■ औरों के लिए ■
(कविता)
भूल जाता हूँ मैं
अपने वजूद को
और जी लेता हूँ
हमेशा औरों के लिए।
ऐसा रहूँ, वैसा जिऊँ
ये कहूँ वो सुनूँ
सुनती रही जिंदगी
ख़ामोश है औरों के लिए।
दिल शोर करता बारंबार
गर्दीश में खो जाते स्वर
चिल्ला उठता है पुन:
धड़के क्यों औरों के लिए।
तोड़ना चाहूँ यह बंध
और बहता ही रहूँ
बाँधें रिश्तों की डोर
फिर औरों के लिए!
समझ गया मैं
मेरा वजूद ही मेरा नहीं
निमित मात्र मैं हूँ
उपजना बस! औरों के लिए।
-०-
25 नवंबर 2021
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
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