मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

हिंदीमय विश्व हमारा (कविता) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'

विश्व का राग-अनुराग हैं हिंदी,
प्रकृति के कण-कण में जो है विराजीत,
करते है प्रणाम ऐसी अनुरागिनी हिंदी को,
जो बनाती है हर किसी को अपना मनमीत।

माँ संस्कृत की गोद में पली,
सिंधु-गंगा के लहरों पर ली अंगड़ाई,
पावन जल की ही भांति है इसका मन,
आए सभी गोद में देती रहती एक-सी प्रीत।

सदी-दर-सदी करती सबको सम्मानित,
पाकर प्यार ऐसा आज बने हम इसके मीत,
बहुत दिया इसने अब हमें देने की है कुछ बात,
विश्व स्वयं गा रहा है हिंदी के गौरव-गरिमा गीत.

साहित्य हो या दर्शन हो गीत-संगीत,
भाव हो या बोली-भाषा के गुण,
प्रकृति गाने लगी है इसकी मधुर धून,
माँ हिंदी के रंग निराले बने है जीवन गीत।

आओ भारत-भारती के सपूतों उठो,
इसे बनाए विश्व की सबकी दुलारी,
सबके दिलों में राज करें यह प्यारी,
भले ही हो जाए ईश्वर भी हमसे विपरीत।

हर भाषा के सिर-आँखों पर है हिंदी,
हर भाषा के माथे पर सजी हैं हिंदी की बिंदी,
जीव-जगत हो गंगा की धार हो सजी है प्यार से,
मिटाती मैल मन का सबके लगाती अनूठी प्रीत।

करते है प्रणाम ऐसी अनुरागिनी हिंदी को,
जो बनाती है हर किसी को अपना मनमीत.
रचना 
नवकवि
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 

उपशिक्षक 
ज्ञानदीप इंग्लिश मेडियम स्कूल, पसरणी। 
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा ४१५ ५१५
चलित : ९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३
प्रकाशनार्थ 

सभ्यता की पगडंडी (कविता) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'

पक्की सड़क को देख-देख के
गया है मानव पगडंडी को भूल,
वो भी कितना भुलक्कड है,
जो इसी पगडंडी राह पर चलते उसने,
कितने खिलाएँ काटों के भी शूल,
आज भूला है वह सब और पगडंडी भी,
शायद सड़क की तरह,
काला बना हो उसका मन भी। 

सड़क तो काली होकर भी राह है दिखाती,
इन्हीं सड़को पर आज,
दिखती हैं विरासत है बिकती,
शूल से भी फूल है खिलते,
संस्कृति की पगडंडी है कहती,
मत भूल उस पगडंडी को,
जो जीवन संस्कार बतियाती। 

भूलेगा जिस दिन इस पगडंडी को,
खुशियाँ न होंगी न होंगी कोई सौगात,
पल- पल मिट जाएगा होगा बरबाद,
अभी देर कहाँ हुई है,
बात सुन मानव प्यारे,
चल फिर एक पगडंडी का निर्माण कर,
जीवन में फिर कई रंग निराले ले भर। 

रचना
नवकवि
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 

उपशिक्षक 
ज्ञानदीप इंग्लिश मेडियम स्कूल, पसरणी। 
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा ४१५ ५१५
चलित : ९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३
प्रकाशनार्थ 

सच्चाई के रंग झूठ के संग (कविता) - मच्छिंद्र बापू भिसे

सच्चाई के रंग झूठ के संग 
(कविता) 

झूठ कभी सच की राह नहीं चलता,
सच कभी झूठ का सहारा नहीं माँगता,
यह तो समय के फेर का खेल है प्यारे,
झूठ मिटते ही सच का फूल खिलता है। 

आफत में कभी झूठ न अपनाना है,
फिर भी दाँव पर है सच और ईमान,
बच जाए किसी की जिंदगी झूठ से, 
तो एक झूठ सौ खून माफ़ लगता है। 

झूठे नक़ाबि रिश्तें चेहरे न रंग खिलते,
यदि बिखेर रही हो मानव की मानवता,
बच जाए इंसानियत झूठ से भी तो,
कड़वा झूठ भी अमृत पान बन जाता हैं। 

