मच्छिंद्र बापू भिसे 9730491952 / 9545840063

'छात्र मेरे ईश्वर, ज्ञान मेरी पुष्पमाला, अर्पण हो छात्र के अंतरमन में, यही हो जीवन का खेल निराला'- मच्छिंद्र बापू भिसे,भिरडाचीवाडी, पो. भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा ४१५५१५ : 9730491952 : 9545840063 - "आपका सहृदय स्वागत हैं।"

●अनमोल हीरा: मुंशी प्रेमचंद● (कविता) - ● मच्छिंद्र भिसे ● ©®

●अनमोल हीरा: मुंशी प्रेमचंद●
(कविता)

शारदे की वीणा से
झंकृत हुई होगी कभी धरा
शब्द थे आसमाँ में बिखरे
न था कोई सहारा
सोए समाज को जगाने
और कलम के बहाने
शब्दों को मिला था
स्वररूपी अनमोल एक हीरा।

कोहीनूर का नूर सिर्फ
महल की शान है
यह हीरा देखो यारो
हिंद-हिंदी के मुकुट का मान है
निकलेंगे हजारों शब्दों के धनी पर
‘धनपतराय’ से न होगा कभी किनारा।

शब्दों को सजाया बस !
समय कलम-काज में
जीवन नशा-सा झूमा
उर्दू-हिंदी के मकान में
जीवन भटके लोगों को
‘नवाबराय’ देते रहे सदा सहारा।

जीवन संघर्ष में
यह मानी बस आगे-आगे बढ़ा
गीत बना था ‘सोज़े वतन’
गोरों के हाथ जब पड़ा
'प्रेमचंद' बनकर फिर मित्रो!
बन गया दुनिया का फकीरा ।

गरीबी-अमीरी, जन-जनार्दन पर
कलम खूब चलाई
गोरे हो या स्वार्थांध साहूकार
गर्दन नीत झुकाई
‘कलम का सिपाही’ सच्चे आप
शत्-शत् वंदन करूँ,
ले लो जनम दुबारा
शब्दों को मिला था,
स्वररूपी अनमोल एक हीरा।
-०-
31 जुलाई 2019 
● मच्छिंद्र भिसे ● ©®
(अध्यापक-कवि-संपादक)
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साथ ले जाएगा (विधा: सजल)


साथ ले जाएगा
(विधा: सजल)

माटी का हर पुतला माटी में एक दिन मिल जाएगा
सही बताओ बरख़ुरदार! साथ अपने क्या ले जाएगा।

धन-दौलत का रौब तुझे सच बता सुकून कितना पाया है
भागे उम्र भर पीछे इसके कौन तिनका साथ ले जाएगा।

पसीना बहा महल बनाया कितना इसमें जी पाया है
गीर जाएगा जमीं पर तन क्या एक ग़ज जमीं साथ ले जाएगा।

औरों के हालात पर रहम नहीं सबमें खुदगर्जी को पाया है
मिटाने तुझे वक्त दस्तक देगा क्या दुवाएँ साथ ले जाएगा।

अपना किसीको माना नहीं न सच्चे रिश्ते निभा पाया है
कंधा देने होंगे सभी क्या दिल उनके अपने साथ ले जाएगा।

मैं ही सबकुछ गाता रहा वक्त का खेल कभी देख पाया है
कल-प्रलय में डूब जाएगा इक दिन क्या मैं को साथ ले जाएगा।

वक्त है अभी सही राह चलने का मत देख किसने क्या कुछ पाया है
कर्म से नाम होते अमर हैं अभिमान से नाम अपना साथ ले जाएगा।

जीवन अपना है जन्म से मृत्यु अंतिम लक्ष्य कोई साध पाया है
जो साध लिया इस बीच वही अपने साथ तू ले जाएगा।

कहे मछिंदर सुन मेरे प्यारे मधुर वाणी ने सबकुछ पाया है
वाणी जब हो बंद अपनी औरों की वाणी अपने साथ ले जाएगा।
-०-
23 जुलाई 2020
● मच्छिंद्र भिसे ● ©®
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●रंगमंच का जोकर●



●रंगमंच का जोकर●
(कविता)
इस रंगमंच की बात निराली
सदा रहती यहाँ हँसी-ठिठोली
मैं हूँ जोकर इस आँगन का
करता हूँ सबसे आँखमिचौली!

कभी तोतला बोलता हूँ,
कभी नाक मैं सिकुड़ता हूँ,
चाहे कुछ भी हो जाए यहाँ पर
कभी न उनसे मुँह मोड़ता हूँ
उनकी ख़ुशी में ढूँढू खुशहाली,
करता हूँ सबसे आँखमिचौली!

घंटी बजती यहाँ बार-बार
कभी मन उदास, कभी बहार
प्यार ही पाते सब यहाँ पर
बनते इक-दूजे का आधार
इस मंच की गूँज निराली,
करता हूँ सबसे आँखमिचौली!

