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'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

गुरूशब्द मोती जैसे (दोहे- मुक्तछंद) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'

 

गुरूशब्द मोती जैसे 
(दोहे - मुक्तछंद)
गुरू के बिन जीवन खाली, जैसे बंजर जमीन।
सही ज्ञान के निशान कहाँ, जग में सबसे दीन।।

गुरू राह देखता-दिखाता, नव अंकुर के आन।
भटके कोई फटके उसको, छिड़कता उनपर जान।।

अंधा बन बैठ गया, गुरू को न अपनाय।
औरन् ले खुद भी डूबा, फिर-फिर गोता खाए।।

बरगद-सा गुरू बना, हम बन जाए शाख।
कितने ही पत्ते झरते जाए, झूके न उनकी आँख।।

गुरूज्ञान से बना अमीर, गुरू ही सबसे अमीर।
धन-दौलत क्या तूने पाई, गुरू बिन सबै फकीर।।

गुरू का न जाति-धरम, बनाए सबको संज्ञानी।
धरम की बात जो भी करै, सदा रहा मूर्ख-अज्ञानी।

गुरूशब्द मोती जैसे, गलहार बना पहन।
शब्द छूटा; जनम मिटा, सब हो जाएगा दहन।।

गुरू से लेकर ज्ञान को, ज्ञानी हम सब बन जाए।
गुरू तो गुरू ही रहता, चाहे सब आसमान भी पाए।।

गुरू न कोई छोटा-बड़ा, ज्ञान जित मिलें उत पाए।
सम्मान सबका करते रहना, 'मैं' का साया न छू जाए।।

गुरू वंदन वारंवार करें, सिर न झूकता जाए।
जो सिर गुरू झूका 'मंजीतें', अपने को राख में पाए।।
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२३ जुलाई २०२१
मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
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