आखिर सच तो सच होता है,
कही है संतों-महंतों की मनुष्य को,
झूठ का रास्ता तो ले डुबेगा एक दिन,
छोड़ सच-झूठ खेल जा इंसान बनता। 

झूठ भी एक कड़वा सच होता है, 
यदि सच की बुनियाद खड़ा होता है,
सच भी कभी-कभी झूठ लगता है,
जब वह स्वांत सुखाय बन जाता है। 

रचना
नवकवि
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 

उपशिक्षक 
ज्ञानदीप इंग्लिश मेडियम स्कूल, पसरणी। 
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा ४१५ ५१५
चलित : ९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३
प्रकाशनार्थ 

इंसानियत का बसंत

इंसानियत का बसंत

इन्सान खो रहा है मानवता,
और खो रहा मानव संवेदना,
फिर कैसे हो ख़ुशी की सुबह
जहाँ रात भी हो दिन तह-ब-तह
एकता से कब पनपेगी मानवता
और खिले यहाँ इंसानियत का बसंत।

जाती, मजहब और धरम,
बन रहे हरदम हथियार,
मिट रहे मानव भलाई के करम
मानवता के पुजारी बन रहे लाचार,
बने एक रहे नेक चलो लाए विचार ,
आओ मिलकर करें कुरीति का अंत।

सड़क पर इंसान है खड़ा,
खोल पहने है भेड़िए-सा अड़ा,
पता नहीं किस दाँव वार करें,
जैसे शिकारी शिकार पर टूट पड़े,
आओ भेद खोले बने सब पावन
चुने इन्सानियत डगर हो सुपंत।

अब घुटन है खुली हवा में,
बदबू है अंधाधुंध राजनिती की,
स्वार्थ, कर्महीनता, असत्य और लूट का, 
खुले आम हो रहा है व्यापार इनका,
मिटा दे समूल अस्तित्व इन सबका,
हे ईश,बनाओ सभी को मानवता का महंत।

एकता से कब पनपेगी मानवता
और खिले यहाँ इंसानियत का बसंत। 
रचना 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 
उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)  
9730491952 / 9545840063 
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आत्मीय भरम

नकाब ओढ़े चेहरे से
देता खुश होने की तसल्ली
तो मेरी रूह काँप उठती हैं और,
सवाल मन को पूछ बैठती है।
क्या बेचिराग है खुशियों का वतन,
और जल उठा है सपनों का बदन?

जवाब भी क्या दे पाता मैं,
जहाँ समय के घेरे में,
जलकर राख है आशाएँ,
और पथहीन हुई दिशाएँ,
फिर किस राह के पथिक बने,
जिस क्षितिज नये विधान बुनें।
आह ! सपना भी सवाल पूछता अब,
क्या आँखे खो दी हैं सपने देख-देख ?

आखिर सुनकर जवाब उम्मीद का,
मिट गया रूह औ' सपने का भरम।
ना ही खुशियाँ है राख बनीं,
और ना ही आँखों के सपने है टूटे।
एक बात बता ये रूह और सपने,
अपने ही लोग रास्ते काँटे बोए,
और चिराग बनी पगडंडियाँ भी मिटायें,
फिर कैसे किसी को आपने देखें हैं सोए।

तो बता दो इस मेरे पागल मन को,
कैसे न ढकूँ झूठे नकाब से अपने तन को।
रूह और सपने सुन अब बात मेरी,
बिना ये नकाब पहने स्वीकार ही नहीं
अस्मिता और अस्तित्व की पहचान हो मेरी।

रचना 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 
उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)  
9730491952 / 9545840063 
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पथहीन की आवाज (कविता) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'

पथहीन की आवाज 
(कविता)

बेईमानी छोड़ सच्चाई के राह चला,
बना खुदगर्ज के जीवन पथ भूल चला,
अब राह नहीं न कोई अभिलाषा रखता भला ,
बस जिंदगी के तलाश में जिंदगी खोता चला।