जब मैं गाता वे भी गाते,
जब मैं हँसता वे भी हँसते
किसी दिन न देखा मुझको
देखकर मुझसे वे इठलाते
मैं जोकर हूँ उनका हमजोली
करता हूँ सबसे आँखमिचौली!

इस मंच का मैं अहम किरदार
मेरे बिन हैं सूना संसार
भेस ओढ़ा है ‘शिक्षक’ मैंने
लाने सबके जीवन में बहार
यहाँ पर हर दिन माने ईद-दिवाली
करता हूँ सबसे आँखमिचौली!
-०-
१७ जुलाई २०२०
मच्छिंद्र भिसे ©®
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●एक प्यारी तितली● (बाल गीत) - मच्छिंद्र भिसे



●एक प्यारी तितली●
(बाल गीत)
एक प्यारी तितली उड़ी चली
खुशियाँ बहार देती चली
न जाने कहाँ उड़ी चली
इस कली या उस गली
एक प्यारी तितली उड़ी चली।

बगियन में हैं फूल हजार
इंद्रधनुष्य-सी बिछी बहार
सखियों संग करें बातें चार
भँवरों की भी लगी है कतार
न जाने क्या वहाँ फँसी चली
एक प्यारी तितली उड़ी चली।

तितली हमारी है नादान
भँवरे भी करते परेशान
सुंदरता की वह है खान
काँटों में ना अटके जान
लौट आ जाए अपनी गली
एक प्यारी तितली उड़ी चली।

बिन तितली के आँगन सूना
ना कोई अनहोनी हो ना,
तितली के बिन आए न चैना
बाँट जोहते मेरे नयना
न जाने कहाँ  रुकी भली
एक प्यारी तितली उड़ी चली।
-०-
15 दिसंबर 2019
● मच्छिंद्र भिसे ©®
(अध्यापक-कवि-संपादक)
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●उपरोक्त रचना मौलिक, अप्रकाशित है●

*अधूरेपन का अहसास*


*अधूरेपन का अहसास*
(विधा: मुक्तक कविता)

एक दिन बेजान झोंपड़ी में
बूढ़े माँ-बाप को बेसहारा देखा,
लगा पल के लिए
कलियुग ने भी सतयुग भूलकर
खींच दी अधूरेपन की अनमीट रेखा।

जिस अयोध्या-सी मिट्टी में खेला
डाली-पेड़, बालसखा संग
किया करता था रामलीला,
ढल गया वक्त छूटे साथी,
भूल गया सबकुछ पीछे छोड़ा न बाकी  
अपने अस्तित्व की खोज में
चल पड़े राम ने कभी मुड़कर न देखा
और खींचता रहा, अधूरेपन की अनमीट रेखा।

क्या हुआ था हाल दशरथ का
आज का राम भूल गया,
अपने स्वार्थ के लिए वह भी
शहरी वनवास को चला गया,
रंग देखे शहरी, शहर में ही रहा रुका,
छोड़ अपने दशरथ, कौशल्या, भरत को
खींच दी अधूरेपन की अनमीट रेखा।

झोंपड़ी में दशरथ अपने राम की
सूखे होठों से रट लगाए बार-बार,
लौटेगा राम हमारा, सब करते रहे इंतज़ार,
बस! एक झलक दिखा देना राम
इसी चाहत में धरा पर रुका है अवसान
जब भी ऐसा खत पाता, राम करता अनदेखा
और बनाता रहा गर्द अधूरेपन की रेखा।

राम की बेरुखी पर वक्त भी सहम गया
लौट आने अयोध्या, राम को बाध्य किया,
देख सूना आँगन और सूखे पेड़ को
पिता को मिलने दौड़ा चला गया
पछतावा भी था परवान चढ़ा
शहरी छत टूट गए, चाहता अपनों का साया।  
स्वार्थी आहट पाकर यमराज भी न रुका
नजरें भिड़ीं जब एक-दुजे की, तब
हमेशा के लिए खींच गई अधूरेपन की रेखा।    
-०-
१० जुलाई २०२०
“चाहे कितनी ही ऊँचाई को हम क्यों न छू ले, बुनियाद और रिश्तों की अहमियत बनी रहे।” 
***
रचनाकार
*मच्छिंद्र भिसे*©®
अध्यापक-कवि-संपादक
सातारा (महाराष्ट्र)
मो. 9730491952
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■ छपक-छपाक ■ (बालगीत) - मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत

■ छपक-छपाक ■ (बालगीत) रिमझिम बारिश आती है, आँगन हमारा भिगोती है। कीचड़ मुझको भाता है, कपड़ों को ही रँगाता है। छपक-छपाक कूद जाती हूँ, कीचड़-प...

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