■ उठने का शौक ■
(कविता)
ऊँचा उठने का
अजीब शौक रखते हैं हम
चाहे जितनी बार गिराते रहो तुम,
जमीन पर कदम गढ़ाए रखेंगे हम।
कदम, दर कदम
लड़खड़ाएँगे पर न रूकेंगे
घुंगरू पहने हैं कदमों ने मेरे,
बजते रहेंगे वे और नाचते रहेंगे हम।
ठोकरें भी मिलीं
तो कभी काँटे लगाए गले
लगी आग सीने में तो पानी से भी जलें
फिर भी हिम्मती राह फूल बिछाते रहेंगे हम।
टिमटिमाते जुगनू आए
मंजिलें राह दिखाते भी रहे
बढ़ने का हौसला जब दुगना हुआ
तीर चुभते रहें मंजीतें, राह न भटके हम।
-०-
26 सितंबर 2021
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
बहुत सुंदर रचना!
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