घूटन
(कविता)
आवाजें बेजुबान आज मगर
चिखने को जी भर चाहती हैं
जबानें सबके पास मगर
मौन ही कटना चाहती हैं।
कान खड़े सबके यहाँ
पर जूँ कहाँ तक रेंगती है
सिसकियाँ सुगबुगाती कितनी
बिन सुन बहरी होना चाहती हैं।
आँखें सब देख रही हैं
मजबूर हो सह रही हैं
अंधकार छा रहा चहुँ दिशा में
बिन देखें मिटना चाहती हैं।
आवाजें मूक न रहेगी सदा
कान-आँखों को उकसाती हैं
होगा तांडव बेजुबान का आज
दबाते रहे उन्हें दबोचना चाहती है।
होगा विहान सब पाएँगे जुबान
देखेंगे सबकुछ होगा नव प्रयाण
बहरे को भी सुनना पड़ेगा क्योंकि
यहाँ सबकी घूटन टूटना चाहती है।
-०-
● मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'●
सातारा (महाराष्ट्र)
पता
भिरडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई जिला सातारा
संपादक
सृजन महोत्सव पत्रिका
मोबाइल: 9730491952
ईमेल: machhindra.3585@gmail.com
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