कितना अच्छा था बसेरा मेरा,
होता रहता हर दिन एक सवेरा,
सवेरे को देख उम्मीद से जीता मैं चला ,
रात की गोद में बस तनहाई पाता चला।

पाता था माँता -पिता के आँचल छाँव,
बिन छाँव हो रहे मन पर घाव-ही-घाव,
जिंदा माता-पिता के मैं अनाथ होता चला ,
पाया दाग खुद ने अब बर्बादी ही पाता चला।

मनहूस दिन मैंने चाहत बड़ी जतायी,
बेबस माता-पिता ने असहायता बतायी,
आव देखा न ताव किसी की न सुनता चला,
समय कैसे वापस लाऊँ जो बर्बाद हो चला ।

आज फिर बसेरा और सवेरा चाहता हूँ,
फिर से अब नई जिंदगी चाहता हूँ, पर
माफ़ी हो ईश्वर, अपनों को बेगाने बनाता चला,  
मिटे भूतकाल ऐसे भविष्य की दुआँ मांगता चला।

रचना 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 
उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)  
9730491952 / 9545840063 
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हाइकु - जीवन सच - बुढ़ापा

हाइकु - जीवन सच - बुढ़ापा

यौवन जाता
आया नया पड़ाव
बुढ़ापा गाता।
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उम्र है ढली
आ गई देखो अब
बुढ़ापा गली।
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बेटे सहारा
जीवन हो गुजारा
बुढ़ापा सारा। 
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बहु के हाथ
पकवान खुशबू
गज़ब बात।
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पोता औ पोती
दादा-दादी कहती
लोरी सुनती।
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पारिवारिक
जिम्मेदारी है बाँटी
बेटा औ बेटी।
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उम्र है बढ़ी
रिश्तों के बीच अब
दीवार खड़ी।
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बुढ़ापे आँसु 
माता-पिता के अर्ज 
निभाओ फर्ज। 
<<<<<>>>>>
बेटा वो बेटी 
बुढ़ापा दरवाजे
रूखी-सी रोटी।
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बुढ़ापा सहारा
माँगा बेटे का साथ
करें दो हाथ।
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बहु के हाथ
मीठा पकवान भी
देता न साथ।
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झुर्रियां बढ़ी
लोरियाँ हैं बेरंग
बच्चे न संग।
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चहरे रंग
देख हो गए सारे
सपने भंग।
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नाता टूटता
बुढ़ापे अपनों का
हाथ छूटता
<<<<<>>>>>
बुढ़ापे साथी
पत्नी ही है बनती
दिया की बाती।
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बुढ़ापा अब
सिर पर है चढ़ा
मैं एक खड़ा।
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जीवन संधी
करते कैसे फिर
रहा न नीर।
<<<<<>>>>>
मुख झुर्रियाँ
दिल में है कसक
रूठी पालक।
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तजुर्बा साथ
कितने ऋतुओं का
देता न साथ।
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ताने ही सुने
कब तक ये सहे
टूटे सपने।
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काल कोठरी
घर बना हमारा
ख़त्म सहारा।
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बढ़ी है खाँसी
बार-बार बुखार
हस्ती भी हँसी।
<<<<<>>>>>
दर्द से आह
मौत आखरी बने
दर्द बिछोह।
<<<<<>>>>>
रचना 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 
उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)  
9730491952 / 9545840063 
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हाइकु - प्रकृति प्रभात

प्रकृति प्रभात

संधी समय
आशाओं के दिए
ले रवी आए
>>>0<<<
रवी किरणें
सवेरे-सवेरे आए
जीव जगाने
>>>0<<<
वो सुकुमार
पूरब में गा रहा
सूर-मल्हार
>>>0<<<
करें नमन
ले अनोखे सपन
अर्पित मन
>>>0<<<
कली छिटकी
सुगंधित चमन
सर्वस्वार्पण
>>>0<<<
रचना 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 
उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)  
9730491952 / 9545840063 

