संयम की डोर
(कविता)
मन अपना पतंग हो जाए
डोर बाँधिए संयम की
ढील कभी तो खिंच रखे
पाने मंजिल जीवन की।
हवा का रूक बदलेगा
आँधी का सामना भी होगा
मन हिचकोले जब खाए
अडिग बन सामने भी जाए
डरना तो मर जाना है
आस रख लो बढ़ने की
ढील कभी......
साथी पतंग और भी होंगे
साथ कभी, उस पार भी होंगे
डोर अपनी मजबूत रखना
मजबूरी में कभी न कटना
कटना, झूकना और मीटना
निशानी होती कायर की
ढील कभी......
ऊपर उठना आसान नहीं
न उठ सके ऐसा जहान नहीं
एक उड़ान से न उड़ना होगा
ऊपर कभी नीचे आना होगा
जमीन से जुड़ा रहना मगर
रीत न सीख कभी सड़ने की
ढील कभी......
एक समय ऐसा भी होगा
प्रलय से प्रशांत भी होगा
आसमान को तू नाप ही लेगा
पर शायद कोई साथ न होगा
तनहाई को पग में लेना
गाँठ बाँध ले स्वाभिमान की
ढील कभी......
-०-
16012021
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©® संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
No comments:
Post a Comment