* आज परिवार के बीच होकर भी अकेलापन महसूस कर रहा हूँ। जिंदगी में सकारात्मक सोच की कमी को देख और अपने ही लोगों के बदलते नजरिए देख, कुछ पंक्तियाँ प्रस्फुटित हुईं। आपके सम्मुख प्रस्तुत है। *
(तिथि १६ सितंबर २०१८ )
बदल रहा हूँ ....
सच्चाई की राह पर जब भी चल पड़ा, ठोकरे ही मिली बार-बार रहा जब मैं खड़ा,
ना भरोसा खुदा पर ना जमाने पर अब ,
जीने के लिए बस सूरत बदल रहा हूँ।
प्यादा बन मानव जिंदा लाश बन है जीता,
खुद को देख गर्दिश में उनके मैं भी सिहरता ,
विषैली बन रही मानवता को देख अब ,
बचाने खुद को मानवता की गली ढूंढ रहा हूँ ।
कटु रिश्तों की ज्वालाएँ कभी न थमेगी,
आँच में इसकी आज अपनों को ले जलाएगी ,
अब कब तक बचता-बचाता, बुनता रहूँ,
रिश्तों को बचाने की डोर बेच रहा हूँ ।
नज़ारे हैवानियत के देख नजरिया लेती करवटे,
कौन अपना, कौन पराया? सोच से सर है फटे ,
कैसे साँस ले पाएँगे ऐसी नजरें देखूँ वारंवार,
बदल दे ऐसे नज़ारे उस वक्त को खोज रहा हूँ।
इक दिन आएगा सच्चाई की जित होगी,
मनुष्य का आत्माभिमान की सुबह उगेगी ,
नजारे बदलेंगे और बदलेगी रिश्तों की परिभाषा,
इसी कोशिश में जिंदगी का जहर पी रहा हूँ।
रचना
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे