भारतीयता की गंध
(कविता)
हम सब इस देश के वासी
एक गीत के छंद हैं
अलग-थलग खिलते मगर
सबमें एकता गंध है।
जाति-धरम नाम है दूजे
क्या ला सके मन में रंज है
वर्ण भेद बस इंद्रधनुष में
समता के खिलें यहाँ रंग है।
कोई खाए चावल रोटी
कोई खाए चूरमा बाटी
पकवान चाहे हो एक-दूजे
मिल-बाँट खाते आनंद है।
ईद आए या दिवाली
भरते सबमें उमंग है
प्यार से गले मिलें यहाँ
तिरंगे उमड़ती तरंग है।
बाणी की तो क्या बात कहना
हर प्रांत का है अपना गहना
हिंदी सबका मेल कराती
सबसे रखती अनुबंध है।
छोड़ो मन की आनाकानी
चलो बुनाए नई कहानी
मानवता के बनें पुजारी
यही सबको सौगंध है।
-०-
04 सितंबर 2021
रचनाकार: मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत' ©®
संपादक : सृजन महोत्सव पत्रिका, सातारा (महाराष्ट्र)
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