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जनवरी २०१७ की बात है। किसी एक साहित्यिक पत्रिका के माध्यम से सुप्रसिद्ध बालसाहित्यकार राजकुमार जैन ‘राजन’ जी से परिचय हुआ। पत्रिका में उनका मोबाईल नंबर था, उसे मिलाया और सामान्य वार्तालाप किया। आज उस सामान्य वार्तालाप का परिवर्तन साहित्य की सेवा में एक साथ योगदान देने तक लेकर आया है। प्रथम बातचीत में सरल, सहज एवम मिलनसार व्यक्तित्व से मैं गदगद रहा। फिर क्या समय-समय फोन पर बातचीत होती रही। उन्होंने मुझे नवंबर २०१७ में आयोजित कार्यक्रम में निमंत्रित किया और मैं साहित्य प्रेमी उनके बुलावे पर चित्तौडगढ़ पहुँचा। उनके आतिथ्य से हर कोई गौरव महसूस कर रहा था। मैं प्रथम बार इतने साहित्यकारों के बीच में बैठा था। भव्य, शानदार कार्यक्रम और राजन जी के व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया। उन्हीं से प्रेरित होकर मैंने लिखना शुरू किया और आज भी कुछ-न-कुछ लिख-पढ़कर साहित्य की सेवा दे रहा हूँ। दो-तीन वर्ष के परिचय के बाद फरवरी २०२० में सातारा, महाराष्ट्र में आयोजित कार्यक्रम में मैंने उन्हें निमंत्रित किया और उन्होंने सहर्ष स्वीकार करते हुए समय पर कार्यक्रम स्थली पहुँचे। वे तीन दिन हमारे यहाँ रहे। इस दौरान साहित्य, बालसाहित्य एवं हिंदी के प्रचार-प्रसार के बारे में वार्तालाप होता रहा।
राजन जी एक ऐसे साहित्यिक जो खुद परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका कार्य ही उनका परिचय है। बाल साहित्य और समकालीन परिवेश साहित्य के सर्जक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शताधिक पुरस्कारों से सम्मानित, हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार में अग्रणी, साहित्यिक प्रेरणास्त्रोत और कई नव साहित्यकारों को प्रेरित करने वाले राजस्व एवं सार्वभौम विचारक आदरणीय राजकुमार जैन ‘राजन’! आपके आजतक लगभग चालीस से अधिक बालसाहित्य की किताबें, तीन स्तरीय वैचारिक काव्यसंग्रह एवं एक आलेख संग्रह प्रकाशित हुआ है। राजन जी ने आजतक निशुल्क साहित्य का वितरण पुरे भारतवर्ष में किया है और यह उपक्रम जारी है। ऐसे साहित्यप्रेमी एवं हिंदी के प्रचार-प्रसारक राजकुमार जैन ‘राजन’ जी के साथ वार्तालाप करते हुए सुखद अनुभव रहा। निश्चित ही यह साक्षात्कार बालसाहित्य एवं नवलेखकों के लिए प्रेरक सिद्ध होगा। इसी वार्तालाप के कुछ अंश आपके सम्मुख साक्षात्कार के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ।
राजन जी: भिसे जी, इसके लिए आपको बचपन की एक घटना से
अवगत कराना चाहूँगा। मैं जहाँ रहता हूँ वह छोटा-सा गाँव है अकोला, जिला चित्तौड़गढ़ (राजस्थान)। मुझे बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने का बहुत
ज्यादा शौक था। खाली समय में पुस्तकालयों में जाने का जब-जब अवसर मिलता था,
मैं किताबों में कहानियाँ वगैरह पढ़ा करता था। उन्हीं दिनों मेरे
गाँव में ‘नवज्योति’ नामक एक दैनिक
अखबार आना शुरू हुआ था, जिसमें बच्चों के लिए एक कूपन छपता
था और बाल मंडल का मेंबर बनकर कुछ लेखन छपा करता था। तब मुझे मालूम नहीं था कि
मौलिक लेखन क्या होता है? बस लाइब्रेरी की किताबों से कुछ
उतारते और बालमंडल में भेज देते थे और वह अपने नाम के साथ छाप देते थे। जब मैं
हायर सेकेंडरी स्कूल पढ़ने के लिए उदयपुर गया। वहाँ पहुँचने पर लेखकों से जानने,
देखने, मिलने और समझने का सुअवसर प्राप्त हुआ।
फिर बाद में समझ में आया कि मौलिक लेखन क्या होता है? कैसा
होता है? और वही से मैंने लिखना शुरू किया, लगभग 1982 के आसपास की बात होगी कि मेरी पहली मौलिक
रचना मथुरा से प्रकाशित लघु बालपत्रिका में छपी थी। बाल पत्रिकाओं में लिखता था।
तब से ही मेरे लेखन की शुरुआत हुई।
भिसे
जी: राजन जी, आप मूलत: बाल साहित्यकार के रूप में
उभर कर आए। ज्यादातर आपका परिचय बाल साहित्यकार के रूप में है। आपको यह बालसाहित्य लेखन की प्रेरणा आपको कैसे मिली?
