
आजादी के बाद अपने देश में बहुत से
महत्त्वपूर्ण बदलाव आए हैं, आ भी रहे हैं। आर्थिक, सामाजिक, राजकीय, संरक्षण,
सांस्कृतिक हो या धार्मिक, समयानुसार संरक्षण
एवं संवर्धन हेतुर क्षेत्र में प्रयास किए जा रहे हैं। विविधता से सुसंपन्न अपने
देश में जाती, धर्म, भाषा, तीज-त्यौहार, परिधान, परिवेश,
रहन-सहन आदि में विविधता होने के बावजूद दक्षिण के लक्षद्वीप से
लेकर कश्मीर की उत्तर सीमा और अरुणाचल प्रदेश के पूर्व से लेकर गुजरात कच्छ के
पश्चिम सीमा तक भारतीयों ने आपसी सार्वभौमत्व और भाईचारे को सँवारा है संजोया है।
पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल अपने देश ने कायम की है। यह भारतीयता की जीत है।
विविधता में एकता के दर्शन कराने वाले अपने देश के लोगों ने अपनी-अपनी काबिलियत के
अनुसार अपना विकास भी किया है, परंतु यदि संपूर्ण देश के
बारे में सोचा जाए तो अपना देश विकसनशील राष्ट्रों की गिनती में आता है। अपने देश
के विकसित न होने के कारणों में से जटिल परंतु सहज कारण है देश की राष्ट्रभाषा का
न होना।
विश्व में रूस, अमरीका,
चीन, जापान, इस्त्राइल
जैसे देशों ने अपने देश के राजकाज और संपर्क के लिए राष्ट्रभाषा दी है।
राष्ट्रभाषा के माध्यम से अपने-अपने देश को विकसित किया है। उन राष्ट्रों ने भी
ज्ञान भाषाओं की उपयोगिता देखकर अपने देश की राजकीय एवं शैक्षिक निति में परिवर्तन
कर अन्य भाषाओं को भी अपनाया है। अपने देश की हिंदी भाषा की अंतर्राष्ट्रीय
उपयोगिता देखकर कई देशों के अपनाकर तथा अभ्यासक्रमों में हिंदी को शामिल कर लाभ
उठा रहे हैं; तो फिर अपने देश हितार्थ राष्ट्रभाषा को लेकर
वाद-विवाद क्यों? क्या हम भारतीय अपने देश को विकसित नहीं
देखना चाहते? क्या किसी एक भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषा के
रूप में स्थापित करना इतना कठिन है? क्या हम राष्ट्रभाषा का
महत्त्व ही नहीं जानते? सवाल कई है, जवाब
भी है पर ढूंढे कौन? आगे आए कौन? फिर
भी एक भारतीय होने के नाते यह धाड़स कर रहा हूँ। इन सवालों के जवाब और समाधान की
कोशिश सामने रख रहा हूँ। शायद पूरा पढ़ने पर लगेगा कि अरे! देश को अपनी राष्ट्रभाषा
मिल सकती है। इसपर आप भी चिंतन करीए।
अपना देश आजाद होने के पूर्व संविधान
निर्माण हेतु संविधान समिति का गठन हुआ। लगभग दो साल, ग्यारह
महीने और अठारह दिनों की मेहनत के बाद संविधान बना। जिसे २६ जनवरी १९५० के दिन
भारतवर्ष के हर नागरिक के लिए लागू किया। सभी ने ससम्मान से अपनाया भी। इसी
