■ जीवन ही खेल ■
(कविता)
हार मिली तो रोते हो जी,
व्यर्थ समय क्यों खोते हो जी;
कभी तो जीत मिलेगी तुमको,
तुम वीर-धीर, जंग-ए-खिलाड़ी हो
बस! जी-जान खेलो जी।
सूरज भी ढलता हर शाम को,
फिर से उगता है नई भोर को;
अंधेरे से लड़े, उजाला लाए,
जीवन भी बस ऐसा सिखाए जी।
सपनों को पंख दो, उड़ान दो,
हर ठोकर से भी कुछ सीख लो;
जहाँ राह कठिन, वहाँ मंज़िल पास,
हौसलों के संग सब आसान है जी।
हार-जीत तो बस बहाने हैं,
जीवन के ये अनमोल ख़ज़ाने हैं;
बस चलते रहे, थम न जाए क़दम,
हर कोशिश देगा ऊँचाई का धरम जी।
लो उठो, बढ़ो, मुस्कुराओ जी,
हरपल उत्सव मनाओ जी;
खेल ही जीवन, जीवन ही खेल,
दिल को विजेता हो समझाओ जी।
-०-
27 मार्च 2025 शाम: 07:00 बजे
रचनाकार
● मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'● ©®
सातारा (महाराष्ट्र)
सेवार्थ निवास : शिक्षण सेवक, जिला परिषद हिंदी वरिष्ठ प्राथमिक पाठशाला, विचारपुर, जिला गोंदिया (महाराष्ट्र)
9730491952
-०-

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