राजन जी:
(हँसते-हँसते) मेरा शुरू से ऐसा मानना रहा है कि बालक जो होता है न! वह किसी देश, समाज या संस्कृति का ही नहीं अपितु
संपूर्ण मानव जाति की पूँजी होता है। हमारी बात का असर छोटी उम्र के बच्चों पर
जल्दी हो जाता है। वयस्क लोगों को प्रभावित कर ही नहीं सकती है। चिकने घड़े पर
मिट्टी क्या चढ़ेगी! अच्छा, बाल साहित्य बच्चों को
संस्कारी, विचारी एवं चिंतनशील बनाने का काम करता है तथा
इसके लिए वह मुख्य भूमिका निभाता है। बाल साहित्य ही वास्तव में संस्कार साहित्य
है, जो बच्चों के जीवन निर्माण के क्षेत्र में सही दिशा देने
का प्रयास करता है। इन्हीं भावों से प्रेरित होकर मैंने बाल कहानियाँ लिखना शुरू
किया, वह बच्चों को संदेश देती थीं, कहानी-कहानी
में उन्हें एक नई प्रेरणा देती थीं। यही से मेरा बाल साहित्य लेखन शुरू हुआ। आज तक
कई बाल कहानियाँ, कविताएँ और लगभग बाल साहित्य की 40 से अधिक किताबें प्रकाशित हुई हैं।
भिसे
जी: वर्तमान समय
में आप विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादन में भी योगदान दे रहे है। संपादक, सह
संपादक, समीक्षक के रूप में भूमिका निभा रहे हैं और बहुत सारे मंच के कार्यक्रम
में सहयोग दे रहे हैं। इस दौरान पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ने और कार्य करने का
आपका अनुभव कैसा रहा?
राजन जी: जैसे कि आप
जानते हैं और आपने कई समय मेरे साथ बिताया है। आपको बताना चाहूँगा कि मेरी सोच
हमेशा यही रही है कि अधिक से अधिक नए रचनाकार जो हिंदी में लिखते हैं उन्हें
प्रोत्साहित किया जाए ताकि आने वाले समय में हिंदी की एक नई पीढ़ी, नए रचनाकार तैयार हो। और, इस कार्य
में मुझे बहुत-सी सफलता भी मिली। कई नए रचनाकार तैयार हुए, जो
देश-विदेश के पत्र-पत्रिकाओं में छप रहे हैं; सम्मानित भी हो
रहे हैं। जहाँ तक मेरे अनुभव की बात की है, तो मैं बताना
चाहूँगा कि कुछ अनुभव बहुत अच्छे रहे हैं और बहुत कटू भी। यह विषय अधिक विस्तार
माँगता है। बस, इतना जान लीजिए कि दुनिया बहुत मतलबी है।
भिसे
जी: मैं फिर से
आपको बालक की ओर ले जाना चाहूँगा। एक बाल साहित्यकार होने के नाते जब बालसाहित्य सृजन
हो जाता है, तो बालसाहित्य और बालक इनमें कौन-सी तात्विक और स्वाभाविक बातें होती हैं
और कौन-सी बातों की ओर विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। यानी कि आज जो नए बाल
साहित्यकार उभर रहे हैं; उनके लिए क्या कहना चाहेंगे?
राजन जी: आपने पूछा
था कि बाल साहित्यकार होने में कौन-सी प्राथमिक और स्वाभाविक बातों का ध्यान रखना
चाहिए! सबसे पहले मैं इसके बारे में बाल साहित्य के मनस्वी रचनाकार निरंकार जी के
शब्दों में कह दूँ तो ‘बाल साहित्य से बच्चों का मनोरंजन हो सके, जिसमें रस ले सके और जिनके माध्यम से
वह अपनी भावनाओं और कल्पनाओं का विस्तार कर सके, वहीं बालसाहित्य
कहा जाएगा।‘ वर्तमान परिवेश में बालसाहित्य से मेरा आशय यह है कि बच्चों के लिए
लिखे जाने वाले उस साहित्य से हैं; जो बालकों को संस्कार दें,
जीवन जीने की राह दिखाएँ, आत्मविश्वास दें,
स्वावलंबन, राष्ट्रप्रेम और परिवेश को समझकर
सकारात्मक कार्य करने की प्रेरणा दें और इसके साथ ही भिसे जी मैं कहना चाहूँगा कि
बाल साहित्य कैसा होना चाहिए, तो बच्चों के लिए लिखी रचनाओं की भाषा सहज, सरल हो, वाक्य छोटे-छोटे हो, रचना
में रोचकता हो और ज्यादा लंबी रचना ना हो। छोटी रचनाओं को बच्चे पसंद भी करते हैं,
जल्दी याद कर लेते हैं और समझ लेते हैं।
भिसे
जी: बाल साहित्य
की बात हो रही है। आज पूरे भारत सहित विश्वभर में भी बहुत-से साहित्यकार है। आप
अपनी दृष्टि से कौन-से साहित्यकारों को उत्कृष्ट साहित्यकार मानते हैं और क्यों?
