एक लकीर
अपना और पराया
घर-घर की बात है,इन्ही के बीच खींची
अनचाही लकीर आज भी है।
पिता की प्यारी बिटिया,
माँ का लाडला बेटा,
अलगावता आज बच्चों में,
यही आज तकरार है.
कितनी ही बार कोशिश की,
समझाने की इन्हें,
मत करो भेद बेटा-बिटिया,
दोनों जीवन का आधार हैं।
बेटा कुछ भी करें,
ना कभी बनी बड़ी बात है,
बेटी के तरक्की विचार ही,
बने नए अपराध है,
कितनी ही बार दिखाई,
बेटी ने जीवन में वफ़ा,
फिर भी उसके प्रति,
न राग है ना अनुराग है।
दीप जलाएगा बेटा,
बेटी तो पराया धन है,
पढ़े-लिखों के बीच,
आज भी अनबन है ,
बेटी ही होती है,
दो परिवार की नियामत है,
कब समझेगी दुनिया,
सामने बेटी के शूल भी,
बनते फूल है।
समझो इस बात को समाजियों,
बेटा-बेटी सामान है,
बेटे के साथ बिटिया सम्मान है,
तो आपकी पहचान है,
बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ,
आज इस लकीर की पुकार है,
मिटा दे ऐसी लकीर,
यही जीवन का मूलाधार है।
रचना - मच्छिंद्र भिसे, सातारा (महाराष्ट्र)
९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३
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