फुलवारी की पुकार
काश ! यह स्कूल उपवन होता,
एक ही अर्ज है,
सुनो मन के बात अब हमारी।
बालवर्ग मिले दोस्त प्यारे,
ना थी कोई आपसी तकरार,
खेलते-कूदते बीत रहा था समय,
थी एक समय की गुहार,
चल आगे बढ़ प्यारे,
बहुत मिलेगा प्यार और कई फ़नकार
मुडकर ना देख पीछे,
देख आगे और जी ले दुनिया दुलारी,
सुन गुहार समय की,
बढ़ने को आगे हमने की तैयारी।
ककहरा से हुई शुरआत,
फिर आई गणित की बारी,
रटना, याद करना, फिर पाठ पढ़ना,
लगने लगा भारी,
बस्ते के बोझ से,
बचपने की भूल रही है हँसी सारी, क्या करें
ना पढ़ना और ना ही हँसाना,
हुई अनचाही ऐसी लाचारी,
सिसकने-मुरझाने लगी है गुरूजी,
बचपने की आज यह फुलवारी।
आज हमें बचपन जीने दो,
मन आप विचारों से उड़ने दो,
कमल से बनती हैं तितलियाँ,
आप ही आप में,
सीखना, खेलना और गाना चाहती है
आप ही आप में,
बनाना चाहती हैं तितलियाँ जैसा
चाहे आप ही आप में,
हाल बहुत बुरा हैं गुरूजी,
दिमाग अब बंद, नहीं मिलती हलकारी।
बोझ बने जब पढाई,
फिर कैसे न होगी मन ही मन लड़ाई,
कहते हैं बच्चे फूल होते हैं,
पर क्या हुआ आज यह बेहाल,
बचपन छीना गया हमसे,
कैसे उभरे हम समय के ताल,
फिर से बचपन जीना चाहते है,
सुनाती है यह सारी फुलवारी,
गुरूजी, उजड़ने से पहले फिर एक बार,
खिलना चाहती है बचपन यह फुलवारी।
रचना - मच्छिंद्र भिसे, सातारा (महाराष्ट्र)
९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३
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