अपना नाम
(कविता)कितना सुकून मिल जाता है
जब आते हम औरों के काम
चाहे हम रहे न रहे
रह जाएगा अपना नाम।
लेना और सिर्फ लेना ही
सब मोह-माया का है जाम
छलक उठे जिस पल तन से
हो जाता क्षण में बदनाम
क्यों लपटे हो इस भँवर में
चुकाना पड़ेगा दुगना दाम...
परोपकार-सा काम न दूजा
चरित बन जावे चारों धाम
एक से ऐसे दो बन जाते
इन्सा भला होगा क्या आम!
चल हाथ बँटा ले सबका
कर ले यही सयाने काम...
यह तन तो बस मिट्टी का
माटी में ही समाती जान
सोच भला और कर भला
बन जा तू नेक इन्सान
कितने आए-जाएँगे कितने
माटी के पीछे बस,
जगत करें हमें प्रणाम!
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रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©® संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
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