(कविता)
मंदिर हो या मस्जिद में
सजदे सिर झुकते हैं
अजान-भजन के साज दो
एक ही ठौर पहुँचते हैं
पंडित-मौलवी दो वस्त्र मगर
एक-से ही दिल धड़कते हैं।
किसका है गुरूर हमें
हमरा क्या रखा है यहाँ
राम-अल्लाह की देन सारी
कौन जमीं और घर कहाँ
चैन-अमन की पावन भूमि
मैं-मेरा लेकर क्यों खड़कते हैं!
ईद-दिवाली नाम अलग पर
दोनों ही रखते भाईचारा है
जब तक न समझेंगे इसको
राम और अल्लाह भी हारा है
जीत-हार तुम चाहे किसकी
किसके लिए हम झगड़ते हैं!
सबमें अल्लाह-राम रहते हैं
क्यों कर न देख पाते हैं?
मेरा राम, मेरा मौला
नाम भेद क्यों फैलाते हैं?
क्या आकर कहा कान में
जो औरों पर भड़कते हैं।
इन्सान हो तुम इन्सान बनो
हर धरम का करम समझाते हैं
दिल में सच्ची ज्योति जले
गिता-कुराण सब बतलाते हैं,
भेदी रंग मिट जाए 'मंजिते'
सबमें तिरंगा लहू फड़कता है।
-०-
03 मई 2022
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
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