मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

काव्य सुमन - १

इंतजार   बचपन   लौटने  का...
(विधा: मुक्तक कविता)
माँ के आँचल को पकड़ने का,
पीछे-पीछे जाकर फिर उसका डाँटने का,
पिता से रूठकर मार खाने का,
बहन की चोटी पकड़ने का,
गुब्बारा बन फूला चेहरा देखने का,
छोटे भाई का गला फाड़ रोने का,
उसकी नकलकर और रूलाने का,
सपने जैसी बचपन की इन शरारतों का,
अब वापस लौटना मुश्किल है
दूसरों का बस्ता अपना कहने का,
एक के पीछे एक पकड़कर चलने का,
नए साथियों के साथ मिलकर रोने का,
ताई शिक्षका के मनाने पर जोर-से रोने का,
मीठी गोली पाने पर सुबकियाँ लेने का,
कोरी पाटी पर मनचाही लकीरें खींचने का,
थूँ-थूँककर पाटी गीली कर साफ करने का,
सपने जैसी बचपन...
एक की इमली एक का नमक लाने का,
छिपाकर सबसे चटकियाँ ले-लेकर खाने का,
खट्टास को एक आँख बंद कर सहने का,
पकड़े जाने पर किसी और का नाम लेने का,
उस बेगुनाह के मार खाने पर हँसने का,
छुट्टी में उसे ही इमली खिला अपना बनाने का,
फिर उसके द्वारा मास्टर को बताकर मार खाने का,
सपने जैसी बचपन...
कापी से नकल कर औरों की कापी छिपाने का,
उसके मार खाने के बाद कापी लौटाने का,
खड़े साथी के नीचे नुकीला कंपास रखने का,
उसके बैठते ही चिल्लाकर खुद बताने का,
पेन्सिल छिपाकर दोस्त की चित्र पूरा करने का,
नाराज देख उसे चित्र पर नाम उसका लिखने का,
अच्छे अंक पा साथी का चेहरा देख मुस्काराने का,
सपने जैसी बचपन...
बगैर सीट की साइकिल, नली पर बैठ चलाने का,
जोर-से धक्का दे दोस्त को साइकिल से गिराने का,
फिर उसीके पीछे बैठ गाँव की रपट लगाने का,
लाठी टिका चलें 'दादू' की लाठी ले भागने का,
घर से चुराया लड्डू उन्हें देकर लाठी लौटाने का,
पास जाकर उनके झुर्रियाँ होंठ गाल पर पाने का,
और फिर लाठी लेकर प्यार पाने को भागने का,
सपने जैसी बचपन...
किसी की मुस्कान के लिए मुस्कान बिखेरने का,
अनजान को भी अपना कह दोस्त बनाने का,
सब बड़ो को मामा-चाचा, मौसा-मौसी कहने का,
छोटे प्यारों के साथ आधी गोली भी बाँटने का,
डाँट पर किसीके एक कोने में बैठ ताकने का,
पास न बुलाने पर खुद को समझाने का,
एक-एक पैर निकालकर सबमें घुल-मिलने का,
सपने जैसी बचपन...
समय बीत गया इंतजार है उन सपनों का,
माँ की डाँट और पिता की मार का,
बहन-भाई के रूठने का, दोस्तों को मनाने का,
कंपास तो है पर प्यार बिखेरने वाले दोस्तों का,
इमली की खटास का, साइकिल की सीट का,
दादू तो नहीं रहे पर फिर लाठी ले भागने का,
वह सपना था बचपन का क्या बनेगा पचपन का?
सपने जैसी बचपन की इन शरारतों का,
अब वापस लौटना बहुत-बहुत मुश्किल है
-०- 
७ सितंबर २०१९
 श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे ©®
अध्यापक-कवि-सह संपादक
भिराडाचीवाडीडाक भुईंजतहसील वाई,
जिला सातारा – 415 515 (महाराष्ट्र)
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गुरूजी सब हमें कहलाते हैं
(विधा: कविता)
बच्चों की मुस्कान देखें,
हँस-हँस के जी लेते हैं,
सरस्वती के आशीष हमपर,
ज्ञानसागर में डूब जाते हैं,
बच्चों के हम प्यारे,
वह गीत हमारे गाते हैं,
गुरूजी सब हमें कहलाते हैं

फूल से मुस्कातें बच्चे
जब भी पाठशाला आते हैं,
मन-मस्तिष्क में झरने ज्ञान के
अपने-आप फूट जाते हैं
ज्ञानामृत सबको पिला मंद मुस्काते हैं ,
गुरूजी सब हमें कहलाते हैं

ज्ञान की कोई सिमा नहीं है,
इसकी न कोई परिभाषा है,
माली खिलें फूल चुने हैं जैसे
संस्कार ज्ञान भी चुने हैं हम वैसे,
वह शिक्षा मंदिर में दे जाते हैं,
गुरूजी सब हमें कहलाते हैं

हर बच्चा ऊँचे मकाम पहुँचे,
सबसे बड़ा मोह पाल जाते हैं,
स्वार्थ हमारा विशाल गगन-सा,
बच्चों का हित हो धरती चमन-सा,
बच्चों का स्मरण हम नित कर जाते
गुरूजी सब हमें कहलाते हैं

बच्चों हम सबका नाता है खास,
आप हमारे ईश हैं हम हैं आपके दास
श्रेष्ठ कर्म यह ज्ञानप्रसाद देते हैं
आप ही तो पहचान हमारी,
आपसे गुरू दक्षिणा यही लेते हैं,
मानवता बीज जहाँ में पिरोए जाते हैं,

गुरूजी सब हमें कहलाते हैं
-0-
 ५ सितंबर २०१९
 श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे ©®
अध्यापक-कवि-सह संपादक
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गोपाला-गोपाला
(विधा: गीत)
देवकी का लाल
यशोदा का गोपाल तू,
वासुदेव का प्यारा
नंद का दुलारा तू,
गोपियों का मतवाला
सृष्टी का रखवाला तू,
गोपालागोपाला, 
सबके प्यारे-प्यारे गोपाला
कंस का भानजा
बना उसका काल भी,
बलराम का भ्राता
सबका बना दाता भी,
द्रौपदी की लाज
अर्जुन का सरताज भी,
रामायण का राम
महाभारत का कृष्ण भी,
सबमें तू और तुझमें है सब
कैसा यह खेल  निराला?
गोपालागोपाला,
सबके प्यारे-प्यारे गोपाला

आज.... 
राम का रामचंद्र
रहीम का रहमान है तू,
मंदिर का भजन
मस्जिद का अजान है तू
गीता का वचन 
पाक कुराण का कहन है तू
गुरूग्रंथ का नानकदेव
बाइबील का ईसा-मसीहा है तू
न तेरा धर्म कोई,
न किसी को माना है निराला,
गोपालागोपाला,
सबके प्यारे-प्यारे गोपाला
 ***
२३ अगस्त २०१९
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे ©®
अध्यापक-कवि-सह संपादक
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***
मीट जाएगा...
कवि: मच्छिद्र भिसे
सातारा महाराष्ट्र

खुशियों के चंद लमहों के लिए
आस्था-परंपराओं को पैरों तले रौंदने वाले
मृगमरिचिका के पीछे क्यों कर भागे
खुद भूले औरों को जहर पिलाने वाले
मीट जाएगा क्षणभर में तू
खुदगर्जी, दूजे राह मिटाने वाले

अपनों को तोड़कर लोलुपता के पकड़े जो रास्ते
रोएगा वो फिर बिखरे रिश्ते जोड़ने के वास्ते
फिर रिश्तों को सी पाया है भला कोई कभी
ऐ रिश्तों को कच्ची-टुच्ची ड़ोर समझने वाले
मीट जाएगा.......

संसार मोहभरम का भंडार है यहाँ
इमानसच्चाईकरम से छुटकारा भी कहाँ
इन्हें छोड़ पथ तू सँवर पाएगा कभी
द्वेषदंभ को अपनाकर खुद को नोचने वाले
मीट जाएगा.......

सपने सच होंगे सच्चाई जब साथ हो
स्वार्थ नहीं अब परोपकार  की बात हो
उनकों भला भूल पाया है संसार कभी
खुद करने भला औरों के सिर काटने वाले
मीट जाएगा.......

खाली हाथ आया था खाली हाथ ही जाएगा
जो करम तुम्हारा था वही साथ ले जाएगा
सत्कर्म नहीं झूके हैं जमाने के आगे कभी
फूल ही बिखेरना औरों के पथ काँटे बिछाने वाले
मीट जाएगा.........

