अंधकार का राही
(कविता)अंधकार का राही हूँ मैं
विपदा की चाहत रखता हूँ
डरता सारा जहान तम को
हँस-हँस गले लगाता हूँ।
दिन के उमंग उजियारे में
न पूछे कोई और ना पूजे
निशा छाए जब घनघोर-सी
अपने भी पल में साथ तजे
अभिलाषा है खुद जलने की
अपनी धीमी लौ जलाता हूँ।
मौसम जैसे हैं बदलें
रातों ने भी ली अंगड़ाई
पथ पर जब चला अकेला
तूफानों ने है आग लगाई
तन सहमा पर मन न भुना
टिमटिमाता फिर भी जाता हूँ।
छोटा असहाय कहते सभी
पर दिल न छोटा करता हूँ
दीपक न बनूँ और न सूरज
ईश से निवेदन करता हूँ
'जुगनू' कहते सभी मतवाले
हर अंधकार को मैं जीता हूँ।
-०-
23042021
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©® संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
No comments:
Post a Comment