बचपन में गाँव में बिताईं शामें जब याद आती हैं तो आज बनें हम शहरी कहाँ फुरसत है उन शामों में फिर से जीने में......
वह यादें फिर आईं
हर दिन मैंने
सांज की बेला को,
देखा था तुझे
देखते तिरछी नजर से,
और देखा था
तुम्हारा अरूण मुख,
हो गए थे घायल
आपसी हृदय संवेदन क्षर से।
बिखरा दी थी जब भी
एक मुस्कान अधरों पर,
न जाने कितने रंग छलकते थे
कितने ही चेहरों पर,
खिला दी थी अनगिनत
अंतरमन में रातरानी की कलियाँ,
मचाती थी शोर- ही- शोर
तुम्हारे हरदिन आने पर।
यकायक क्या हुआ तुझे
मुझे पता नहीं,
धीरे-धीरे छट गया
तेरा अरूण रंग,
और तेरे चेहरे छा गई
काली बदरी-सी जब भी,
देख लोगों ने कहा-
हो गई तू रंग से बेरंग।
पर मैं खुश था
मन-ही-मन,
जो चमकाएँ तारे
मेरे और तेरे मुख पर,
वो कैसे भूल पाऊँ
बता ऐ मेरी सखी,
जब से आया शहर में
तू वैसी कभी न दिखी।
शहर की पहली बिजली
जब जलती है,
लोगों की राहें
घर वापसी की निकलती हैं,
गाँव बेला साँज में
पंछियों की वापसी चहक गुँजती,
यहाँ दिन की थकान उपर
भोंपु से दिल धड़कनें बढ़ती हैं।
ओ मेरी प्यारी निशा
आज तरसता मैं,
तू मुझमें और मैं तुझमें
आँखों जब भी निहारता हूँ,
छोड़ गाँव की साँज को
शहरी अंबर जो बना हूँ,
ओ गाँव की सांध्यबेला !
अब हर शाम आँसुओं के
तारों से सजाता हूँ।
26.10.2018
रचना
नवकवि- मच्छिंद्र भिसे (सातारा)
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