वक्त नहीं गुजरा अभी तू सिर को उठाए जा
मत सोच खुद का परकाज हीत बीज बोए जा
फसल लहलहाएगी जिंदगी की कभी न कभी
समझदार होकर ना समझी की नौटंकी वाले
मीट जाएगा........
***
१९ अगस्त २०१९
 रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे ©®
अध्यापक-कवि-सह संपादक
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कलियुग का महाभारत
(विधा: व्यंग्य कविता)   
कवि: मच्छिंद्र भिसे
सातारा महाराष्ट्र
सुनो मित्र! कृष्ण हमारे,
घोर कलियुग आ गया,
द्वापर युग ने फिर एक बार,
कलियुग में जनम लिया।
देवकी ने दिया कंस को जन्म,
पद्मावती ने कृष्ण को पा लिया,
मथुरा वृंदावन में तब्दील है,
द्वारिका में अनर्गल गिर गया,    
कुंती के सौ पुत्र बने कुटिल,
पाकर पांडवों को गांधारी से,
धृतराष्ट्र का समय बन गया जटिल,
पांडू के बदहाल यहाँ पर,
कौन देश चला जाए?,
न ही दिखे कोई दिशा,
यह विनाश अब सहा न जाए,  
अपने ही पुत्र अब अपने न रहे,
हे प्रभु! एक बार फिर महाभारत हो जाए।
सुनकर अरज पांडू की
कलियुग में महाभारत फिर से हुआ खड़ा,
फर्क सिर्फ इतना-सा था,
अर्जुन नहीं बल्कि श्रीकृष्ण दुविधा में था पड़ा,
द्वापर युग के श्रीकृष्ण की,
कलियुगी अर्जुन ने जगह ली,
द्रोणाचार्य अब न थे कौरवों के साथ,
पांडवों को अब चक्रव्यूह की शिक्षा दी,
अर्जुन ने गुरु की शिक्षा को सिरसावंध्य माना,
बेईमानी, भ्रष्टाचार, झूठ, फरेब को
इस महाभारत के हथियार जो जाना।
श्रीकृष्ण ने जब सामने देखा पांडवों को,
इमान, सच्चाई, अच्छाई और
इंसानियत के शस्त्र सब अब विफल हुए,
कैसे युद्ध करें इस कलियुग में इनसे,
सोचकर अर्जुन के शरण में चल दिए,
मुस्करा रहे थे अर्जुन, रूप भी था नया,
डरो न मित्र मेरे! तुमने अब मुझको जो पाया,
हाथ में न लेना सुदर्शन ले लो राजासन,          
युद्ध में पक्की जीत होगी तुम्हारी
पर जीत के बाद मेरा ही हो शासन।
मानकर बात अर्जुन की आज,
श्रीकृष्ण हो गए अब तैयार,
जीना चाहता है हर एक यहाँ,
कहने लगे मेरा भी हो जाएगा स्वप्न साकार।
दिन में युद्ध न करना,
रातें ही सिर्फ हमारी हैं,
रात में रंग शबाबी, ख्वाब नवाबी हो,
फिर कितना भी बड़ा महाभारत हो,
जीत सिर्फ हमारी ही हमारी है।
वंदन किया अर्जुन को निकाला पहला तीर,
भ्रष्टाचारी हुआ श्रीकुष्ण कहलाया सबसे वीर,
बेईमानी के तीर ने हौसला इतना बढ़ाया,
पांडवों की सेना को भी आपस में लड़वाया,
विश्वासघाती मुस्कान देखकर गांधारी भी हँस पड़ी,
बेचारी कुंती पांडव नहीं कौरवों के लिए रो पड़ी,
घमासान युद्ध हो रहा था कलियुग में,
बेईमान बनाम ईमान और सच्चाई-लुकमछिपाई में,
नतीजे वही निकालें जो अर्जुन ने थी कही,
कुटील अर्जुन-श्रीकृष्ण कौरव थे बने,
पांडव सारे ढेर थे कौरवों की जीत हुई।
पांडव! पांडव! चिल्लाता हुआ,
स्वप्न से जब मैं जागा,
दीवार पर टंगी द्वापर युग की,
तस्वीर देखने द्रुतगति से भागा,
हाथ में था सुदर्शन श्रीकृष्ण के,
हाथ जोड़े चरणों पर अर्जुन को देखा,
मुस्करा रहे थे श्रीकृष्ण देख मुझको,
मैं अपनी रुलाई को रोक न सका,
की एक गुहार द्वापर के श्रीकुष्ण को,
कलियुग में भी सतयुग-द्वापर के अंश रखना,
जीना चाहते है सभी, सबको ही खुश रखना।
-०-
शब्दार्थ: पद्मावती- कंस की माँ, बदहाल- बूरे हालात, सिरसावंध्य- सर आँखों पर लेना/स्वीकार करना, राजासन- राज्य पर पूरा अधिकार, शबाबी- जवानी/जोशीले, नवाबी- अमीरी, अनर्गल- जहर ।
-*-
१७ अगस्त २०१९
रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे ©®
अध्यापक-कवि-सह संपादक
भिराडाचीवाडीडाक भुईंजतहसील वाई,
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तिरंगा जब लहराएगा 
(विधा: देशभक्ति गीत)
तिरंगा जब भी,
आसमान में लहराएगा,
हर भारवासी का दिल,
अभिमान से भर आएगा
मंगल पांडे जी की आहुति,
गंध मिट्टी की यहाँ आज भी देती,
जब भी आजाद देश जश्न मनाएगा,
हर सूरमा आँसू दे जाएगा
बापू की बात थी न्यारी,
सत्यअहिंसा के थे पुजारी,
जो शांती की राह अपनाएगा,
फिर राजघाट भी खुशी मनाएगा
अंग्रेजों ने की मनमानी,
सहा न पाए हिंदुस्थानी,
मर मीटे है मर मिटेंगे,
फिर-फिर जन्म ले आएगा
इक पल की नहीं ये आजादी,
कितनों ने ही जान गवाँ दी,
याद करके उनकी आज,
दिल बाग-बाग हो जाएगा
नाम अमर हो जाएगा,
जो वतन पर मीट जाएगा,
देश का सपूत कहलाएगा,
आबाद आजादी जो रख पाएगा
-०- 
१५ अगस्त २०१९
 रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे ©®
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राखी की सौंधी सुगंध
कवि: मच्छिंद्र भिसे
सातारा-महाराष्ट्र
 मेरी प्यारी बहना,
एक ऐसी राखी जरुर ले आना,
बचपन की यादों की,
सौंधी सुगंध मुझको तू दे जाना.   
राखी का उत्साह देखा था मैंने,
सुबह उठकर जल्दी माँ से
तोतले बोल रूपए माँगे थे तूने,
याद है आज भी मुझे,
राखी न दे पाई बेबस माँ,
सफ़ेद धागे को कुमकुम कर,
बांध दिया था हाथ पर तुने,
वो राखी का अनुबंद खो गया है कहीं,
वो वापस इस भाई के वास्ते जरुर ले आना
बचपन की .......
ढल गया बचपन यौवन हमारे द्वार खड़ा,
यह भाई ही लगता था एक आधार बड़ा,
अब माँ के पास नहीं था कोई बहाना,
राखी के दिन अब एक आँसू नहीं था बहाना,
लाई तू एक राखी मोर पंख से बनी,
नहीं था तेज उसपर था तेरे मुख पर,
देखा जब आरती की थाल जो बनी,
वो राखी के पंख और थाल आज लगती है सुनी
उजड़े सारे रंग उनके वो रंग वापस ले आना,
बचपन की ....
हाथ पीले कर एक दिन अपने गाँव तू चली,
राखी पर इंतजार में खड़ा मैं,
प्यार की अपनी वहीँ पुरानी गली,
शाम ढले तू न आई, आई बस एक पाति,
चूमा मैंने, सिर पर ले धरा चिपकाया छाती,
बहना का प्यार उमड़ आया ह्रदय में,
अठखेली देख यह पाति भी गीत है गाती,
भाई के प्यार में एक बहना आँसू है बहाती’,
बहना वहीँ पीली हथेली में तेरी मुस्कान ले आना,
बचपन की ....   
जिम्मेदारियाँ आ गई तुझपर और,
मुझपर भी कुछ आए बंधन,
चाहे बहें मेरी आँखें याद से तेरी,
सिंचाई करना उससे तेरा जीवन हो नंदन,
राखी के दिन याद तू जरुर करेगी मुझको,
एक ही तो भाई है दिल सताएगा तुझको,
संभालकर रिश्तों की डोर दोनों घर की,
लाँघकर परिधि यादें और जज्बात से निकलकर,
वहीँ बचपन की प्यारी बहना जरुर तू ले आना,
बचपन की....    
-०-
१४ अगस्त २०१९
रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे ©®
अध्यापक-कवि-सह संपादक
भिराडाचीवाडीडाक भुईंजतहसील वाई,
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                             ***
स्वार्थ की भूख
कवि: मच्छिंद्र भिसे
सातारा महाराष्ट्र
भूख को न मुँह है,
न हाथ न पाँव है,
न बोले न छू लेती है,
न थकती है न ही मिटती है,
देखकर आपाधापी में इन्सान पर ,
कंबख्त यह भूख उपहास से,
वक्त-बेवक्त उनपर क्यों कर है हँसे?
खिलाती हैं गालियाँ,
बोझिल बनाती हाथों को,
और सड़कों पर चलते-चलते
देती उपहार बिवाई की दरारे पैरों,
और रिश्तों में भी कभी,
फिर भी इसका पेट न भरा कभी,
मिटाने को इसे न जाने लोग,
किन-किन चंगुल में हैं आज फँसे,
फिर भी सुकून क्यों नहीं मिलता है इसे?  .
भटका देती इन्सान को,
देखे न धूप, बरसात या शीत को,
कभी गली-चौक चौराहों पर,
मलबे-खंडहरों में,
इमारतों में तो कभी,
बाबू-नेता लोगों के
जूतों की दलाली में,
बिखेर देती है आत्माभिमान को
फिर भी सुकून क्यों नहीं मिलता है इसे।
बहुत-से सवालों के बाद,
करार जवाब दिया भूख ने-
पहले आया तू, बाद में मैं,
स्वार्थ रखा तूने और अपराधी बनी मैं?
भौतिक लिप्सा के कारण,
तूने अपना पेट बढ़ा लिया,
पड़ी थी किसी कोने में मृतप्राय मैं,
स्वार्थ कारण ही पुनर्जन्म है लिया,
हालात को समझ मित्र,
मैं यूँ ही किसी की कन्नी न काटती,
निस्वार्थ हो वहाँ मैं कभी न भटकती।
उस दिन से त्यागा स्वार्थ को,
जब असल बात समझ में आई,
नई भूख ने खुशियों की बहारें बिछाई,
अब भूक तो है पर बैचेनी कहाँ,
सभी अपने पास हैं न कोई दुर्लभ यहाँ,
स्वार्थांध भूक का पर्दा हटाओ दोस्तो!
मिलेगा जीवन भर मुस्कानी कारवाँ,
चलो मिलकर जहाँ में निस्वार्थ के दीप जलाएँ,
मानव हैं हम मानवता की लौ को फिर-फिर जगाए।
                                     -0-
११ अगस्त २०१९
रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे ©®
अध्यापक-कवि-सह संपादक
भिराडाचीवाडीडाक भुईंजतहसील वाई,
जिला सातारा – 415 515 (महाराष्ट्र)
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                             ***
मित्र जौहरी
कवि: मच्छिंद्र भिसे
सातारा-महाराष्ट्र
मित्र ! शब्द को जब भी सुनता हूँ मैं,
अक्सर कई मुस्कराती तस्वीरें सरसरी से,
मानस पटल पर एक-एक कर उभर जाती हैं,
किसे अपना करीब कहूँ या सिर्फ नाम का,
न जाने कितने ही सवाल पैदा कर जाती हैं.
बचपन से लेकर आज तक,
कदम से कदम मिलें कईं,
और छूटे हैं कभी किसी मोड पर,
पर दिल में आज भी  वे जीवित हैं,
बस! दोस्ती के एक नाम पर,
फिर क्यों  वो यादें ताजा हो जाती हैं और,
मेरे दोस्त हैं वो इसका एहसास दे जाती हैं.
खुशी में तो शरीक होते है सभी,
गम के वक्त, भाई दोस्त ही काम आए,
न जाने दोस्ती के नाम कितने ही डंडे खाए,
बचाने के खातिर हमें माँ-बाप से डाँट पाए,
खुशी और गम में उफ् तक न किया कभी,
बेशरम की हँसी-खुशी से मैं जला था कभी,
यही जलन आज दोस्ती की मिसालें दे जाती हैं.
आज दोस्तों दोस्ती खुदगर्ज बनती है,
वास्ता देकर दोस्ती का खंजर खौंप जाती है,
दोस्त, यार, भाई कहकर जहर पीरों जाती है,
फेर देखकर समय का कौन हो तुम पूछ जाती है,
सावधान रहे उनसे जो चापलूसी को बने दोस्त हैं,
लेकर इम्तिहान कभी दोस्ती का  देखो यारों,
दोस्ती ही सारे सवालों के जवाब दे जाती है.
-०-
४ अगस्त   २०१९
रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे
अध्यापक-कवि-सह संपादक
भिराडाचीवाडीडाक भुईंजतहसील वाई,
जिला सातारा – 415 515 (महाराष्ट्र)
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                             ***
अनमोल हीरा : मुंशी प्रेमचंद
               कवि: मच्छिंद्र भिसे
 शारदे की वीणा से,
झंकृत हुई होगी कभी धरा,
शब्द थे आसमाँ में बिखरे,
न था कोई सहारा,
सोए समाज को जगाने,
और कलम के बहाने
शब्दों को मिला था,
स्वररूपी अनमोल एक हीरा.
कोहीनूर का नूर सिर्फ,
महल की शान है,
यह हीरा देखो यारो,
हिंद-हिंदी के मुकुट का मान है,
निकलेंगे हजारों शब्दों के धनी पर,
'धनपतराय' जी से न होगा कभी किनारा.
शब्दों को मिला था,
स्वररूपी अनमोल एक हीरा.
शब्दों को सजाया बस !
समय कलम-काज में,
जीवन नशा-सा झूमा,
उर्दू-हिंदी के मकान में,
जीवन भटके लोगों को,
'नवाब राय' देते रहे सदा सहारा.
शब्दों को मिला था,
स्वररूपी अनमोल एक हीरा.
जीवन संघर्ष में,
यह मानी बस आगे-आगे बढ़ा,
गीत बना था 'सोज़े वतन',
गोरों के हाथ जब पड़ा,
'प्रेमचंद' बनकर फिर मित्रो !
लिखा फिर से सारा का सारा.
शब्दों को मिला था,
स्वररूपी अनमोल एक हीरा.
गरीबी-अमीरी, जन-जनार्दन पर,
कलम जब चलाई,
गोरे हो या स्वार्थांध साहूकार,
गर्दन नीत है झुकाई,
'कलम का सिपाही' सच्चे आप
शत्-शत् वंदन करूँ, ले लो जनम दुबारा.
शब्दों को मिला था,
स्वररूपी अनमोल एक हीरा.
©®
-०-
३१ जुलाई २०१९
 रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे
अध्यापक-कवि-सह संपादक
भिराडाचीवाडीडाक भुईंजतहसील वाई,
जिला सातारा – 415 515 (महाराष्ट्र)
मोबाईल: 9730491952 / 9545840063
ई-मेल: machhindra.3585@gmail.com
साहित्यिक ब्लॉग: http://bhisesir3585.blogspot.com
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                    ***
खुशियों सावन मनभावन
कवि: मच्छिंद्र भिसे
सातारा-महाराष्ट्र
 गुरू का संग हमें लगे क्षणै-क्षणै सुहावन,
वारंवार खिले खुशियों का सावन मनभावन.
बचपन की बेला तोतले बोल मैं बोला,
पकड़ ऊँगली आसमान छूने जो चला,
कभी लोरी तो कभी कंधे देखा है मेला,
गुरू बन मात-पिता ने दिया नया उजाला,
हृदयतल में निवास करें जीवन हो पावन,
वारंवार खिले खुशियों का सावन मनभावन
हाथों में हाथ लेकर श्रीगणेशा जब लिखा,
कौन था वह हाथ आज तक न दिखा,
जो भी हो गुरूजन आप थे बचपन के सखा,
की होगी शरारत पर सिखाना न कभी रूका,
हाथ कभी न छूटे अपना रिश्ता बने सुहावन,
वारंवार खिले खुशियों का सावन मनभावन.
ना समझ से समझदार जब हम बने,
गुरूजनों के आशीर्वचन हमने थे चुने,
बढ़ाकर विश्वास दिखाए खुली आँखों में सपने,
जो थे कभी बेगाने अब लगते हैं अपने,
गुरूजी आप बिन कल्पना से नीर बहाएँ नयन
वारंवार खिले खुशियों का सावन मनभावन.
अनुभव जैसा गुरू नहीं भाई बात समझ में आई,
गिरकर उठना उठकर चलना कसम आज है खाई,
हार-जीत तो बनी रहेगी अपनी क्षणिक परछाई,
न हो क्लेष न अहंकार सीख अमूल्य सिखाई,
सीखावन गुरू आपकी निज करता रहूँ वहन,
वारंवार खिले खुशियों का सावन मनभावन.
-0-
१६ जुलाई २०१९
रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे
अध्यापक-कवि-सह संपादक
भिराडाचीवाडीडाक भुईंजतहसील वाई,
जिला सातारा – 415 515 (महाराष्ट्र)
मोबाईल: 9730491952 / 9545840063
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तिरंगा जब लहराएगा
              कवि: मच्छिंद्र भिसे 
तिरंगा जब भी,
आसमान में लहराएगा,
हर भारवासी का दिल,
अभिमान से भर आएगा.
मंगल पांडे जी की आहुति,
गंध मिट्टी यहाँ आज भी देती,
जब भी आजाद देश जश्न मनाएगा,
हर सूरमा आँसू दे जाएगा.
बापू की बात थी न्यारी,
सत्य, अहिंसा के थे पुजारी,
जो शांती की राह अपनाएगा,
फिर राजघाट भी खुशी मनाएगा. 
अंग्रेजों ने की मनमानी,
सहा न पाए हिंदुस्थानी,
मर मीटे है मर मिटेंगे,
फिर-फिर जन्म ले आएगा.
इक पल की नहीं ये आजादी,
कितनों ने ही जान गवाँ दी,
याद करके उनकी आज,
दिल बाग-बाग हो जाएगा.
नाम अमर हो जाएगा
जो वतन पर मीट जाएगा,
देश का सपूत कहलाएगा,
आबाद आजादी जो रख पाएगा.
-०-
१५ जुलाई २०१९