संविधान में भाषाओं को लेकर भी कानून बने। जिसमें राजभाषा (कार्यालयीन, कार्यकारी भाषा), राज्य राजभाषा, मातृभाषा, संपर्क भाषा आदि। आजादी के पूर्व देश के
कई समाजसेवी, राजकीय एवं धार्मिक जननायकों ने देश की आजादी
के वक्त हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया उसे अपनाया। कईयों ने तो अपनी मातृभाषा
की जगह देश के जन-जन की भाषा हिंदी को अपनाया। इतना ही नहीं, मैं तो कहूँगा कि अपने देश की आजादी में हिंदी की अहम भूमिका रही है। चाहे
वह व्यवहार हो, पत्र-पत्रिकाएँ हो या समाचार पत्र या दुभाषी
के रूप में भारतीय भाषा हिंदी ही का ही सर्वाधिक प्रयोग किया गया। वह अपने देश की
जन-जन की भाषा मानी जाती थी और आज भी संपर्क भाषा के स्तर पर कार्य कर रही है।
परंतु आजादी के बाद संविधान में एक देश एक भाषा का उल्लेख नहीं मिलता। हो सकता है,
बहुभाषी राष्ट्र होने के कारण ही राष्ट्रभाषा निर्माण को लेकर उसे
जनता की पसंद याने चयनित लोगों के द्वारा मताधिकार का आधार लेकर राष्ट्रभाषा
स्थापित करने का प्रावधान किया होगा। जिसकी वजह से आज तक देश को राष्ट्रभाषा नहीं
मिली। हर कोई चाहेगा कि अपनी ही भाषा राष्ट्रभाषा बने। परंतु वास्तव में वैसा कर
पाना हो सकता है मुश्किल है परंतु नामुमकिन नहीं। जहाँ चाह, वहाँ
राह। खैर, हम इसका समाधान ढूंढने की कोशिश करते हैं।
वर्तमान संविधान की आठवीं सूची में २२
भाषाओं को भारत की राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में स्वीकार किया है। अक्सर मन में
प्रश्न उठता है कि आठवीं सूची में जिन भाषाओं का उल्लेख मिलता है, उसमें अंग्रेजी कहाँ है? मतलब वह भारतीय भाषा नहीं
है, यह पूरे देश ने स्वीकार किया है। आजादी के वक्त देश में
अंग्रेजी भाषा को अंग्रेजों का शासन और भारतीयों के शासन प्रणाली में समतोल रखने
हेतु प्रशासनिक उपयोगिता जानकर पंद्रह वर्षों के लिए हिंदी के साथ राजभाषा के रूप
में स्वीकारा। परंतु, आजादी के बाद और पंद्रह वर्षों की
सहूलियत के बाद भी लगभग ५५ वर्ष याने आज तक अंग्रेजी संघ की राजभाषा याने
कार्यालयीन, कार्यकारी भाषा के रूप में काम कर रही है। ‘इसके अतिरिक्त अंग्रेजी का अपने संविधान में क्या स्थान है?’ क्या अपनी संवैधानिक २२ राष्ट्रीय भाषाएँ और लगभग अन्य ४० भाषाएँ जो
राष्ट्रीय भाषाओं में स्थान पाना चाहती हैं उनमें से एक भी ऐसी भाषा नहीं है कि वह
अंग्रेजी का स्थान लेकर राजभाषा बन गौरवान्वित हो सके?
