
दुर्लभ योग
(लघुकथा)
सदानंद और प्रकाश अच्छे मित्र के साथ-साथ अच्छे पड़ोसी भी हैं। सदानंद पुस्तकों की दूकान पर सेल्समन, तो प्रकाश किसी आयटी कंपनी में मैनेजर है। सुबह के वक्त चाय की प्याली की खनक से ही हमेशा की तरह प्रकाश जी सदानंद के घर आकर चाय की चुस्की के साथ पेपर पढ़ने लगे। उसी समय सदानंद की प्यारी लड़की सुमी पाठशाला का गणवेश पहने– ‘नमस्ते अंकल!’ कहकर पाठशाला जाने की तैयारी में जुट गई। प्रकाश की बेटी नीनी भी आकर सुमी के साथ जुड़ गई।
सुमी को देखते हुए प्रकाश ने सदानंद से कहा- “और थोड़े पैसे जुटाते तो मेरी बेटी के साथ आज पढ़ा करती तुम्हारी सुमी!”
“हाँ, कहा तो सही है, पर .....पर ..... छोड़ दो।” बात को काटते हुए नीनी और सुमी को सदानंद ने आवाज लगाई। दोनों बिटियाँ पास आकर बैठ गईं। प्रकाश के मन में अधकटी बात का ज्वार उठ रहा था, वह जानना चाहता था कि आखिर सदानंद के मन में क्या चल रहा है।
“क्या तुम नहीं चाहते हो कि तुम्हारी बिटिया अच्छे स्कूल में पढ़े?”
“चाहता तो मैं भी हूँ, लेकिन पैसा देकर नहीं। मैं बिटिया को लक्ष्मी मंदिर में नहीं भेजना चाहता, वो तो सरस्वती मंदिर में पढ़े ऐसी मेरी इच्छा है। और तुम तो जानते हो कि सरस्वती और लक्ष्मी कभी एक नहीं हो सकती; मगर जहाँ सरस्वती है वहाँ लक्ष्मी ज़रूर आएगी।” कहकर सदानंद शांत हो गया।
नीनी कुछ सोचते हुए कह गई - “सही कहा अंकल! हमारी टीचर बताती है कि ज्ञान याने सरस्वती पैसों से खरीदी नहीं जाती। अभी पता चला कि हमारी टीचर ऐसा क्यों कहती थीं।”
उसी समय सुमी तैयार होकर पाठशाला चली जाती है। प्रकाश भी सदानंद की ओर देखकर हँसते हुए अपनी बेटी नीनी को लेकर पाठशाला छोड़ने चला गया।
दूसरे दिन सुबह प्रकाश के पीछे छिपकर नीनी सुमी के घर आई। उसे देखकर सदानंद दंग रह गया। नीनी बिल्कुल सुमी की तरह तैयार होकर आई थी। सदानंद ने पूछा- “अरे! यह क्या है प्रकाश?”
“कल बच्ची ने जवाब दे दिया, ज़िद कर बैठी- मुझे सरस्वती मंदिर जाना है। उसे मैं ‘ना’ कहने में असमर्थ रहा। बस समझो! लक्ष्मी को सरस्वती मंदिर ले जा रहा हूँ।” कहते-कहते प्रसन्नता से प्रकाश ने सदानंद को गले लगाया। आज दुर्लभ योग था- लक्ष्मी ने सरस्वती को गले लगाया था और उधर सुमी और नीनी एक-सी गणवेश देख ख़ुशी से उछल रही थीं।
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21082021
रचनाकार:
मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका,
सातारा (महाराष्ट्र)