स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में
 रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे
अध्यापक-कवि-सह संपादक
भिराडाचीवाडीडाक भुईंजतहसील वाई,
जिला सातारा – 415 515 (महाराष्ट्र)
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खुशियाँ मनाए शाम
              कवि- मच्छिंद्र भिसे
                (सातारा महाराष्ट्र)
रात धीरे रंग चढ़े,
सजने लगी शाम,
थके-हारे जीव,
करने लगे आराम,
सपने देखें नींद में,
रोटी लगे महान,
स्वार्थी दिन के रंग अनेक,
खुशियाँ मनाए शाम.
सच का साथ,
सिर्फ मन की ही बात,
बेईमानी चाल चले,
घनी अँधेरी रात,
नींद गहरी हो रही,
मन मचता कुहराम,
स्वार्थी दिन के रंग अनेक,
खुशियाँ मनाए शाम.
नींद तो है,
पर नींद नहीं,
सपने है बहुत,
अपना कोई साथ नहीं,
किसे कोसे किसे अपनाएँ,
दिखता कहीं न राम,
स्वार्थी दिन के रंग अनेक,
खुशियाँ मनाए शाम.
नींद से डर लगे,
साँस चैन की कहाँ मिले,
अब डर का सामना करना होगा,
चाहे अँधियारा खौफ साथ चले,
नींद के होश उड़ जाए ऐसा करूँ,
उम्मीद और विश्वास से करूँगा प्रयाण,
फिर अँधेरा भी रोशनी फैलाएगा,
न होगा डर न डर का कोई पैगाम.
स्वार्थी दिन के रंग अनेक,
खुशियाँ मनाए शाम.
***
१२ जुलाई 2019
रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे

अध्यापक-कवि-सह संपादक

भिराडाचीवाडीडाक भुईंजतहसील वाई,

जिला सातारा – 415 515 (महाराष्ट्र)

मोबाईल: 9730491952 / 9545840063

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तेरी बद्दुआएँ 
            कवि: मच्छिंद्र भिसे,
           (सातारामहाराष्ट्र)
अरे सुन प्यारे पगले,
देख तेरी बद्दुआएँ काम कर गईं,
पटकाना था जमीं पर हमें,
यूँ आसमाँ पर बिठा गईं.
तेरी रंग बदलती सूरत ने,
परेशान वारंवार किया,
यही रंगीन सूरत मुझे,
हर बार सावधान कर गई.
आप एहसास चाहा जब भी,
नफरत ही नफरत मिलीं,
न जाने कैसे तेरी यह नफरत,
खुद को संजोए प्रीत बन गई.
छल-कपट की सौ बातें,
इर्द-गिर्द घूमती रही,
तेरा बदनसीब ही समझू,
जो उभरने का गीत बन गई.
तेरी हर एक बद्दुआ,
मेरी ताकत बनती गई,
देनी चाही पीड़ा हमें,
वह तो दर्द की दवा बन गई.
सुनअभिशापन से काम न चला,
आशीर्वचन का चल एक दीप जला,
आएगा जीवन में एक नया विहान,
दीप की ज्योति बार-बार कह गई. 
-०- 
०५ जुलाई २०१९
रचनाकार 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे
अध्यापक-कवि-सह संपादक
भिराडाचीवाडीडाक भुईंजतहसील वाई,
जिला सातारा – 415 515 (महाराष्ट्र)
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गिरगिटियाँ रंग
लोगों के रंगे चेहरे रंग जब भी देखूँ,
रिश्तों के टूटे अक्स दिख ही जाते हैं.
चाहूँ के रँगा एकता रंग जब भी देखूँ,
नेकी को फूँके शक्स दिख ही जाते हैं.
औरों न अब अपना रंग जब भी देखूँ,
गैरों के फिके नक्श दिख ही जाते हैं.
यहाँ का हर इन्सान संग जब भी देखूँ,
क्रूर वे स्वार्थी दक्ष दिख ही जाते हैं.
सृष्टी के भद्र सच्चाई रंग जब भी देखूँ,
दुष्ट के घूमे अक्ष दिख ही जाते हैं.
छोड़ स्वार्थ के  सपने चंग जब भी देखूँ,
जहाँ के रंग लूटे दिख ही जाते हैं.
-०-
१६ मई  २०१९
रचनाकार 
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )

संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063
*************
खुशी तुझे ढूँढ़ ही लिया               

आँख खुली नींद में,
मुस्कराती माँ के आँचल में,
पिता के आदर, गुस्सा, प्यार में,
भाई की अनबन तक़रार में,
दीदी की अठखेली मुस्कान में,
हे खुशी, तू तो भरी पड़ी है,
मेरे परिवार के बागियान में ।
पाठशाला के भरे बस्ते में,
टूटी पेन्सिल की नोक में,
फटी कापी की पात में,
दोस्त की साजी किताब में,
परीक्षा और नतीजे खेल में,
हे खूशी तू खड़ी, खड़ी रंग में,
तेरा निवास ज्ञानमंदिर में ।
कालेज की भरी क्लास में,
यार-सहेली के शबाब में,
प्यार कली खिली उस साज में,
चिट्ठी-गुलाब-बात के अल्फ़ाज में,
गम-संगम आँसू बरसाती बरसात में,
हे खुशी, तू बसी विरहन आस में,
और पियारे मिलन के उपहास में ।
समझौते या कहे खुशी के विवाहबंध में
पति-पत्नी आपसी मेल-जोल में,
गृहस्ती रस्में-रिवाज निभाने में,
माता-पिता बन पदोन्नति संसार में,
जिम्मेदारी एहसास और विश्वास में,
हे खुशी, तुझे तो हर पल देखा,
तालमेल करती जिंदगी तूफान में ।
बचपन माँ के आँचल में,
मिट्ठी-पानी हुंकार में,
यौवन की चाल-ढाल में,
सँवरती जिंदगी ढलान में,
पचपन के सफेद बाल में,
हे खुशी, तू सजती हर उम्र में,
और चेहरे सूखी झुर्रियों में ।
आँख मूँद पड़े शरीर में,
आँसू भरें जन सैलाब में,
चार कंधों की पालखी में,
रिश्तों की टूटती दीवार में,
चिता पर चढ़ते हार में,
हे खुशी, तुझे तो पाया,
जन्म से श्मशान की लौ बहार में ।
हे खुशी, एक सवाल है मन में,
क्यों भागे हैं जीव, ख्वाइशों के वन में,
लोग कब समझेंगे तू भी है गम में,
जिस दिन ढूँढेंगे तुझे खुद एहसास में,
और औरों को बाँटते रहे प्यार में,
हे खुशी, खुशी होगी मुझे लिपटे कफन में,
और लोगों के लौटते भारी हर कदम में ।
हे खुशी आखिर तुझे ढूँढ ही लिया,
जन्म से मृत्यु तक के अंतराल में ।

-०-
२० मई  २०१९
रचनाकार 
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )

संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063
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खुद की तलाश में 
सूरज के दर्शन हुए आज,
दिल को सुकुन मिला,
आज आपाधापी में,
खुद के दर्शन का एक सवाल मिला,
क्या अपने दिल के आईने को देखा मैंने?
औरों की देखा-देखी के चलते,
बस! जवाब 'ना' ही मिला.
             (२० मार्च २०१९)
रचनाकार 
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063
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दोस्तों के नाम पैगाम 
ख़ामोश अल्फ़ाजों को स्वर फिर-फिर मिलेंगेे,
अपने प्रियवर-प्रियतम के एहसास हर बार मिलेंगे,
गुमशुदा नहीं हुए है हम यारों,
अपने दिल को अपना हाल पूछ लीजिए,
यादों के झरोखों की हर किरण में हम और आप ही मिलेंगे.
(२० अप्रैल  २०१९ )
रचनाकार 
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063
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सवाल अभी बाकी हैं...
 कहीं धूप तो कहीं छाँह है,
कहीं सुख तो कहीं दुःख है,
कहीं जन्म तो कहीं मृत्यु,
कहीं अपना और कहीं दूजा भी है,
कभी मेरा है कभी तेरा है,
कभी मैं-मैं और कभी तू-तू है,
न जाने कितना कहीं
और कितना क्या-क्या है,
इस पहेली को सुलझाने के पीछे हर एक है,
शायद कहीं की हाँ और ना,
भविष्य की सोच में,
है और था में,
खुद को भूल गया,
आज हर एक है,
सँभालो मेरे प्यारों!
अभी का वक्त अपना-अपना,
इसे बनाए शाश्वत जीवन सपना,
न जाने कब साँस छूटे एक पल में,
और तमाशा देखनेवाले खुदा करें,
अपना ही तमाशा बना न करें,
चलो आज के पल में कुछ ऐसा करें,
हर दिल में अपना एहसास भरें,
फिर चाहे साँस का साथ लूटे,
चाहे अपनों का हाथ छूटे
फिर देखना तमाशबीन और चिता की लौ को,
और भी धधकेगी की वह,
आक्रोश और क्रंदन से,
नफरत के बदले प्यार में,
हर आँसू टपकेगा तुम्हारी याद में,
देखकर तेरे जीवन का शाश्वत तमाशा,
ऊपरवाला तमाशबीन रो पड़ेगा इस द्वंद्व में,
क्यों बनी मेरी हाथ से यह सूरत,
जिसकी बनेगी मेरे कारण धरती पर मूरत,
क्या हक है उसके अधीन विश्वास को तोड़ने का ?
हर एक रिश्ते को बिखरने का ?
वह ईश भी सोच में पड़े,
ऐसा चलो एक काम करें,
उस ईश पर हम हँस पड़े,
होकर उसके सामने खड़े,
करें एक सवाल उसे,
क्यों यह दुनियावाले फिर
क्षणिक सुख के पीछे है पड़े?
कई सवाल करेंगे,
कई बवाल करेंगे,
पर क्या मानव अपने रास्ते,
खुद ही चुनेंगे?
सवाल अभी बाकी हैं..........
(मुक्तक रचना)
२९.०४.२०१९
रचनाकार 
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063
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वचन सभ्यता
वचनों की मिठास से,
मिटे मन के संत्रास,
रिश्तों की मीटीं दुरियाँ,
खिंचे आते अपने पास.
मीठे वचन की कमी
खलती रहे सभ्य जन,
जीवन बाग में बहती रहे,
मधुर वचन की पवन.
कुदरत की देन हमें,
सोच प्यार मधुर वचन,
पशु नहीं मानुष बन,
करेंगे इसका जतन.
मीठे वचन की सभ्यता,
भारत-भारती की न्यारी,
पालना रहा इसका यहाँ ,
वचन सुधा-सी लगती प्यारी.
बुद्ध-कबीर-सूर कईंने दी,
अशिष्ट स्वरों को शिष्ट साँस,
जीवन मोक्ष पा जाएगा मनुज,
बुनें वाणी का मधुर प्रवास.
-0-
१३ अप्रैल २०१९
रचनाकार 
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063
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मील का पत्थर
 संकल्प ऐसा करें,
जिसमें कोई विकल्प न हो,
मन में विश्वास ऐसा भरें,
जिसमें खुद का भी एहसास न हो,
मेहनत ऐसी करें,
जिसमें फल की चाहत न हो,
कर्म ऐसा हो जिसमें,
दोबारा मेहनत की गुंजाइश न हो,
चलो 'इक' मील का पत्थर बनें,
जहाँ में पूजा हो, नफ़रत का पर्दा न हो |
-0-
१० अप्रैल २०१९
रचनाकार 
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
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संघर्ष सावनगीत
 संघर्ष एक पहेली है,
सुख-दु:ख-सा खेल अठखेली है,
किया तो सुख 'जन्नत-सा'
हमें अपनी हैसियत दिखाता है,
न किया तो दुःख 'जहन्नुम-सा'
हमें 'संघर्ष अहमियत' सिखाता है.
क्या संघर्ष करें या
डाल दे हथियार खुद के सामने,
जो अपने अस्तित्व को ही मिटाए या
जिते जी अपनी उम्र को घटाए,
फिर भी मन में एक सवाल उठता है,
स्व पहचान और होनेका कारण पुछता है.
जवाब दे रह हूँ सुनो प्यारे,
संघर्ष 'जीवन सत्य' कहते है सारे.
न है सुख की लालसा,
न दुःख ने कभी हिलाया है,
समय और संघर्ष ने पल-पल,
नए ख्वाँब बुनना ही सिखाया है,
अब संघर्ष ही जीवन लक्ष्य मेरा,
इसपर स्वर्णिम जीवन लुटा दूँगा,
चाहे सुख का साथ हो न हो,
दुखों की पतझड़ बहार हो,
हौंसले और विश्वास बुलंद रखूँगा,
संघर्ष के सावनगीत खुशी-खुशी गाऊँगा.
-०-
३० मार्च २०१९
रचनाकार 
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063
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हलधारी  जवान
 प्रतिपाल सारे जहान का,
हलधारी वह जवान है,
पनाह में आबाद जिसके,
वतन-ए-हिंदुस्थान है.
आसमान की छाँह में,
धूप-घनेरी बरसात में,
सिंचाई करें निज खून से,
फिर भी चेहरे मुस्कान है.
महँगाई की मार है,
घर-चूल्हा कंगाल है,
बेतरतीब मौसम से,
जीवन उसका तूफान है.
अकाल की चाल ने,
घर, बीमारी सवाल ने,
लुटेरे समय के तैश में,
खेती जिसकी जान है.
मौसम दुश्मनों के दल हैं,
सपनों के टूटे महल हैं
परिवार संग जीने की पहल से,
हर दिन नया विहान है.
देखा समय का इतराना,
सौ बार सहा शासन का ताना,
काल ने किए अनचाहे वार हैं,
सीना ताने देखो किसान है.
-0-
५ मार्च २०१९
रचनाकार 
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063
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नेपथ्य से
जीवन नहीं सजा करता है,
बिना कँटीलें-बीहड़ पथ से,
राग-अनुराग यूँ ही नहीं छिड़ा करता,
बगैर हौसले और नेक इरादे नेपथ्य से।
जनम मिला खुशी पाईं औरों ने,
खुद से लड़ना है कही बात गैरों ने,
हाँ! हाँ! खुशियाँ यूँ ही मुफ़्त नहीं मिलती,
बगैर खुद जिंदादिली शिकस्त खाने से।
जीवन पथ सच्चाई का लगा कठिन बड़ा,
चारों ओर से नौंचता तूफ़ान होता रहा खड़ा,
उफ़! समझा मंजिल यूँ ही सहज नहीं मिलतीं,
बगैर कड़ा परिश्रम-पसीना बहाने से।
मन में भर विश्वास और चाल हो नेक,
चल पड़े गर्द झाड़े मिलेगी मंजिल देख,
अरे! प्यार जमाने से यूँ ही नहीं मिलता,
बगैर बेवफाई के साथ वफाई से।
सच कहूँ मेरे प्यारों, जीवन अपना अकेला,
खुद ही उभरा या दिया कहीं धकेला,
प्यासे मन की तृष्णा यूँ ही नहीं मिट पाती,
बगैर औरों की तृष्णा मिटाने से।
और.........
उम्र नहीं ढलती कभी अनुजों को अग्रज बनाने से |
 -0-
(१५ मार्च २०१९)
रचनाकार
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्यहिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडीपो.भुईंजतह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 
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सजता एक मकान
 मीठी-मीठी प्यार की बोली,
और नेकी जिसकी जान,
हर गली, हर चौराहे पर उसका,
सजता एक मकान.
न कोई दौलत न कोई शौहरत,
न कोई चाहत न कोई हसरत,
दिल बड़ा और बड़प्पन से
भरता निज जीवन में शान,
हर गली, हर चौराहे पर उसका,
सजता एक मकान.
प्यार बाँटता प्यार ही पाता,
सबसे बुनता दिल का नाता,
डंख शब्द-जहर मिलते फिर भी,
चेहरे खिलती सुधा-सी मुस्कान,
हर गली, हर चौराहे पर उसका,
सजता एक मकान.
मधुर वाणी से घट भर प्यारे,
जीवन में होगा फिर-फिर विहान,
न होगा कोई अपना-पराया,
भला कहलाएगा हर इन्सान,
देखो ! हर गली, हर चौराहे पर,
मानवता की सजने लगी दूकान.
                           (१९ मार्च २०१९)
रचनाकार
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 
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वतन-ए-फ़र्ज
साथ हम भी चलें साथ तुम भी चलो,
हिंद के सपूत हो वतन-ए-फ़र्ज निभाते चलो,
कर्ज इस धरा के चुकाने हैं हम सब को आज,
कदम से कदम दिल से दिल मिलाकर चलो.
खिलते रहे गुल-ए-गुलशन में हर पल,
खुशबू हर प्यार की हर एक साँस में भरो,
रहे आब़ाद जश्न और फ़िजा के रंग आज,
हर साँस, नस-नस में विश्वास पिरोते चलो.
चाह दिल में रहे हम सभी जन एक हो,
मिटा न सके कोई हम सभी जान एक हो,
सूरतें चाहे हो हजार-ए-इन्सान आज,
भारत-भारती के दिल की धड़कन बनाते चलो.
मिटे भरम मजहबी सब मजहब एक हो,
'जन-गण-मन' गान हर दिलप्रीत एक हो,
भारत जननी के रखवाले हम सब आज,
निज खून धरा के लिए उर्वरक डालते चलो.
                                           (२६ जनवरी २०१९)
रचनाकार
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 
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नववर्ष के स्वागत में
हर साल की तरह,
मुस्कराता रंगीन चेहरा लेकर,
नववर्ष का पहला पन्ना,
फिर से आया है,
मेरे जीवन के,
कितने ही सुनहरे पलों को,
भूतकाल में समेटने, वर्तमान बनकर,
क्या नववर्ष फिर से आया है?
बचपन से आज तक,
नववर्ष के पन्ने बदलता रहा
पन्नो के बीच उम्मीदों के,
खोए दिनों को तलाशता रहा,
क्या पाया? क्या खोया?
हिसाब फिर भी न कर पाया मैं,
जायजा लेकर मन को आहत करने,
क्या नववर्ष फिर से आया है?
पन्नों के रंगीन टुकड़े,
टुकड़ों में बिखरते सपनों की,
याद जो दिलाते हैं,
जो कभी पिछले साल देखे थे,
आपाधापी में आगे जो बढ़े हैं,
कैलेंडर के मुखपृष्ठ पर दिखलाते हैं,
उन सपनों को दिखाकर,
क्या नववर्ष मेरा विश्वास तोड़ने आया है ?
ऐ नववर्ष ! कितना भी कर ले हर्ष,
खोई उम्मीद को कभी,
भूतकाल में न खोजा मैंने,
सुनहरे जीवन के सपने और पलों को,
मिटने न दिया मन-मस्तिष्क से मैंने,
पर तू बता हे नववर्ष !
मैं तो वहीँ का वही हूँ,
क्या खुद को मिटाने,
क्या अपनी नाक कटाने फिर से आया है?
(१ जनवरी २०१९)
रचनाकार
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्यहिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडीपो.भुईंजतह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 

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२६/११ की अनहोनी
आज से १० वर्ष पूर्व मुंबई में हुए हमले की याद आते ही मन दहल जाता है। मैं सायन के एक ऑफिस में काम पर था। यकायक शाम ४ बजे के आस-पास खबरें आने लगी कि सीएसटी पर हमला हुआ है। ट्रैन, बस सेवा बंद हो गई। तीन दिन मुंबई सहीत पूरा देश भयाक्रांत था परंतु महाराष्ट्र पुलिस और कमांडो फोर्स ने अपनी बहादुरी दिखाते हुए कड़ा मुकाबला किया। परंतु दुर्भाग्य से मातृभूमि के लिए पुलिस अधिकारियों सहीत १८ सूरमा शहीद हुए, जिसमें मेरे गाँव के शहीद बापूराव साहेबराव धुरगुडे (पीएसआय) भी शहीद हुए।
        सभी ने अपने देश के लिए शहीदी दी। सभी शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजली। इस घटना के शहीद वीरों को शब्दांजली...
२६/११ पल दो पल में......
आते देख आज की तारीख ताज भी सहम गया,
याद कर उस शहीदी को फूट-फूटकर वह रोया,
लहूलुहान थी धरा वक्त भी संभल नहीं पाया,
यमालय से भयभीत यम भी डरते-डरते आया,
वीर सपूतों को भारत भू ने पल दो पल में खोया।
 २६/११ की खुशहाल शाम दहलने लगी,
छत्रपती टर्मिनल पर गोलियाँ सूँ-सूँ चलने लगी,
मुम्बापुरी आंतकी भय से अंतस्थ धधकने लगी,
यकायक शहर पर डर का बिछ गया था साया,
वीर सपूतों को भारत भू ने पल दो पल में खोया।
 वीरों को भनक लगी, निकले लेकर जान हथेली,
बाँध कफन सिर पर, न ले सके अपनों की बिदाई,
बस एक ही अरमान था, हो देश की रखवाली,
सामने बस थी मातम और आतंक की छाया,
वीर सपूतों को भारत भू ने पल दो पल में खोया।
गोलियाँ चली घनेरी दोनों ओर से बारी-बारी,
आतंकी असुरों के मौत की हो गई तैयारी,
बढ़ गए देश के सूरमा आगे, लेकर एक चिंगारी,
पता नहीं था उन्हें मिलेगा, देखने शांति का साया,
वीर सपूतों को भारत भू ने पल दो पल में खोया।
घमासान हुँकार साँस रूकाए देख रही थी धरा,
आतंक मिटाते-मिटाते एक-एक सूरमा जब गिरा,
धरा-अंबर की थर्राई रूह, लगा मिटेगा जग सारा,
खत्म हुआ आतंक, आतंकी जो जाल बुनाया,
वीर सपूतों को भारत भू ने पल दो पल में खोया।
हे मातृभूमि, तेरे लिए सौ-सौ बार जनम हम लेंगे,
फिर सपूत बनकर तुझपर बलि-बलि जाएँगे,
कहते है शहीद आज, मत रो मेरे प्यारे ताज,
तेरे कारण ही तो दुनिया का प्यार है हमने पाया,
मत रो भारतमाता प्यारे शहीदों ने समझाया।
वीर सपूतों को भारत भू ने पल दो पल में खोया।
                               (२६ नवंबर २०१८)
रचनाकार
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 

