणीय मच्छिंद्र भिसे द्वारा रचित कविता 'बेईमान' वर्तमान समाज पर , एक तीर के समान प्रहार करती है । अपनी कलम के माध्यम से इन्होंने इंसान को इंसानियत का आईना दिखाते हुए एक बहुत ही खूबसूरत उदाहरण प्रस्तुत किया है : ------ " बेईमानों की रंगीन अदालत में , ईमानदारी को सरेआम सूली पर लटकाना " । इस छोटी सी पंक्ति में कहीं न कहीं वह संदेश जरूर छुपा है , जो हमारे आंतरिक मन को सोचने पर मजबूर कर देता है और समाज को एक नई दिशा भी प्रस्तुत करता है ।
----- बलजीत सिंह