ना ही मैं अंग्रेजी भाषा का विरोधी हूँ
और न ही पूरी तरह से किसी एक भारतीय भाषा के पक्ष को लेकर विधान कर रहा हूँ। मैं
सिर्फ अपनी भाषाओं के सम्मान के साथ किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में देश
की आवाज बनाने की कोशिश कर रहा हूँ। अंग्रेजी की तरह विश्व की तमाम भाषाएँ ज्ञान
भाषा के रूप में स्वीकारना ही उचित होगा, न कि माँ, मौसी को छोड़कर किसी और को जिससे न खून का रिश्ता हो, न दूरतक का रिश्ता हो उसे माँ, मौसी मानकर चलें।
मौसी तो कम से कम खून का रिश्ता तो रखती है और भारतीय धरोहर ने मौसी को भी माँ का
दर्जा दिया है। उसी प्रकार से अपनी भाषाओं को आगे ले जाना भारतीय होने के नाते हर
एक का कर्तव्य है, ऐसा मैं मानता हूँ।
आप सभी जानते हैं कि अपने संविधान में
विशेष परिस्थिति में देश हितार्थ संविधान में भी परिवर्तन करके अथवा अतिरिक्त
कानून पारित करके संविधान परिवर्तन एवं संवर्धन का उल्लेख मिलता है। हम सभी भारतीय
जानते है कि आज तक लगभग १२६ बार संशोधन प्रस्ताव पारित किए गए, इनमें से लगभग १०४ बार संविधान में संशोधन किए गए हैं। मतलब भाषा संबंधी एक सशक्त संविधान संशोधन पारित किया जा सकता है। माना कि
लंबी प्रक्रिया है, पर संभव है।
कई बार राष्ट्रभाषा को लेकर वाद-विवाद
होते रहे और समाधान किए बिना सब शांत होते रहे। कई बार दक्षिण के कुछ राज्यों की
असहमती के कारण कोई भी देशज भाषा राष्ट्रभाषा के स्तर पर स्थान नहीं पा रही है।
असहमती और विरोध होना बहुभाषी देश में जायज भी हैं, परंतु
मध्य निकालकर आगे बढ़ने के बजाए वहीं अटके रहे, देश के अहित
में होगा। देखा जाए तो अपने देश में सबसे अधिक और विश्व में दूसरे स्थान पर बोली
एवं समझी जाने वाली भाषा है हिंदी। फिर भी अपने ही देश में हिंदी को लेकर विवाद
खड़े हैं, कारण है भाषाधारित प्रांत रचना। फिलहाल उसे अलग
रखना बेहतर है। हम राष्ट्रीयता को ध्यान में रखकर सोचे। मैं और बहुत से भारतीय कोई
भी एक भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषा के स्थान पर देखना
चाहते हैं। यदि थोड़ी राजकीय इच्छाशक्ति हो तो संभव है। कैसे? आइए इसके बारे में चिंतन करें।
लगभग २५० वर्ष अंग्रेजों ने शासन किया
और पीछे अंग्रेजी छोड़ गए, लेकिन उनके पूर्व कई सालों से आर्य
और द्रविड़ भाषा परिवार प्राचीन एवं प्रचलित है, उनका प्रभाव वर्तमान में कम क्यों हुआ है? सोचने
वाली बात है। क्या हम अपने देश की भाषाओं के संवर्धन एवं संरक्षण के लिए कुछ नहीं
करेंगे? क्या आनेवाली पीढियाँ सिर्फ किताबों में ही अपनी
भाषाओं को पढ़ेगी? अपनी भाषाओं को मध्य रखते हुए यदि सबसे बड़ा
परिवर्तन देश की राजभाषा के रूप में काम कर रही भाषाओं में और अन्य कुछ स्थानों पर
करेंगे तो निश्चित है, अपने देश को राष्ट्रभाषा मिलेगी। आप
सुज्ञ पाठक इन संभावनाओं को परखें, जाँचे –
राष्ट्रभाषा का नया कानून पारित किया
जाना चाहिए। इसके लिए चौबीस वर्षों का एक कार्यक्रम चलाया जाए। यह कानून पारित एवं
