आजादी का झंडा
(लघुकथा)
पंद्रह साल का भोलू चौदह साल की मुफ्त शिक्षा के बाद अगली पढ़ाई हेतु सुबह-शाम छोटे-छोटे काम किया करता था। सुबह अखबार बाँटना तो कभी शाम के वक्त स्टेशन पर छोले-भटूरे बेचना।
आज स्वाधिनता दिवस की खुशी में सड़क के किनारे फूटपाथ पर सुबह झंडे बेच रहा था। बच्चे-बूढ़े आकर भोलू से झंडे लेकर जाते थे।
कुछ समय बाद सब झंडे बिक गए, सिवाए एक छोटे झंडे और झंडे रखने की टोकरी के। वह उस झंडे को टोकरी पर गाड़े, टोकरी को सिर पर उठाए जा ही रहा था कि यकायक एक आलिशान गाड़ी आकर उसके पास रूक गई।
उसमें से उतरकर एक सफेद टोपी और पोशाक पहने आदमी ने आकर कहा- "ऐ छोरे! झंडा कैसे दिया?"
"साहब जी, यह झंडा बिकाऊ नहीं है।" -भोलू ने 'ना' के स्वर में कहा।
"मैं तुम्हें इसकी दूगनी कीमत दूँगा, जल्दी कर मुझे नगर परिषद के मैदान पर झंडा फहराने जाना है।" -साहब ने जेब में हाथ डालते हुए कहा।
भोलू ने कहा- "माँ ने कहा कि सब झंडे बिकने पर आखिरी झंडा वापस ले आना।"
"अच्छा! फिर मैं तिगुना दाम देता हूँ। माँ से कहना कि इस नगर के सफेद पोशाकवाले मेयर ने आखिरी झंडा खरीद लिया।"
यह सुनकर भोलू ने टोकरी में गड़े झंडे को निकालकर अपनी फटी कमीज़ में छिपाया और निड़र होकर कहा- "अब तो मैं यह झंडा बिल्कुल नहीं दूँगा। माँ ने यह भी कहा कि कोई गरीब आए तो उसे झंडा मुफ्त में देना लेकिन कोई तुझे उसके अधिक दाम दे, तो उसे कतई मत देना क्योंकि यह ऐसे लोग हैं जो आजादी का झंडा दुगनी कीमत में लेंगे और चौगुनी कीमत लेकर अपने ही झंडे के साथ देश को भी बेच देंगे।"
भोलू की बात सुनकर मेयर झल्लाते हुए चले गए।
उसी समय नजदीक बाँकड़े पर बैठे रिटायर मेजर यह सब देख रहे थे। उन्होंने भोलू के पास आकर झंडा फिर से टोकरी में गाड़ते हुए कहा- "शाबाश मेरे शेर! सही मायने में तुम ही आजादी का जश्न मना रहे हो बाकि के तो बस दिन मना रहे हैं।"
उस अनजान बूढ़े की बात भोलू के पल्ले नहीं पड़ी। भोलू शाबासी की खुशी में 'नन्हा मुन्ना राही हूँ' गुनगुनाते हुए जा रहा था। रिटायर मेजर भोलू में आजादी के बाद का सुभाष बाबू देख रहे थे।
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19 अगस्त 2021, पूर्व रात्रि 12:23
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©® संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
मोबाइल: 9730491952
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