हाइकु - मानव साँस -पेड़

हाइकु - मानव साँस -पेड़ 

नाचीज बीज
मिट्ठी में गढ़ जाता
पेड़ को सींच ।
-0-
ड़े गढ़ती
धरा में गहरी-सी
पेड़ बढाती।
-0-
सीने-सा तना
मजबूती बेजोड
बहरा पेड़।
-0-
डालें है खिली
रंग बिखरे नेक
मानव देख ।
-0-
साँस आखरी
खशबू बिखरें हैं
फूल बैरागी।
-0-
फूल से फल
नियति है नियम
बनें कायम ।
-0-
फल हैं खाए
जीव जगत सभी
पेड़ को भाए ।
-0- 
दानी स्वभाव
स्विकारें जीव मन
बनें पावन ।
-0-
सुखे हैं पेड़
उम्रभर दे दान
कर्म महान ।
-0-
चाह न छूटी
कटी टहनी खंड
जीती अखंड ।
-0-
ज्ञानी मानव
साँस लिए भटके
हम न कटे।
-0-
अर्ज हमारी
कहते पेड़ सभी
जीने दो अभी ।
-0-
पेड़ कटेंगे
मानव बस्ती वास्ते
आप मिटेंगे ।
-0-
परोपकार ही
जीवन प्रतिक्षण
पेड़ का मन।
रचना 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 
उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)  
9730491952 / 9545840063 

हाइकु - जीवन नदी

हाइकु - जीवन नदी

बहती नित,
कल-कल गुहार
नदी की धार।
*****
जीवन गीत
समझाती मानव
बनाओ मीत।
*****
आगे बढ़ना
संघर्ष गीत गए
कभी न रुके।
*****
बाधाओं को ले
आत्मनिर्भर बने
जीवन गहे।
*****
दो है किनारे
सुख-दुःख सपने
साथ चले।
*****
साथ चले
एक बनकर ले
सपने बुनें।
*****
लहरें उठे
कहर बरसाएँ
छिपते सायें।
*****
मांझी है देखे
नदी है मुस्काती
चले गा गाती।
*****
जीवन लक्ष्य
पाने के लिए चले
कभी न रुके।
*****
मिलेगा लक्ष्य
आत्मविश्वासी बने
बुनें सपने।
*****
रुकती गति
अस्तित्व मिट गया
ऐसी दुर्गति।
*****
पानी निर्मल
मन हो सभी जन
बनें पावन।
*****
गीत गाती वो
नदी मिले सागर
लक्ष्य पाने को।
*****
नदी जैसा हो
मानव में विश्वास
पाने को साँस।
*****
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 

उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)  
9730491952 / 9545840063 

अभिमत-हाइकु-संग्रह : सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य'