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पावन मन में दीप जलाए
मन में लेकर नई उमंग,
रिश्तों में भरने मधुर तरंग
आई दीवाली लेकर प्यारे नवरंग
चलो मनाए खुशियाँ, हम सबके संग।
धन तेरस के रंग है अनेक,
संतोष मिले हमें, कार्य हो सबसे नेक,
अपना-पराया कोई नहीं अन्य,
परोपकार की राह पाए, जीवन हो धन्य।
हर विपदा टले सुख स्वर्ग-सा मिले,
दोख़ज़ हरे सत्य दीप राह नित चले,
प्यार लेकर आए हम, तम की जले होली,
खुशियों का उजियाला, फैलाती दीवाली ।
धन-धान की पूजा से संपन्न लक्ष्मीपूजन,
माँ शारदे का भी हो मन में हरपल जतन,
दीप जलेंगे और उजियारा फैले सघन,
मानव हीत में दीप जले, आप हो पावन।
अच्छे कर्मो से भरती रहे आपकी झोली,
कुल कोई भी हो बताए दानवीर बलि,
बलि पूजा के दीप से सजी बलि प्रतिपदा,
आओ मिलकर डटे रहे, हो कोई आपदा।
भाईदूज दीप का उजियारा न्यारा,
भाई-बहन का रिश्ता कृष्ण द्रौपदी-सा प्यारा,
हर बहन की रक्षा ही तीरथ हो हमारा,
चलो दीप जलाए ऐसे फैलाए भाईचारा।
चलो विश्वास की लौ हर मन में जलाए,
रोशन घर-घर रिश्तों के आँगन खिलाए,
महके दिलों के हर प्रसून खुशबू है निराली,
रिश्तों में मिठास भरने आए, फिर-फिर दीवाली।
रचनाकार मच्छिंद्र भिसे (सातारा)
उपशिक्षक
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952  /  9545840063 
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मानवता मजहब एक
भारत भू के अधरों पर,
फूल खिले हैं अनेक,
जाति-धरम बहुत यहाँ,
मानवता मजहब एक।
खान-पान-परिवेश अलग पर,
भावों में है महक,
रंग-रूप निराले यहाँ,
मानवता मजहब एक।
प्रांत जैसी बोली बहुत पर,
दिल की सोच है नेक,
हिंदी जन-मन गीत यहाँ,
मानवता मजहब एक।
रामायण पढ़े या पढ़े कुराण,
इसमें एक ही लेख,
प्यार से प्यारी झोली भर जहाँ,
मानवता मजहब एक।
भारत भू के नादान परिंदे हम,
तिरंगे परछाई चहक,
राखण करने बलि-बलि जाऊँ,
मानवता मजहब एक।
नवकवि
मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 
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संस्कार घरौंदा
सोच के घरौंदे आज उजड़ रहे हैं,
जो विकारों की छत से सजे हैं,
आज छत विकारों से बीमार,
करना चाहते हैं संस्कारों का प्रचार,
खुद उड़ने लगे हैं,
ढूँढने सुसंस्कारों के विकार।
क्या मिल पाएँगे वह संस्कार,
जो कभी घरों को सजाया करते थे,
जो आज घरों में तो हैं पर
बाहर निकलते ही उनका दम घोंटा जाता हैं,
वह भी तो आज खुद,
खून के आँसू बहाएँ,
अपने अस्तित्व को ढूँढ़ा करते हैं।
आज संस्कारों में भिड़ंत है,
दिखते कुछ और होते कुछ ओर,
पता ही नहीं चलता,
नजर के पिछे नजरिए का,
क्या शड़यंत्र है,
घायल संस्कार इसी सोच में,
आजाद मुल्क में जी रहा,
निरंतर पारतंत्र में है।
नहीं चाहिए ऐसी आजादी,
जहाँ संस्कार घरौंदे मिट जाएँ,
और दीवारें दमघौंटु आँसू बहाएँ,
चाहिए बस,
मानव बनकर मानवता के लिए जिए,
जहाँ हो सच्चे संस्कारों के साये,
वहाँ बनाऊँ वहीं घरौंदा,
जिसके छत कभी,
संस्कारों के थे गीत कभी गाए।
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नवकवि
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
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बचपन में गाँव में बिताईं शामें जब याद आती हैं तो आज बनें हम शहरी कहाँ फुरसत है उन शामों में फिर से जीने में......

वह यादें फिर आईं
हर दिन मैंने
सांज की बेला को,
देखा था तुझे 
देखते तिरछी नजर से,
और देखा था
तुम्हारा अरूण मुख,
हो गए थे घायल 
आपसी हृदय संवेदन क्षर से।

बिखरा दी थी जब भी 
एक मुस्कान अधरों पर,
न जाने कितने रंग छलकते थे
कितने ही चेहरों पर,
खिला दी थी अनगिनत
अंतरमन में रातरानी की कलियाँ,
मचाती थी शोर- ही- शोर
तुम्हारे हरदिन आने पर।

यकायक क्या हुआ तुझे
मुझे पता नहीं,
धीरे-धीरे छट गया
तेरा अरूण रंग,
और तेरे चेहरे छा गई
काली बदरी-सी जब भी,
देख लोगों ने कहा-
हो गई तू रंग से बेरंग।

पर मैं खुश था
मन-ही-मन,
जो चमकाएँ तारे
मेरे और तेरे मुख पर,
वो कैसे भूल पाऊँ
बता ऐ मेरी सखी,
जब से आया शहर में
तू वैसी कभी न दिखी।

शहर की पहली बिजली
जब जलती है,
लोगों की राहें 
घर वापसी की निकलती हैं,
गाँव बेला साँज में 
पंछियों की वापसी चहक गुँजती,
यहाँ दिन की थकान उपर 
भोंपु से दिल धड़कनें बढ़ती हैं।

ओ मेरी प्यारी निशा
आज तरसता मैं,
तू मुझमें और मैं तुझमें
आँखों जब भी निहारता हूँ,
छोड़ गाँव की साँज को
शहरी अंबर जो बना हूँ,
ओ गाँव की सांध्यबेला !
अब हर शाम आँसुओं के
तारों से सजाता हूँ।
२६. १०. २०१८ 
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नवकवि
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
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* आज परिवार के बीच होकर भी अकेलापन महसूस कर रहा हूँ। जिंदगी में सकारात्मक सोच की कमी को देख और अपने ही लोगों के बदलते नजरिए देख, कुछ पंक्तियाँ प्रस्फुटित हुईं। आपके सम्मुख प्रस्तुत है। *
(तिथि १६ सितंबर २०१८ )
बदल रहा हूँ ....
सच्चाई की राह पर जब भी चल पड़ा,
ठोकरे ही मिली बार-बार जब था मैं खड़ा,
मुश्किलों में भी जीने के लिए बस!
हर बार अपनी सूरत बदल रहा हूँ।

खोखली दुनिया में खुद को ही भूल गया
भूले एहसास में खुद का ढूंढता साया  ,
बुझी हुई हर सांस जिलाने बस! 
खुद के एहसास चीथड़ों को बदल रहा हूँ । 

कटु रिश्तों की ज्वालाएँ कभी न थमेगी,
आँच में इसकी आज अपनों को ले जलेगी,
कब तक बचता-बचाता बस!
बचाने रिश्तों को मुखौटी सूरत बदल रहा हूँ । 

नज़ारे हैवानियत के देख नजरें लेती करवटे,
कौन अपना?कौन पराया? सोच से सिर है फटे,
ऐसी बुरी नज़रों से बचने के लिए बस!
अपनी नजर का नजरिया बदल रहा हूँ । 

दिन वह आएगा सच्चाई की जित होगी,
खुद के एहसास की बुझी तीली जल जाएगी,
रिश्तों के रिसते जखम के लिए बस!,
नजर के नजरिए की मरहम पट्टी बदल रहा हूँ। 

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नवकवि
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
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(१५ सितंबर २०१८ )
भारतवर्ष के   सभी  हिंदी   प्रेमियों   को 'हिंदी दिवस'  की बहुत-बहुत मंगलकामनाएँ
* निज भाषा के गीत गाएँगे *
अमृत की धारा बहकर जिसने,
हिंद को अमर बनाया है,
हिंदी है वह सपूत हम इसके,
निज भाषा के गीत नित गाएँगे।

भारत भू के पावन अधरों पर,
खिलें हिंदी के अमर सुमन,
सुगंधित करती रही - रहेगी,
हँस-हँसकर देखेगा यह चमन,
ऐसे है इसके पुष्प यहाँ,
जो कभी न मुरझाएँगे।

अमीर, चंद और विद्यापति,
हिंदी को देते थे हरपल गति,
कबीर, सूर हो या तुलसीदास,
हिंदी को दे रहे थे निश-दिन उजास,
आदि-भक्ति का अलख  जो जगाया,
वह अलख नित जगाएँगे।

रीतिकाल बहाएँ था परिवर्तन के पवन ,
केशव, पद्माकर थे जैसे कवि भूषण,
मील के पत्थर बनें भारतेंदु -प्रेमचंद  
मानी देकर खिलाएँ कितनों ने अनुबंध,
राष्ट्र की आन-बान-शान है हिंदी ,
संजोए रखने को हर साँस लुटाएँगे।

सभ्यता, संस्कृति और मानवता,
भारत-भारती की जो है संभालें,
समता, एकता, बंधुता औ’ राष्ट्रीयता,
हिंदी है वह जिसने भरे ये रंग निराले,
लाख करें कोशिश मिटाने की इसे,
थाल इसकी अपने भाल से सजाएँगे।
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नवकवि
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
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०५  सितंबर २०१८ 

मेरे आदरणीय, वंदनीय, श्रद्धेय, मार्गदर्शक, प्रेरणास्त्रोत, पथप्रदर्शक गुरुजनों को शिक्षक दिवस की बहुत-बहुत मंगलकामनाएँ  
मेरी यह रचना मेरे सभी आदरणीय गुरुजनों को
समर्पित है !!!  
*तलाश उस परछाई की...*
गुरूजी कल फिर मैंने एक मनभावन सपना देखा
मुरझाएँ फूल को हँसते-हँसाते आपका चेहरा ही देखा।

पल्लू को कसके पकड़े, पिता की उंगली थामें,
था बैठा मैं, न डर था न किसी से नफरत थी हमें,
उम्र ने दी दस्तक, चल पाठशाला के आँगन में,
लिए हाथ कोरी पाटी और विश्वास भरे मन में,
न चाहते हुए भी पाटी पर शब्दों को उभरें देखा।

आपको फिर बच्चा बनाए आपसे गीत सुनवाएँ,
बचपने के आँगन में, दोस्तों के साथ गीत गाए,
उसकी पाटी, मेरी पेन्सिल, प्यारे झगड़े हमें भाए,
मन में गुस्सा पल का, अगले पल फिर गले मिल जाए,
हमारे गुस्से-प्यार में आपका मन-मुस्काता चेहरा देखा।

ना समझ से समझदार बाबू हम बन गए,
हमारी शरारतें भी अपनी आदत मानकर सह गए,
दिखाई जो श्रद्धा हमपर आप आगे चल दिए,
मुड़कर न देखना कहकर, हमें आगे बढ़ाते जो गए,
गुरूजी उन हाथों को और प्यार को सख्त होते जो देखा।

गिरकर उठना, उठकर चलना, आपने ही सिखाया,
भटके हुए थे कभी बचपने में, सही रास्ता भी दिखाया,
अहंकार ने जब भी छुआ, नम्रता का पाठ भी पढ़ाया,
खोए कभी उम्मीद अपनी, रोशनदान बन सबेरा उगाया,
यौवन की बेला पर हमें संभालते हुए फिर से आपको देखा।

गुरूजी, आज वह परछाई फिर से ढूंढ रहा हूँ,
शायद जिंदगी की तलाश में अपने तन की,
खोखली उम्मीदों के बीच खोई रूह ढूँढ रहा हूँ,
जो कभी बचपने से यौवन तक आपने सँभाली थी,
उसे आपकी परछाई के तले सुमनों-सा बिछता हुआ देखा।
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नवकवि
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
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जीवन खिलाडी 
जीवन के पतझड़ सावन में ,
जीने का राज़ मैंने है जाना,
सुख -दुःख तो स्व की पहचान,
इन्हें बस विश्वास से है आजमाना ।

क्यों खिलती हैं कलियाँ,
और सुगंधित करती पवन को,
शायद उनकी नींव में ही है खिलना,
न खिलती तो समय से पहले है मर जाना ।

पंछियों की चहक से गूँजे है उपवन,
क्या बंद कर पाएगा उनकी बोली,
यह शीत, घाम, मेघऔर यह पवन,
सँवरती जिंदगी इनसे इनके रंगों को है जाना। 

कल-कल नदियाँ, झरने है बहते,
पत्थर, पेड़, मानव देख स्वार्थ बाँधते,
क्या वे कभी खुद को   रोक पाए हैं,
बस! आगे बढ़ते रहने की रीत को जाना। 

जीवन-मृत्यु हर एक का अंतिम सत्य है,
कुछ संतोषीय कर जाने का खेल है,
करता  रहूँ इनसे हरपल खिलवाड़,
खिलाड़ी बनकर बस  खेलते हैं जाना। 
(२२  जुलाई  २०१८ )
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नवकवि
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
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शब्द गान
शब्दों की बातें मैं क्या कहूँ,
जिससे बहते प्रीत और लहूँ !