लागू करने के बाद शासन में राजकीय परिवर्तन के बावजूद भी किसी भी प्रकार की
परिस्थिति में कार्यक्रम अवधि समाप्ति तक संशोधन नहीं किया जाए। राष्ट्रभाषा
निर्माण कार्यक्रम समयावधि समाप्ति के बाद शुरआती संशोधन, कार्यक्रम
दौरान स्थिति और वर्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए देश राष्ट्रभाषा का
स्थान निश्चित हो सकता है। फिर संशोधन के अनुसार लागू करने की अनिवार्यता करेंगे
तो सबकुछ संभव है।
राष्ट्रभाषा की ओर ले जाने वाला कार्यक्रम -
अपने देश के विकास को सामने रखते हुए
अगले चौबीस सालों के लिए देश की सांस्कृतिक समूह की सर्वाधिक बोली एवं समझी
जानेवाली दो भारतीय भाषाओं को जिसमें एक आर्य और एक
द्रविड़ भाषा परिवार की भाषाओँ को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए। इसके लिए जनमत का
आधार लेकर दोनों भारतीय भाषा परिवार में से एक-एक भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर चयन
किया जाए।
इन्हीं भाषाओं को सोलह वर्षों के लिए राजभाषा अर्थात संघ की
कार्यालयीन भाषा के रूप में स्वीकार किया जाए। इनमें से प्रथम किसी एक भाषा को
पहले आठ वर्षों के लिए प्रमुख राजभाषा और अन्य भाषा को सह राजभाषा के स्तर पर
प्रयुक्त किया जाए। अगले आठ वर्ष के लिए इनमें से सह राजभाषा के स्थान पर प्रयुक्त
भाषा को प्रमुख राजभाषा के स्थान पर लेकर पहले प्रथम स्थान की भाषा को सह राजभाषा
के रूप में प्रयोग में लाया जाए।
किसी अत्यावश्यक परिस्थिति में तथा इन
दो भाषाओं के व्यवहार में कठिनाई उपस्थित हो तो मात्र पहले १६ वर्षों के लिए
दुभाषी के रूप में ऐश्चिक ज्ञानभाषा अथवा किसी अन्य भारतीय भाषा का प्रयोग करें जो
सरल एवं सुलभ हो। जब इसे लागू किया जाएगा उस वर्ष से ही संपूर्ण देश में इन दोनों
भाषाओं को शिक्षा क्षेत्र में शुरआत से ही लाना होगा। इसमें भी पहले वर्ष पहली,
दूसरे वर्ष दूसरी, तीसरे वर्ष तीसरी, इस क्रम से यह लागू किया जाए।पहले सोलह सालों बाद इस प्रकार से भाषा
शिक्षा निती को अपनाया जाए। फिर अनिवार्यता के साथ कक्षा पहली से पाँचवीं तक
मातृभाषा के साथ ऐश्चिक भाषा के रूप में इन दो में से एक भाषा का सीखना अनिवार्य
हो, लेकिन स्तर आयु एवं बौद्धिक क्षमतानुसार हो। कक्षा छठी
से दसवीं तक मातृभाषा, गुट राष्ट्रभाषा एवं ज्ञान भाषा के
रूप में अंग्रेजी अथवा अन्य ऐश्चिक भाषाओं का अध्ययन अनिवार्य हो। अन्य विषय हमेशा
की तरह हो। कक्षा दसवी के बाद राष्ट्रभाषा की अनिवार्यता के साथ मातृभाषा एवं
ज्ञान भाषाएँ ऐश्चिकता के तौर पर हो। अध्ययन-अध्यापन में दुभाषी के लिए मातृभाषा
का प्रयोग हो।
जो भारतीय शिक्षा गतिविधियों से बाहर हैं, उनके लिए
नई राजभाषा को अवगत करने हेतु गाँव से लेकर शहर के हर मुहल्ले तक पहले सोलह वर्षों
के लिए प्रौढ़ शिक्षा अभियान की तरह राष्ट्रभाषा शिक्षा अभियान चलाया जाए। इसकी
उपयोगिता शिक्षा पूरक भी हो जाएगी। पूरा देश अगले सोलह सालों में अपनी राजभाषाओं
से अवगत हो जाएगा।
परिणाम अगले सोलह वर्षों में पूरे भारत