'चूँ-चूँ-चूँ' और 'ची-ची-ची'
रचनाकार : सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य'
        प्रकृति के नियमों के अनुसार आए दिन नए ज्ञान, रीतिरिवाज, परंपरा, जीवनयापन की रीतियाँ आदि स्वाभाविकता के साथ आत्मसात कर लेता है। परंतु इनका स्वीकार करते हुए बढ़ते उपभोक्तावाद में वही मानव जन दूसरे मनुष्य से परे हो रहा हैं। यह जानते हुए भी मनुष्य आज के समय में इस बात को अनदेखा करते हुए अपने पारिवारिक रिश्ते, जीवन शैली एवं संस्कृति, वास्तविक जीवन विधान और खुद को जीना भूल गया है। साहित्य इन्हीं बातों को शाब्दिक में प्रस्तुत होकर खो रहे मानव जीवन बचाने की कोशिश में हैं। चाहे उस साहित्य की कोई भी विधा क्यों न हो। इसी प्रकार के साहित्य में आज पाश्चात्य विधा 'हाइकु' जो मूलतः जापानी विधा है, हिंदी साहित्य में भी अपना अनूठा स्थान बनाए बैठी है। इसका सारा श्रेय उन सभी भारतीय सशक्त हाइकु रचनाकारों को जाता हैं। आज हिंदी साहित्य के क्षेत्र में बहुत-से हाइकुकार हैं, परंतु हायकु विधा के मूल संविधान के अनुसार प्रभावी हाइकु रचना करनेवाले गिने-चुने हाइकुकार हैं। इन सबमें आज के समय के जेष्ठ एवं सशक्त हाइकु कलम के सिद्धहस्त हैं - आदरणीय, वंदनीय, गुरुवर्य, हाइकु साहित्य श्रेष्ठी श्रीमान सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य ' जी। तक़रीबन आपके डेढ़ हजार तक हायकु रचना लेखन संपन्न हुआ हैं। अभिमत 
            हाइकुकार सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य' से मिलने का अवसर चित्तौड़गढ़ में संपन्न साहित्यिक कार्यक्रम में प्राप्त हुआ। कार्यक्रम के आयोजक साहित्यकार राजकुमार जैन 'राजन' जी ने 'सूर्य' जी का परिचय कराते हुए कहा कि हिंदी साहित्यिक विधा 'हाइकु' के कभी न अस्ताचल की ओर प्रस्थान करनेवाले यह सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य' जी हैं। शाम के वक्त काव्य संगोष्ठी में 'सूर्य' जी ने एकसौ बढ़कर एक जीवन को अभिव्यक्ति देनेवाले हायकु सुनाए। वह समय मेरे जीवन में नई साहित्य विधा हाइकु का वास्तविक परिचय करनेवाला था। फिर निरंतर संपर्क में आने के कारन सूर्य जी मेरे जीवन में साहित्यिक गुरु का स्थान ग्रहण कर चुके थे इसका बोध भी न हुआ, इतने सरल, मितभाषी और स्नेही है 'सूर्य' जी । आपके द्वारा रचित 'चूँ-चूँ-चूँ' और 'ची-ची-ची' हाइकु संग्रह की रचनाओं का ज्ञान कृपाप्रसाद प्राप्त हुआ।
          सूर्य जी की कुछ हाइकु रचनाओं के प्रभाव के कारन जैसे ही यह किताबें मिली तो पाठक पठन के नियमानुसार मुखपृष्ठ, भूमिकाएँ एवं रचनाकार का स्वमत पढ़ता हैं। परंतु मैंने ''चूँ-चूँ-चूँ' हाइकु-संग्रह को अंतरंग में छपी 'हाइकु-स्तुति' से पढ़ना प्रारंभ किया। एक-एक करके जब यह किताब पढ़ रहा था तो वाचन छोड़कर उठने का ख़याल एक पल भी नहीं आया। लगातार तीन-साढ़े घंटे की एक ही बैठक में पूरा हाइकु संग्रह पढ़ लिया और उसके बाद अन्य बातों को भी पढ़  लिया। सचमुच पाठक को घंटों एक स्थान पठन के लिए बिठाकर रखने का कौशलपूर्ण रचना करने की कला आदरणीय सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य' जी में हैं। मानो ऐसा लगता है की सूर्य जी साहित्य को जीते है।
              आपने दोनों हायकु संग्रह के नाम- 'चूँ-चूँ-चूँ' और 'ची-ची-ची' शिर्षित किए है जो पंछियों की बोली के रूप में जानी जाती हैं। आपके हाइकु संग्रह पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि आपके शीर्षक पंछियों की बोलियाँ न होकर आज के उपभोक्तावाद के कारन समाज की दुरावस्था से आहत घायल स्वाभिमानी, समाजनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, परिश्रमी, देशभक्त, प्रकृतिप्रेमी, संस्कृति प्रेमी,नीति एवं करुणा के सागर एवं समाजसेवी के मन की वेदना की आवाज ही अभिव्यक्त और दृष्टिगोचर हो जाती हैं।
             'चूँ-चूँ-चूँ' और 'ची-ची-ची' हाइकु संग्रह के शीर्षक हाइकु, हाइकु स्तुति और समर्पण प्रारंभ में ही आपकी कलम की कलाकारी व्यक्त कराती हैं।
मन की बात/ हाइकु ही कहेंगे/ मेरे हालत, आँखों का पानी/ आ कर सुना गयी/ मेरी कहानी और भाग्य का सफा/ रहा सदा मुझसे/ खफा ही खफा, आदि हाइकुओं से आप के जीवन की आभा प्रकट होती हैं जो आगे चलकर समस्त रचनाओं पर प्रभावित हुई दिखाई देती हैं।
            आज के समाज में नारी की हो रही अवहेलना को पढ़कर मन गदगद हो उठता हैं। जैसे - लड़की क्वाँरि/ हँसा देख दहेज़/ माँ की लाचारी, आज-दुल्हन/बिन दहेज़ बनी/ है विरहन, जलते देखा/ दहेज़ की ज्वाला में/ सिंदूरी रेखा आदि अन्य हाइकु में दहेज़ रूपी कलंक का बाजार आपकी कलम से स्वाभाविक व्यक्त हुआ है। तो दूसरी ओर पारिवारिक सास-बहू, माँ-पिता-पुत्र-पुत्री आदि रिश्तों में खींची अनचाही लकीर को हायकू में आप लिखते है - बेटों में बँटी/ बूढ़ी माँ की ममता/ किश्तों में फटी, वृद्धा आश्रम/ माँ-बाप कहते जहाँ/ बेटे का गम, माँ का ही दूध/ बड़ा होकर भूला/ उसका पूत, आदि रचनाएँ विभक्त परिवार की विवशता बयान करती है।
            प्रकृति पर रचे हाइकु भी पठनीय और हर्षोल्लास भरनेवाले हैं - सूरजमुखी/ भौरों का झुण्ड देख/  हो गई सुखी, प्रभु सौगात/ तारों का उपवन/ चांदनी रात, सोन चिरई/ डाल-डाल फुदकी/ गुम हो गई, प्याऊ है प्यासा/ समुद्र  रही/ यहाँ हताशा, फूल ये कहें/ काटों के साथ हम/ प्रेम से रहें, मेघों के राजा/ हरी-भरी धरती/ आ के सजा जा, आदि प्रकृति के विभिन्न रंग बिखेरती रचनाएँ संग्रहों में समाहित हैं।
         मानव जीवन को अभिव्यक्ति देते हुए आपके हाइकु जीवन सार कह देते हैं, जैसे  - धूप व छाँव/ आते-जाते रहते/ मन के गाँव, तीन सवाल/ रोजी, रोटी, लंगोटी/ करे हलाल, टूटे सपने/ पराये काम आये/ झूठे अपने, रिश्तों का जाल/ पैसे के लिए पूछे/ हाल व चाल, पैसे की आस/ आदमी को बना दे/ जिन्दा-सी लाश आदि। आजकल की श्रेष्ठत्व पाने की लालसा में अपने अस्तित्व की पहचान करानेवाली आपकी यह रचनाएँ हैं।       
               सच को सजा/ कलयुग  में मिले/ झूठ को मजा, पहने कड़ी/ देश को चूसें और/ बेचे आजादी, ताली या गाली/ लुटने में लिप्त हैं/ देश के माली, यह न्यायलय/ सच के लिए तो है/ यातनालय, आजादी मिली/ देश के लुटेरों की/ बाँहे ही खिली, गीता-कुरान/ इनके नाम पर/ चले दूकान, बापू सो गये/ काले राजनीतिज्ञ/ गोरे हो गये, आदि हाइकू आजादी मिले देश की अपनों द्वारा हो रही बर्बादी का दर्शन कराती हैं तो दूसरी और जीवन पथिक को सही दिशादिग्दर्शन करती हैं। जैसे सत्य के पाँव/ न झुके न झुकेंगे/ झूठ के गाँव, मान व शान/ मन का अहंकार/  दे अपमान, झूठ की भीड़/ उजाड़ दिया यहाँ/ सत्य की नीड़ आदि
              समग्र दोनों हाइकु-संग्रह के बारे में यह कह सकते हैं कि प्रकृति से लेकर आसमान तक और मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक ५-७-५ वर्णों में अंकित यह रचनाएं समस्त जीव-जगत का अस्तित्व की पहचान कराते है।
            आदरणीय सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य' जी द्वारा रचित साहित्य आसमान के सूर्य की तरह अनंत कल तक चमकता रहेगा इसमें कोई दो राय नहीं हैं। सूर्य जी आपके भविष्य के लिए आपके स्वास्थ्यसंपदा और सृजनशील साहित्यसंपदा के लिए बहुत-बहुत मंगल कामनाऍ।       
साभार, बहुत-बहुत धन्यवाद !