संसार शब्द, शब्दों का संसार,
मानवता की जिसमें गंध अपार,
सबके मन में विश्वास भरूँ,
शब्दों की बातें मैं क्या कहूँ! 

मोहपाश तोड़े, दिलों को जोड़े,
चाहे हो मन में विषाद खड़े,
जीवन तम शब्दों से दूर करूँ,
शब्दों की बातें मैं क्या कहूँ!

शब्दों में मिठास, बने है गीत,
गीत एकता के गाते है मीत,
मीठे वचन सर माथे सजाऊँ,
शब्दों की बातें मैं क्या कहूँ!

शब्दों के पौधे जिस आँगन में,
खिले है फूल तन के चमन में, 
जीवन रंग इन फूलों से भर दूँ ,
शब्दों की बातें मैं क्या कहूँ!

यारों शब्दों के घाव बड़े,
जख्म न मिटते हो साथ ईश खड़े,
शब्द अधिकार से जीवन सँभालू,
शब्दों को अब धड़कन बनाऊँ, 

शब्दों की बातें मैं क्या कहूँ,
जिससे बहती प्रीत और लहूँ !
(११ अगस्त  २०१८) 
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नवकवि
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
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क्योंकि वो है तू
धर्म-मजहब,
जिस मिटटी के बने,
उस मिटटी को कर दे खारा तू,
बन जा इंसानियत का सहारा तू ,
ऐसी मानवता का,
पनपनहारा है तू।

टोपी-पगड़ी,
खून गिरता एक-सा पोशाक पर,
जो चढ़ाए सुलीपर,
उतार ऐसी पोशाक तू,
शील, विनय, स्नेह का,
कफ़न पहन चल तू,
पोशाक बदलनेवालों के लिए,
एकता का पोशाकी है तू। 

गीता-कुरान,
वचन-आयते भलाई चाहे सबकी,
जो बने हैं व्यापारी इनके,
आज बाजार बंद कर दे तू,
साँस बन घंटानाद का,
अजान के साँस में गूंज तू,
गीता औ' कुरान के शब्द पवित्र हैं,
इनका रखवाला भी है तू।

मंदिर-मस्जिद,
वो ना रहे जहाँ,
कभी गुहार और पुकार थी,
षडयंत्र स्थली बनी है,
जहाँ में आतंक फैलाती,
इंसानियत मरती जहाँ,
ऐसी दीवार मिटा दे तू, 
गुहार वो पुकार सुनने वाला,
राम और रहीम भी है तू।  

क्योंकि, हे बंदे,
ईश्वर भी तू ,
और खुदा भी तू,
इस प्रकृति की सुंदर,
राम-रहीम के मानवता की, 
कभी न मिटने वाली अंतर्चेतना भी है तू। 
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
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मुस्कराहट की वेदना
आज मुस्काराहट के पीछे के व्यंग को,
लोगों ने पहचानना सीख लिया है,
शायद दूसरों की मुस्कराहट देखकर,
उन्होंने एक बार मुस्करा तो दिया है,
परंतु औरों की देखादेखी में,
अपनी मुस्कराहट शायद ही बची है,
क्योंकि अपनी मुस्कराहट पर भी,
शायद अब शक होने लगा है।

मुस्काराना छोड़ औरों के,
मुस्कराने की वजह के पीछे लगे हैं,
शायद वे भूले हैं,
अपनी मुस्कराहट भी कुछ ऐसी ही है,
जाना था शायद जड़ तक मुस्कराहट के,
पर भूल हुई के खुद पीछे निशब्द,
अनगिनत शकहारी वजह लेकर आए हैं।

इस भागम-भाग में,
क्या वह बचपना मुस्कान फिर मिलेगी?
क्या अपनी मुस्कराहट के पीछे छिपी,
शकी मुस्कराहट मिटेगी?
सोचता हूँ हे परवर दिगार,
अब सुनो मेरी इक और गुहार,
नजर ऐसी देना सबको,
कि सिर्फ मुस्कान ही दिखे हर एक को,
वर्णा तीखी मुस्कराहट के व्यंग तीखे,
न चाहकर भी खुशियों भरी जिंदगी,
कौड़ी के भाव सरेआम न बीके।
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नवकवि
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
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पानी का निस्वर स्वर
मानव तुम्हें कभी समझ न पाया,
पल-पल तुम्हें बरबाद करता चला गया,
तुमने भी फिर खुद बहना ही छोड़ दिया,
फिर सूखी नदियाँ, सूखे तालाब,
और सूखे है मन के अधखिले ख्वाब।

पहाडी झील से नीचे उतरना,
कर्ण मधुर कल-कल संगीत सुनाना,
आज वही पहाडी और झील का ताज,
रो रहा निस्वर और खामोश है रूदन,
मानव के पापी करम छीने है उनके स्पंदन।

नदी जहाँ करती थी सभी को पवित्र,
आज गुहारती, करें पवित्र मेरा जलपात्र,
दम घूँट रहा है उसका और प्यासी बनी वो,
जो कभी औरों की थी प्यास बुझाती,
कैसे खुद की प्यास बुझाए या खुद बचती।

हे पानी, तू बिल्कुल सही कर रहा है,
बहना छोड़ आसमान में बस रहा है,
एक दिन आएगा जब मानव पछताएगा,
उस दिन लेना सारा हिसाब-किताब,
सजा देना उसको, ऐसे देखे न गलत ख्वाब।

पेड़ बचेंगे दोस्त, तू भी बचेगा,
सबकी साँस खिलेगी, मन मयूरा नाचेगा,
धरा पर झरना फूटेगा, झूमेगी वनराई,
प्यासा न रहे आँगन और न सुनी आँखे भी,

जलमय धरती होंगी, न रहेगी कोई प्यास भी ।


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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 
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मानवता की गुहार
हे आसमां में रहनेवाले,
तेरे खेल के रंग हैं निराले,
राम-रहीम जब एक बनें हैं,
फिर मानव मन क्यों द्वेष बुने हैं?

खून हैं खोले धर्म जहर से,
कैसे बचे बोलो आप मरण से,
मौत ही मिलनी थी, प्यारे-सहारे,
जीवन ही देकर क्यों पाले हैं अंगारें ?

धर्म-उधम मचे हैं चारों दिशाएँ,
कैसे देखूँ मैं सुख की शिखाएँ,
जिस राह चलूँ बरसे अंगारे,
जीवन मँझधार डोले बिना सहारे ।

जाती-धरम की जब चलें हवाएँ,
मंदिर-मस्जिद भी आँसूं हैं बहाएँ,
मानव के कर्म से आहत दीवारें,
जिए तो बोलो जिए किसके सहारे ?

मिटें बैर अब ऐसे धरम का,
धर्म एक ही बनें नेक करम का,
सब इंसानियत के पूजक ही बनें,
मानवता के रंग से धरा अब रंगें।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 
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प्यार की होली
खाली जिसकी प्यार की झोली, 
कैसे मनाएँ वे होली और दीवाली ? 
प्यार भाव जब पनपेगा दिल में, 
आए दिन मनाओ सुख की दीवाली। 

अपने संगी साथी छूटते, 
ताना देते बात से कटते, 
अब कैसे बने बात अनहोनी, 
जीवन बनता उलझी पहेली।  

बैरी आपके साथ है चलते, 
मन में फिर कैसे द्वेष है पलते? 
प्यार से सबको मीत बनाओ, 
पाले न द्वेष मन हो जाए खाली। 

प्यार न जिसमें वो मानव मन, 
कैसे पार हो उसका जीवन ? 
बनके अकेला फैलाएँ झोली, 
कहते तुमने मति क्यों न संभाली? 

हो प्यार मन आस भली, 
जीवन भर करें रखवाली, 
देते-पाते प्यार सभी से, 
अब आए दिन मनाएँ दीवाली. 
प्रेम का धागा और ही कच्चा, 
साथ निभाओ बनके सच्चा, 
टूटेगा धागा प्यार का एक दिन, 
फिर सुलगेगी जीवन की होली, 

प्यार को जानो समझो प्यारे, 
जहर में भी अमृत पसारे, 
क्लेश, द्वेष मिटाता भरम का, 
प्यार है आसमाँ-सी मिश्री की थाली। 

तन मिटता पर प्यार न मिटता, 
मिटने पर भी जीना सिखलाता, 
प्यार करें पल-पल सबसे, 
बने अपनी प्रीत मतवाली। 
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
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मन गुढीपाड़वा
खुशियों का दिन आया,
नववर्ष त्यौहार सज-धज आया,
आँगन में रंगों के रंग निराले,
मन भरने गुढीपाड़वा आया। 

गुढ़ी अब परवान चढ़ी,
मन में नई उमंगें बढ़ी,
जीवन स्तंभ बने कर्म,
गुढीपाड़वा गुनगुनाते आया। 

मन का कटु नीम मिटे,
प्रेम गुड़ से प्यार जुटे,
रिश्तों की माला बुने आज,
प्रेम-स्नेह का बंध ले आया। 

आस्था, विश्वास, प्रेम से,
नववर्ष रंग भरने आया,
रवी समान प्रकाशित हो जीवन,
पावनपर्व की कामनाएँ ले आया। 

सफलता के दीप उजाले से,
सुबह का दूत भी शरमाए,
दस-दिशाओं में फहरे पताका,
कामना ऐसी गुढीपाड़वा ले आया।  
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
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हमराही वक्त
 जीवन राह पर चल पड़ा मैं,
अलमस्त बन मुसाफिर मैं अकेला,
ऐ समय तुझपर सिर्फ अब है भरोसा,
बिगड़ी बनी तेरे संग, जीवन होश सँभाला।

मेहनत, लगन और स्नेह का अब,
जीवनयापन का नियम मैंने पाला,
करें मिली अपने - गैरों से बारंबार,
दर्द को भी हर पल, खुशी मानकर झेला।

नीत नियती की बातें करता रहता,
जब हाथ पर न था भरोसा कैसे पेट भरता,
हाथ की मेहनत रंग लाईं और हटा पर्दा,
आँखों पर ऐसा भरम का, जो मैंने था पाला।

देख आलस, फरेब या हो मक्कारी,
कितनों ने शर्म बेचकर अपनायी लाचारी,
ऐ वक्त इनसे मुझे दूर ही रखना हमेशा,
बचे इनसे मन, बने न विष का प्याला।

बड़े सपने देखें पर सपने ही रह गए,
मृगमरीचिका से सपने वे करीब ना हो पाए,
ऐ वक्त तुने जगाया देखूँ बंद आँख सपने,
खुली आँखें देखें सपने, पाया मैंने उजाला।