वर्ष में गुट राष्ट्रभाषा (दोनों भी भाषाओं) का प्रचार-प्रसार संपूर्ण भारत देश
में होगा। देश का कोना-कोना इनसे परिचित हो जाएगा। भाषा अध्ययन भविष्य में क्रमशः
जारी रहे।
साथ ही अन्य क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं के
संवर्धन के लिए नियमित विशेष क्षेत्र में और एक वार्षिक सभी भारतीय भाषाओं का
भाषाई सांस्कृतिक महोत्सव कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए। समान शिक्षा, व्यवहार, समान सुअवसर, समान
राजभाषा की निति पर आधारित प्राविधि हो।
सोलह वर्ष बाद अगले आठ वर्षों के लिए
समान रूप में गुट राष्ट्रभाषाओं को प्रथम स्थान पर राजभाषा का दर्जा दिया जाए।
सहभाषा का स्तर हटाया जाए। यहाँ पर भी समान स्थान दोनों भाषाओं को मिलेगा।
इसी दौरान राष्ट्रभाषा समिति स्थापना
करके उनके द्वारा चौबिस वर्षों की गतिविधियाँ पक्ष-विपक्ष को ध्यान में रखते हुए
इतिवृत्त तैयार किया जाए। अंत में दो भाषाओं पर पूर्व चौबीस वर्ष की गतिविधियों
देखते हुए तथा आरंभिक दोनों भाषाओं की जनमत संख्या और वर्तमान जनमत का मध्य साधते
हुए मतदान किया जाए। सर्वाधिक मतांक पाने वाली एक भाषा को देश की राष्ट्रभाषा
स्थापित की जाए। साथ में दोनों भाषाओं का स्थान राजभाषाओं के स्थान पर कायम किया
जाए। तथा दोनों भाषाओं के विकास हेतु विशेष कार्यक्रम का नियोजन किया जाए।
इन चौबीस वर्षों के दौरान क्रमशः
व्यवसाय, सेवा, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों तक इन भाषाओं के
प्रयोग की अनिवार्यता लायी जाए। इस प्रकार से समान अवसर, समान
प्रचार-प्रसार, समान शिक्षा, समान
कार्यकारी स्तर देकर अंतिम निकष पर अपने ही देश की कोई भी एक भाषा राष्ट्रभाषा का
स्थान ग्रहण कर सकती है।
‘निज भाषा उन्नति अहै’ इस उक्ति के अनुसार अपने देश की विकसनशील गंगा विकसित राष्ट्रों के समूह
में जाकर समाएगी। इस प्रकार से लोकाभिमुख राष्ट्रभाषा अपने देश को मिल सकती है।
बस! सकारात्मक सोच और पहल की आवश्यकता है।
हाँ! एक वास्तव यह भी है कि यह कहना
जितना सरल है, उसे अमल में लाना उतना ही दुरूह है। इसमें
राजकीय इच्छाशक्ति की भूमिका अहम है क्योंकि यह मात्र विशिष्ट क्षेत्र की बात न
होकर एकसंघ राष्ट्र की है। यदि अपने देश को किसी भी प्रकार से राष्ट्रभाषा मिलती
है तो जीत अपने देश की भारतीय भाषाओं की है। कहते है न! नेता की जीत याने मतदाता
की जीत। उसी प्रकार से यह जीत होगी भारतीय और भारतीय भाषाओं की।
मित्रो! सुज्ञ भारतीय नागरिक होने के
नाते लोकाभिमुख परिवर्तन की अपेक्षा रखता हूँ, ताकि आनेवाली
हर पीढ़ी सम्मान के साथ सिर उठाकर अपने देश को वाणी दे सके न कि दुनिया के सामने
झुके।
राष्ट्रभाषा को लेकर मेरी यह व्यक्तिगत
भूमिका देश का अभिमान बढ़ाने हेतु रखी है। यह किसी प्रकार से वाद-विवाद के
परिप्रेक्ष्य में नहीं है। यह मेरे निजी विचार है। सहमति-असहमति पाठक पर छोड़ देता
हूँ। कृपया इसे अन्यथा न ले।
वंदे मातरम!

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