श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 

उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)  
9730491952 / 9545840063 

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मेरी काव्य रचना - शान तिरंगे की

आओ मिलकर साथ चले, हमें आगे जाना हैं,
शान अपने तिरंगे की सारे जहाँ में बढ़ानी है।

खेत-खलिहान, बाग़-बगीचे, सबकी जान बचानी है,
पर्वत हो या नदी की धारा सबको अबाधित रखनी है।

जात-पात, धर्म बहुत, सबमें इक जान डालनी हैं,
हम भारतवासी सब एक हैं, आवाज जहाँ में गुँजानी है।

देश एक, भेस अनेक, भाषाएँ भी है बहुत पर,
भरें प्यार नस-नस में 'हिंदी',  प्रीत इससे करनी हैं ।

किसान हो या जवान, दानत्व भाव दोनों भी रखते हैं,
छात्र  हो या अध्यापक पीढ़ी की सीढ़ी बढ़ानी हैं।

या सम सबकुछ है मेरे देश में पर,
समय जान हथेली पर रखकर देश की लाज बचानी है।

रचना - मच्छिंद्र भिसे, सातारा (महाराष्ट्र)
९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३ 

मेरी काव्य रचना - ऐसा है मेरा भारत देश

हिमालय है मुकुट इसका,
गंगा, यमुना, गोदा, कृष्णा,
मिटा रही है इसकी तृष्णा,
नहीं कोई दोष है अच्छा परिवेश,
ऐसा है मेरा भारत देश।

हजारों तपों की परंपरा इसे,
अपनाना चाहते देश-विदेश इसे,
मन में भरें सभी राग-अनुराग है,
प्यार से भरा है दिलकोश,
ऐसा है मेरा भारत देश।

एकता का है न्योता सबको यहाँ,
बंधुता का नाता हर एक से यहाँ,
धर्मनिरपेक्षता की है आस इसे,
नहीं है किसी के मन में द्वेष,
ऐसा है मेरा भारत देश।

आओ, चलो बनाए एक बसेरा,
हँसे-गाएँ, झूमें-नाचे, हो नया एक सवेरा,
सूरज खिलेगा भारत भूमि पर,
लेकर मन में प्यार का अनोखा संदेश,
ऐसा है मेरा प्यारा भारत देश।

रचना - मच्छिंद्र भिसे, सातारा (महाराष्ट्र)
९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३ 

मेरी काव्य रचना - एक लकीर

एक  लकीर
अपना और पराया
घर-घर की बात है,
इन्ही के बीच खींची
अनचाही लकीर आज भी है।

पिता की प्यारी बिटिया,
माँ का लाडला बेटा,
अलगावता आज बच्चों में,
यही आज तकरार है.
कितनी ही बार कोशिश की,
समझाने की इन्हें,
मत करो भेद बेटा-बिटिया,
दोनों जीवन का आधार हैं।

बेटा कुछ भी करें,
ना कभी बनी बड़ी बात है,
बेटी के तरक्की विचार ही,
बने नए अपराध है,
कितनी ही बार दिखाई,
बेटी ने जीवन में वफ़ा,
फिर भी उसके प्रति,
न राग है ना अनुराग है।

दीप जलाएगा बेटा,
बेटी तो पराया धन है,
पढ़े-लिखों के बीच,
आज भी अनबन है ,
बेटी ही होती है,
दो परिवार की नियामत है,
कब समझेगी दुनिया,
सामने बेटी के शूल भी,
बनते फूल है।

समझो इस बात को समाजियों,
बेटा-बेटी सामान है,
बेटे के साथ बिटिया सम्मान है,
तो आपकी पहचान है,
बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ,
आज इस लकीर की पुकार है,
मिटा दे ऐसी लकीर,
यही जीवन का मूलाधार है।
रचना - मच्छिंद्र भिसे, सातारा (महाराष्ट्र)
९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३ 