तोड़कर मोह के पाश मुक्त होना चाहा,
व्यर्थ ना हो जीवन मेरा कुछ करना चाहा,
ऐ वक्त सिर्फ माँगता हूँ देना बल इतना,
विपदा को हर पाऊँ, ऐसा सजे हर सपना।

जीना मेरा सिर्फ जीना कभी न बने,
मेरे हाथ से बस अच्छे कर्म ही चुने,
मिटे मेरा जीवन बस औरों के लिए बने,
बनूँ अँधेरे का रोशनदान, फैलाऊँ उजाला।

ऐ वक्त डरता हूँ रिश्तों की डोर न कटें,
मेरे हाथ से अच्छे कर्म की तश्तरी ना टूटे,
भर देना हर खूशी मेरे सभी अपनों को,
आँखों देखूँ सब, बेवक्त कभी साँस न रूठे।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
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सत्कर्म संकल्प
नए वर्ष प्रारंभ में,
किए कईं नव संकल्प,
अगले दिन से उठी कयामत,
निकलते देखा उनमें कईं नव विकल्प।

सुबह जल्दी उठना,
रात को जल्दी सो जाना,
दिनभर के क्रिया कलाप के
देर रात तक करता रहा प्रकल्प।

समय पर खाना खाए,
स्वास्थ अच्छा बनाए,
जिम्मेदारीयों से फिर असफल,
बेवक्त हुआ विफल मेरा संकल्प।

माता-पिता की सेवा करूँ,
आप स्नेह से झोली भरूँ,
सुबह की जल्दी रात की देरी,
सेवा का भी असमय बिखर गया संकल्प।

बीवी बच्चों के साथ रहूँ
दो मीठी बातें चार करूँ,
उपजिविका के घेरे में,
फोल हो गए प्यारे संकल्प।

देखे विफल होते सभी संकल्प,
अंतिम बार ले लिया संकल्प,
खुद के लिए भी जी ले पर,
वे भी बने पराये मैं बना अकल्प।

बात समज आई करो न संकल्प,
समय के साथ चलें बनें हम सफल,
कोई ताना नहीं संकल्प असफल,
यही मैंने चुन लिया संकल्प का कल्प।

जीवन सार्थ हो जाएगा एक दिन,
सत्कर्म धारा ही बनें मन संकल्प,
मनचाहा सब मिलेगा अपने-आप,
फिर न होगा विकल्प ऐसा करें संकल्प। 

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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
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प्राणसखी के जीवन रंग 
रंग छिड़क दूँ प्रीत का,
प्रीत रंग लागे सुहावन,
जीवन में रंग भर दूँ प्रिये,
रहे आजीवन सुहागन।

मीटे प्रीत-रंग से दूरी,
भर ले साँस सुगंध सिंदुरी,
साँस में प्रीत रह खिले अंग-अंग,
साँस रंग खिले प्रिये तुज संग।

पीहर के सुहाने प्यारे रंग,
हुए मुझ कारन निरंग,
माफ करना प्रिये मुझे,
प्राणार्पन से बुनूँ वे फिर तरंग।

ना महल दे पाया तुझे,
मेरी कुटी को महल बनाया,
रंग भरे स्नेह औ' ममता से,
जैसा-वैसा मुझे अपनाया।

एक अर्ज है प्राण प्रिये,
यूँ ही जीवन रंग ले भरना,
कभी आए रास्ते शूल,
प्रीत गुलदस्ते का बनाओ उसे फूल।

नसीब कहूँ या प्रारब्ध,
जीवन में तुम खूश रंग के साए,
सखी-सजनी कारण आपके,
परिवार में इंद्रधनुष बहार लाए।

खो न जाए जीवन रंग प्रीत,
चलो मिलकर गाए जीवन संगीत,
रंग और रंगीन हो जाए जिंदगी,
बरसे नीत बसंत रंग नवनीत।

कृतज्ञता कैसे व्यक्त करूँ,
बताओ मेरे मनमीत,
क्या मुझे ही बनाओगी,
सप्तजन्मों का अपना गीत। 

***
छाया आपके प्रति कुछ कृतज्ञता शब्द हैं। 
स्वीकार हो।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
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सभ्यता की पगडंडी
पक्की सड़क को देख-देख के
मानव चल पड़ा पगडंडी को भूल,
वो भी कितना 
है भुलक्कड,
पगडंडी राह पर चलते उसने,
कितने खिलाएँ काटों के भी शूल,
पर भूला है वह सब और पगडंडी भी,
शायद सड़क की तरह,
काला बना हो उसका मन भी।

सड़क काली होकर भी राह है दिखाती,
इन्हीं सड़को पर आज,
दिखती विरासत है सरेआम बिकती,
शूल से भी फूल है खिलते,
संस्कृति की पगडंडी है कहती,
मत भूल उस पगडंडी को,
जो जीवन संस्कार सबके बुनती।

भूलेगा जिस दिन इस पगडंडी को,
खुशियाँ न होंगी न होंगी कोई सौगात,
पल- पल मिट जाएगा होगा बरबाद,
अभी देर कहाँ हुई है,
बात सुन मानव प्यारे,
चल फिर मिटी पगडंडी को संवर कर,
देगी  दुआएँ भारतभूमि झोली भर-भरकर।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
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मन की संवेदनाहीनता
दुनिया की खो रही मानवता देख,
खुद को उनकी गर्दिश में,
संवेदनाहीन पाया ।

हाथ में कटोरा,
कपड़े की चिथड़न ओढ़े,
एक रोटी गुहार की उसने,
चेहरे भाव मिलेगा कुछ-न-कुछ, पर
मैं खुद की रोटी की तलीश में,
दानत्व भाव को संवेदनाहीन पाया ।

राह दो राह रोटी पाने,
आया लोगों की भीड़ में,
टकराव तो होना ही था,
किसी को लाठी मिली तो,
सह रहा था कोई गाली,
ना कर पाया बोझ हलका उनका,
खुद दर्द न बाँट पा सका,
जैसे अपने हाथ को मैंने संवेदनाहीन पाया ।

अब दफ्तर हो या घर,
हो रहा बँटवारा पहर-दोपहर,
कैसे सँवारे जिंदगी आप -अपनों की,
चाहता यह दरार मिटे, पर
मन की दरारों को मिटाने,
अपने - आप को अपाहिज बना हुआ पाया ।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
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खामोश रिश्तों की उम्मीदें
सपने क्यों सजाता है कोई बताए सरकार,
खामोशी के दिन कभी हुए न साकार,
सपना खामोशी की तरह निशब्द रह गया,
बेजुबान होकर बहुत कुछ कह गया,
आज मिलेंगे स्वर निशब्द लब्ज को,
खामोशी में उम्मीदें झप्पी दे गया कोई। 

क्यों हृद पीर ने किया न सोच विचार,
सोच-से आज मन मचलता बार-बार,
जिंदगी तो बस गुजर रही है खामोशी में,
जिंदगी जीने की चाह के तलाश में,
जी सकेंगे उन हसीन बीते पलों की याद में ,
निशब्द लब्जों को स्वर दे गया कोई। 

पता नहीं खामोशी को सूर मिलेंगे या नहीं,
हृदय पीर मिटेगी या छूटेगी साँस डोर सारी,
आस है आँख में ईश्वर मिटे न मिटे हृदय पीर,
दूरी रिश्तों की मीटे भले सुखे आँख नीर,
तलाश है अब रिश्तों की साँस बनें थे कभी,
साँस में जान फँक दे गया कोई। 

स्वीकार लो हमारा स्नेह और अपनापन,
मन ना करें छोटा दिखाओ बड़प्पन,
रिश्तें कुछ नहीं माँगा करते चाहते अपनापन,
अपनापन मिलें तो जिंदगी फिर बसेगी,
जीवन अरमान के चमन में कलियाँ खिलेगी,
रिश्तें औ' जीवन में अमृत घोल गया कोई।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
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🌹होली के सप्तरंग 🌹

खुशी के इंद्रधनुष के,
सप्तरंग ले आईं होली,
बसंत में भी रंगारंग,
सजे मनरंग दिवाली। 

रंग जामुनी सपने सजे,
खिले तन-मन कली,
रंग लै केसरिया मनभावन,
उँडेल दे मन की गली। 

शालिनता लाए रंग नारंगी,
प्यार भर-भर लाए झोली,
पीले के हैं रूप निराले,
मधुर आम-सी मधुरता लाई। 

समृद्धि का प्रतिक रंग हरा,
जीवन में फैले नीत हरियाली,
धीरता-वीरता लाए नील रंग,
बुने सबसे प्रीत निराली।

सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य की,
बैंगनी दे रहा मीठी-मीठी गोली.
भारत भू की धरा में,
खिली आज परंपरा की कली। 
इंद्रधनुष के सप्तरंग से,
बने सब पावन जले ऐसी होली। 
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
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हिंदीमय विश्व हमारा
 विश्व का राग-अनुराग हैं हिंदी,
प्रकृति के कण-कण में जो है विराजीत,
करते है प्रणाम ऐसी अनुरागिनी हिंदी को,
जो बनाती है हर किसी को अपना मनमीत।

माँ संस्कृत की गोद में पली,
सिंधु-गंगा के लहरों पर ली अंगड़ाई,
पावन जल की ही भांति है इसका मन,
आए सभी गोद में देती रहती एक-सी प्रीत।

सदी-दर-सदी करती सबको सम्मानित,
पाकर प्यार ऐसा आज बने हम इसके मीत,
बहुत दिया इसने अब हमें देने की है कुछ बात,
विश्व स्वयं गा रहा है हिंदी के गौरव-गरिमा गीत। 

साहित्य हो या दर्शन हो गीत-संगीत,
भाव हो या बोली-भाषा के गुण,
प्रकृति गाने लगी है इसकी मधुर धून,
माँ हिंदी के रंग निराले बने है जीवन गीत।

आओ भारत-भारती के सपूतों उठो,
इसे बनाए विश्व की सबकी दुलारी,
सबके दिलों में राज करें यह प्यारी,
भले ही हो जाए ईश्वर भी हमसे विपरीत।

हर भाषा के सिर-आँखों पर है हिंदी,
हर भाषा के माथे पर सजी हैं हिंदी की बिंदी,
जीव-जगत हो गंगा की धार हो सजी है प्यार से,
मिटाती मैल मन का सबके लगाती अनूठी प्रीत।

करते है प्रणाम ऐसी अनुरागिनी हिंदी को,
जो बनाती है हर किसी को अपना मनमीत। 
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
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सच्चाई के रंग झूठ के संग 


झूठ कभी सच की राह नहीं चलता,
सच कभी झूठ का सहारा नहीं प्यारे,
यह तो समय के फेर का खेल है ,
झूठ मिटते ही सच फूल खिले बहारें। 

आफत में कभी झूठ न अपनाना है,
फिर भी दाँव पर है सच और ईमान,
बच जाए किसी की जिंदगी झूठ से, 
एक झूठ सौ खून माफ़ एक ही दुकान । 

झूठे नक़ाबि रिश्तें चेहरे न रंग खिलते,
यदि बिखेर रही हो मानव की मानवता,
बच जाए इंसानियत झूठ से भी तो,
कड़वा झूठ भी अमृत पान इंसान अपनाता।  

आखिर सच तो सच होता है,
संतों-महंतों ने मनुष्य को दी सीख,
झूठ का रास्ता तो ले डुबेगा एक दिन,
छोड़कर सच-झूठ इंसानी इतिहास दे लिख । 

झूठ भी एक कड़वा होता है सच , 
यदि सच की बुनियाद पर जब भी खड़ा ,
सच भी कभी-कभी झूठ लगता है,
जब वह स्वांत सुखाय ले चल उड़ा। 
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
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प्रभात समयी
कुहरा छू जाने से,
तरोताजगी जगने लगी,
सूरज की किरणों से,
ओंस भी खिलने लगी,
रोशनदान से सुबह की,
महक बिखरने लगी,
गंधित-सुगंधित मन को
मुस्कराते सुबह जगाने लगी।

सूरज की पहली किरण को,
देख कलियाँ मुस्कराई,
खिली-खिली वसुंधरा देख,
कोयल ने है प्रहरियाँ गाईं,
हो गई सुमधुर-पल्लवित,
प्रभात प्यार ले आई,
जीवन गीत-संगीत से महकाने,
जीवन गान प्रभाती आई।

शीत सुबह में बहता पवन,
देता रहा प्यार की पहचान,
लेकर आया साथ में,
नई सुबह का मेहमान,
सूरज चाचू ने आते ही,
स्वीकार किया सबका प्रणाम,
दिए सौ-सौ आशिष सबको,
हो जीवन में खुशियों का नया विहान.

