बालदीन
(लघुकथा)
अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय प्रांगण में बालदिन धूमधाम से मनाया जा रहा था। बच्चों में बड़ा उत्साह था। प्रांगण में ‘बच्चे मन के सच्चे’ गाना बजने लगा। बच्चे नाचने-गाने लगे, एक-दूसरे को बधाई देने लगे। प्रार्थना परिषद में बच्चों द्वारा बाल दिन विषय पर भाषण हुए, अध्यापकों ने बालकविताएँ सुनाईं तथा प्रधानाचार्य जी ने इस अवसर पर बधाई देते हुए बालदिन का महात्म्य सुनाते हुए कहा- “यहाँ के हर बच्चे को पढ़ने का अधिकार है, आप यहाँ पढेंगे और देश का भविष्य बनेंगे।”
यह बात सुनकर उस पाठशाला के गेट के बाहरी अहाते में अपने बापू के साथ रोटी के लिए भंगार जुटाने वाले आठ साल के बच्चे ने अपने बापू से प्रश्न किया- “बापू, इस पाठशाला के बच्चे देश का भविष्य बनेंगे, तो मैं क्या बनूँगा?”
बापू ने सिर खुजलाया और कहा- “मेरे प्यारे बच्चे! तू चिंता मत कर, तू बहुत कुछ बनेगा।”
“पर बहुत कुछ, मतलब उनसे ज्यादा या कम?”
बापू ने जवाब दिया- “तू उनसे ज्यादा ही कुछ बनेगा। देख! वे मात्र भविष्य बनेंगे, जो कभी आता नहीं; और तू, इस देश का गुमनाम वर्तमान है, जो भविष्य में भूतकाल में तब्दील हो जाएगा; तू चल, अपना काम कर!”
अपने लिए वर्तमान-भविष्य और भूतकाल की बात सुन बच्चे ने बहुत कुछ बनने के उत्साह में फिर भंगार जुटाना शुरू किया। शायद उसकी तकदीर बालदिन के अवसर पर उसे बालदीन बनाने पर तुली थी।
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6 अगस्त 2021, पूर्व रात्रि 1.37
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©® संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
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