मेरी काव्य रचना : फुलवारी की पुकार

फुलवारी की पुकार 
काश ! यह स्कूल उपवन होता, 
बनते हम इसकी फुलवारी,
एक ही अर्ज है,
सुनो मन के बात अब हमारी।

बालवर्ग मिले दोस्त प्यारे,
ना थी कोई आपसी तकरार,
खेलते-कूदते बीत रहा था समय,
थी एक समय की गुहार,
चल आगे बढ़ प्यारे,
बहुत मिलेगा प्यार और कई फ़नकार
मुडकर ना देख पीछे,
देख आगे और जी ले दुनिया दुलारी,
सुन गुहार समय की,
बढ़ने को आगे हमने की तैयारी।

ककहरा से हुई शुरआत,
फिर आई गणित की बारी,
रटना, याद करना, फिर पाठ पढ़ना,
लगने लगा भारी,
बस्ते के बोझ से,
बचपने की भूल रही है हँसी सारी, क्या करें
ना पढ़ना और ना ही हँसाना,
हुई अनचाही ऐसी लाचारी,
सिसकने-मुरझाने लगी है गुरूजी,
बचपने की आज यह फुलवारी।

आज हमें बचपन जीने दो,
मन आप विचारों से उड़ने दो,
कमल से बनती हैं तितलियाँ,
आप ही आप में,
सीखना, खेलना और गाना चाहती है
आप ही आप में,
बनाना चाहती हैं तितलियाँ जैसा
चाहे आप ही आप में,
हाल बहुत बुरा हैं गुरूजी,
दिमाग अब बंद, नहीं मिलती हलकारी।

बोझ बने जब पढाई,
फिर कैसे न होगी मन ही मन लड़ाई,
कहते हैं बच्चे फूल होते हैं,
पर क्या हुआ आज यह बेहाल,
बचपन छीना गया हमसे,
कैसे उभरे हम समय के ताल,
फिर से बचपन जीना चाहते है,
सुनाती है यह सारी फुलवारी,
गुरूजी, उजड़ने से पहले फिर एक बार,
खिलना चाहती है बचपन यह फुलवारी।
रचना - मच्छिंद्र भिसे, सातारा (महाराष्ट्र)
९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३ 

मेरी काव्य रचना : प्रभात समयी (कविता) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'

कुहरा छू जाने से,
तरोताजगी जगने लगी,
सूरज की किरणों से,
ओंस भी खिलने लगी,
रोशनदान से सुबह की,
महक बिखरने लगी,
गंधित-सुगंधित मन को
मुस्कराते सुबह जगाने लगी।

सूरज की पहली किरण को,
देख कलियाँ मुस्कराई,
खिली-खिली वसुंधरा देख,
कोयल ने है प्रहरियाँ गाईं,
हो गई सुमधुर-पल्लवित,
प्रभात प्यार ले आई,
जीवन गीत-संगीत से महकाने,
जीवन गान प्रभाती आई।

शीत सुबह में बहता पवन,
देता रहा प्यार की पहचान,
लेकर आया साथ में,
नई सुबह का मेहमान,
सूरज चाचू ने आते ही,
स्वीकार किया सबका प्रणाम,
दिए सौ-सौ आशिष सबको,
हो जीवन में खुशियों का नया विहान। 

चिडियों ने आँगन में आ,
मचाया कितना शोर,
मीठी-मीठी बोली से,
बतिया रही हो गई है भोर,
निकालो रजाई देखो आँगन में,
सुबह ने  है खुशियाँ लाईं,
चीं-चीं चिडिया रानी,
करने स्वागत आपके लिए है आईं। 

रचना - मच्छिंद्र भिसे, सातारा (महाराष्ट्र)
९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३ 

गुरूने केला शिष्याचा गौरव व कौतुक

  माझ्या किसन वीर कॉलेजचे हिंदी विभाग प्रमुख व पुरस्कार समारंभांचे अध्यक्ष प्रो.डॉ.भानुदास आगेडकर सरांचे कार्यक्रमा संदर्भातील अनुभव गुरु शब...

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