चिडियों ने आँगन में आ,
मचाया कितना शोर,
मीठी-मीठी बोली से,
बतिया रही हो गई है भोर,
निकालो रजाई देखो आँगन में,
सुबह ने  है खुशियाँ लाईं,
चीं-चीं चिडिया रानी,
करने स्वागत आपके लिए है आईं.

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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
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फुलवारी की पुकार 
काश ! यह स्कूल उपवन होता, 
बनते हम इसकी फुलवारी,
एक ही अर्ज है,
सुनो मन के बात अब हमारी।

बालवर्ग मिले दोस्त प्यारे,
ना थी कोई आपसी तकरार,
खेलते-कूदते बीत रहा था समय,
थी एक समय की गुहार,
चल आगे बढ़ प्यारे,
बहुत मिलेगा प्यार और कई फ़नकार
मुडकर ना देख पीछे,
देख आगे और जी ले दुनिया दुलारी,
सुन गुहार समय की,
बढ़ने को आगे हमने की तैयारी।

ककहरा से हुई शुरआत,
फिर आई गणित की बारी,
रटना, याद करना, फिर पाठ पढ़ना,
लगने लगा भारी,
बस्ते के बोझ से,
बचपने की भूल रही है हँसी सारी, क्या करें
ना पढ़ना और ना ही हँसाना,
हुई अनचाही ऐसी लाचारी,
सिसकने-मुरझाने लगी है गुरूजी,
बचपने की आज यह फुलवारी।

आज हमें बचपन जीने दो,
मन आप विचारों से उड़ने दो,
कमल से बनती हैं तितलियाँ,
आप ही आप में,
सीखना, खेलना और गाना चाहती है
आप ही आप में,
बनाना चाहती हैं तितलियाँ जैसा
चाहे आप ही आप में,
हाल बहुत बुरा हैं गुरूजी,
दिमाग अब बंद, नहीं मिलती हलकारी।

बोझ बने जब पढाई,
फिर कैसे न होगी मन ही मन लड़ाई,
कहते हैं बच्चे फूल होते हैं,
पर क्या हुआ आज यह बेहाल,
बचपन छीना गया हमसे,
कैसे उभरे हम समय के ताल,
फिर से बचपन जीना चाहते है,
सुनाती है यह सारी फुलवारी,
गुरूजी, उजड़ने से पहले फिर एक बार,
खिलना चाहती है बचपन यह फुलवारी।

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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
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एक  लकीर
अपना और पराया,
घर-घर की बात है,
इन्ही के बीच खींची,
अनचाही लकीर आज भी है।

पिता की प्यारी बिटिया,
माँ का लाडला बेटा,
अलगावता आज बच्चों में,
यही आज तकरार है.
कितनी ही बार कोशिश की,
समझाने की इन्हें,
मत करो भेद बेटा-बिटिया,
दोनों जीवन का आधार हैं।

बेटा कुछ भी करें,
ना कभी बनी बड़ी बात है,
बेटी के तरक्की विचार ही,
बने नए अपराध है,
कितनी ही बार दिखाई,
बेटी ने जीवन में वफ़ा,
फिर भी उसके प्रति,
न राग है ना अनुराग है।

दीप जलाएगा बेटा,
बेटी तो पराया धन है,
पढ़े-लिखों के बीच,
आज भी अनबन है ,
बेटी ही होती है,
दो परिवार की नियामत है,
कब समझेगी दुनिया,
सामने बेटी के शूल भी,
बनते फूल है।

समझो इस बात को समाजियों,
बेटा-बेटी सामान है,
बेटे के साथ बिटिया सम्मान है,
तो आपकी पहचान है,
बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ,
आज इस लकीर की पुकार है,
मिटा दे ऐसी लकीर,
यही जीवन का मूलाधार है।
*********
रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
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ऐसा है मेरा भारत देश
हिमालय है मुकुट इसका,
गंगा, यमुना, गोदा, कृष्णा,
मिटा रही है इसकी तृष्णा,
नहीं कोई दोष है अच्छा परिवेश,
ऐसा है मेरा भारत देश।

हजारों तपों की परंपरा इसे,
अपनाना चाहते देश-विदेश इसे,
मन में भरें सभी राग-अनुराग है,
प्यार से भरा है दिलकोश,
ऐसा है मेरा भारत देश।

एकता का है न्योता सबको यहाँ,
बंधुता का नाता हर एक से यहाँ,
धर्मनिरपेक्षता की है आस इसे,
नहीं है किसी के मन में द्वेष,
ऐसा है मेरा भारत देश।

आओ, चलो बनाए एक बसेरा,
हँसे-गाएँ, झूमें-नाचे, हो नया एक सवेरा,
सूरज खिलेगा भारत भूमि पर,
लेकर मन में प्यार का संदेश,
ऐसा है मेरा प्यारा भारत देश।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 
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शान तिरंगे की
आओ मिलकर साथ चले,
हमें आगे बढ़ जाना हैं,
शान अपने तिरंगे की,
 सारे जहाँ में बढ़ानी है।

खेत-खलिहान, बाग़-बगीचे,
सबकी जान बचानी है,
पर्वत हो या नदी की धारा,
 सबको अबाधित रखनी है।

जात-पात, धर्म बहुत,
सबमें इक जान फुँकनी हैं,
हम भारतवासी सब एक हैं,
आवाज जहाँ में गुँजानी है।

देश एक, भेष अनेक,
भाषाएँ भी है बहुत पर,
भरें प्यार नस-नस में 'हिंदी',
प्रीत इससे करनी हैं ।

किसान हो या जवान,
दानत्व भाव दोनों भी रखते हैं,
छात्र  हो या अध्यापक
पीढ़ी की सीढ़ी बढ़ानी हैं।

या सम सबकुछ है,
वसुंधरा पर इस देश में,
समय जान हथेली सर रखकर,
देश की लाज बचानी है।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 
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चोरियाँ होने लगी
आजकल समाज में समाजियों की,
चोरियाँ होने लगी है।
क्या करूँकिसे कहूँ ?
कहाँ जाऊँ ? कोई कुछ सूझता नहीं,
पुलिस के पास जाऊँ,
तो अपना ईमान चोरियाँ होने लगी हैं 

किसान जाए बाजार में,
निश्चित भाव का नियम नहीं,
जान बचाएँ या मर जाएँ,
साँस की ही चोरियाँ होने लगी है 

आज ज़माना बदल रहा है,
मालिक काम पर,
नौकर का कुछ पता नहीं,
मालिक के विश्वास की,
तिजोरी साफ़ है,
इंसानियत की चोरियाँ होने लगी है।

देश बचाओ अपना देशवालों,
पैसा कहाँ है देश का,
किसी को कुछ पता नहीं,
दरोगानेता,
समाजसेवियों के हाथ काले,
गरीब की रोटी की चोरियाँ होने लगी है।

देखो सच्चाई को परखो,
कलियुग  गया,
अपना-पराया के कुछ पता नहीं,
स्वभाव से व्यवहार में,
लायी ईमानदारी,
तो भलाई की की चोरियाँ होने लगी है।

इंसानियत को ही बेच गए सभी,
सभ्यता की कुछ डोर नहीं,
कैसे जिए कैसे मरे,
आज तो मौत की भी चोरियाँ होने लगी है।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 
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पथहीन की संवेदना
बेईमानी छोड़ सच्चाई के राह चला,
बना खुदगर्ज के जीवन पथ भूल चला,
अब राह नहीं न कोई अभिलाषा रखता भला ,
बस जिंदगी के तलाश में जिंदगी खोता चला।

कितना अच्छा था बसेरा मेरा,
होता रहता हर दिन एक सवेरा,
सवेरे को देख उम्मीद से जीता मैं चला ,
रात की गोद में बस तनहाई पाता चला।

पाता था माँता -पिता के आँचल छाँव,
बिन छाँव हो रहे मन पर घाव-ही-घाव,
जिंदा माता-पिता के मैं अनाथ होता चला ,
पाया दाग खुद ने अब बर्बादी ही पाता चला।

मनहूस दिन मैंने चाहत बड़ी जतायी,
बेबस माता-पिता ने असहायता बतायी,
आव देखा न ताव किसी की न सुनता चला,
समय कैसे वापस लाऊँ जो बर्बाद हो चला ।

आज फिर बसेरा और सवेरा चाहता हूँ,
फिर से अब नई जिंदगी चाहता हूँ, पर
माफ़ी हो ईश्वर, अपनों को बेगाने बनाता चला,  

मिटे भूतकाल ऐसे भविष्य की दुआँ मांगता चला।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
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संपर्क सूत्र  ; 9730491952 / 9545840063 
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आत्मीय भरम 
नकाब ओढ़े चेहरे से
देता खुश होने की तसल्ली
तो मेरी रूह काँप उठती हैं और,
सवाल मन को पूछ बैठती है।
क्या बेचिराग है खुशियों का वतन,
और जल उठा है सपनों का बदन?

जवाब भी क्या दे पाता मैं,
जहाँ समय के घेरे में,
जलकर राख है आशाएँ,
और पथहीन हुई दिशाएँ,
फिर किस राह के पथिक बने,
जिस क्षितिज नये विधान बुनें।
आह ! सपना भी सवाल पूछता अब,
क्या आँखे खो दी हैं सपने देख-देख ?

आखिर सुनकर जवाब उम्मीद का,
मिट गया रूह औ' सपने का भरम।
ना ही खुशियाँ है राख बनीं,
और ना ही आँखों के सपने है टूटे।
एक बात बता ये रूह और सपने,
अपने ही लोग रास्ते काँटे बोए,
और चिराग बनी पगडंडियाँ भी मिटायें,
फिर कैसे किसी को आपने देखें हैं सोए।

तो बता दो इस मेरे पागल मन को,
कैसे न ढकूँ झूठे नकाब से अपने तन को।
रूह और सपने सुन अब बात मेरी,
बिना ये नकाब पहने स्वीकार ही नहीं
अस्मिता और अस्तित्व की पहचान हो मेरी।
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
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इंसानियत का बसंत

इन्सान खो रहा है मानवता,
और खो रहा मानव संवेदना,
फिर कैसे हो ख़ुशी की सुबह
जहाँ रात भी हो दिन तह-ब-तह
एकता से कब पनपेगी मानवता
और खिले यहाँ इंसानियत का बसंत।

जाती, मजहब और धरम,
बन रहे हरदम हथियार,
मिट रहे मानव भलाई के करम
मानवता के पुजारी बन रहे लाचार,
बने एक रहे नेक चलो लाए विचार ,
आओ मिलकर करें कुरीति का अंत।

सड़क पर इंसान है खड़ा,
खोल पहने है भेड़िए-सा अड़ा,
पता नहीं किस दाँव वार करें,
जैसे शिकारी शिकार पर टूट पड़े,
आओ भेद खोले बने सब पावन
चुने इन्सानियत डगर हो सुपंत।

अब घुटन है खुली हवा में,
बदबू है अंधाधुंध राजनिती की,
स्वार्थ, कर्महीनता, असत्य और लूट का, 
खुले आम हो रहा है व्यापार इनका,
मिटा दे समूल अस्तित्व इन सबका,
हे ईश,बनाओ सभी को मानवता का महंत।
एकता से कब पनपेगी मानवता
और खिले यहाँ इंसानियत का बसंत। 
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रचनाकार 
 मच्छिंद्र भिसे (उपशिक्षक)
सदस्य, हिंदी अध्यापक मंडल सातारा
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा 415  515  (महाराष्ट्र )
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प्रकाशनार्थ 
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                       सविनय निवेदन है कि मेरे द्वारा रचित कविताएँ एवं अन्य साहित्यिक रचना मेरी पूर्व सूचना सहमति के बिना किसी अन्य किसी ब्लॉग, वेबसाइड, तकनिकी माध्यम अथवा साहित्यिक पत्र - पत्रिका में प्रकाशित ना करें। इस प्रकार की गतिविधियाँ कानूनन अपराध है। कृपया प्रकाशन पूर्व सहमति लेना आवश्यक हैं। 
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