राजन जी: आज नि:संदेह
देश में विशेषत: हिंदी बालसाहित्य में उत्कृष्ट साहित्य रचनेवालों की कोई कमी नहीं
है। बहुत सारा साहित्य लिखा जा रहा है। सबके नाम तो स्मरण में नहीं आएँगे परंतु
जिन-जिन को मैंने पढ़ा है और प्रभावित रहा हूँ उनमें से कुछ नाम आपके सामने रख रहा
हूँ। किसी का नाम नहीं ले पाया तो कृपया उसे अन्यथा न लें, वे भी इस सूची में
सम्मिलित और सम्मानित हैं। मैं बताना चाहूँगा कि श्रीचक्र नलिन, संतोष सहानी, क्षमा
शर्मा, डॉक्टर श्रीप्रसाद, जयप्रकाश
भारती, डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे, डॉक्टर
प्रभाकर माचवे, कन्हैयालाल नंदन, विनोदचंद्र पांडे, श्याम शशि, गोविंद
शर्मा, आनंद विश्वास, संजय जैयस्वाल,
भैरूलाल गर्ग, विमला भंडारी सहित यह वरिष्ठ
बाल साहित्यकार हैं। नई पीढ़ी के साहित्यकारों में कृष्णकुमार आसू जी, नागेश पांडेय ‘संजय’, दीनदयाल
शर्मा, जाकिर अली ‘रजनीश’, मोहम्मद अरशद खान, गोविंद भारद्वाज आदि नाम लिए जा
सकते हैं; जो बाल साहित्य में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। और
यह बाल साहित्य को वास्तव में बालकों तक पहुँचाने में सक्रियता से लगे हैं। उनका
बालसाहित्य वास्तव में बच्चों के लिए दिशा देने वाला और वर्तमान परिवेश के अनुसार
रचा जा रहा है, जिसे बच्चे पसंद कर रहे हैं।
भिसे
जी: वैसे देखा
जाए तो आपने इतने बाल साहित्यकारों के नाम यहाँ पर रखे हैं, बहुत-से श्रोता और
पाठक हैं जिन तक यह साहित्यकार नहीं पहुँच रहे हैं। ऐसे लोगों को सामने लाने का
काम निश्चित ही सराहनीय है और अभिनंदन है। मैं एक विशेष सवाल करना चाहूँगा की वर्तमान
में बाल साहित्य और एनी साहित्य सही पाठकों तक पहुँच रहा है?
राजन जी: मैं आपको
बताना चाहूँगा कि आज लोग कहते हैं कि बाल साहित्य रचा नहीं जा रहा है; इस धारणा का मैं खंडन करता हूँ। आज
प्रचुर मात्रा में अच्छा बाल साहित्य लिखा जा रहा है; परंतु
बालक अभिभावक, शिक्षक सभी में पठन-पाठन की रुचि नहीं रही है,
यह भी एक सत्य है। जिससे आने वाली पीढ़ी के संस्कारों का क्षरण
स्पष्ट दिखाई दे रहा है और रही सही कसर सायबर दुनिया ने पूरी कर दी है। साहित्य
प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हो रहा है। पर वह ज्यादातर लेखक, प्रकाशक, संपादक, समिक्षक,
पुरस्कार प्रदाता संस्थाओं से आगे नहीं पहुँच पाता है इसलिए हमें एक
आंदोलन के रूप में पठन-पाठन की प्रवृत्ति को पुनर्जागृत करने के लिए तथा साहित्य
बच्चों तक पहुँचाने के काम में सहभागी बनना होगा।
भिसे
जी: सही कहा
आपने! यह बहुत अहम बात है! इस बात पर काम करने वाले बहुत कम लोग हैं उनमें से एक
आप हैं क्योंकि मैंने खुद अनुभव किया है कि आपने साहित्य की किताबें मेरी पाठशाला
के बच्चों के लिए उपलब्ध की हैं। आपने आज तक लगभग दस लाख से भी अधिक शुल्क की
किताबें नि:शुल्क रूप में बालक एवं पाठकों तक पहुँचाई है, यह एक आदर्श काम आपने किया है। हम
जानना चाहेंगे कि इस विशाल काम के पीछे आपकी भूमिका क्या है?
राजन जी: भिसे जी, सही कहो तो मेरा यह मानना है और बचपन
से ही यह मानता आ रहा हूँ कि जिस परिवार में अच्छी पुस्तकें नहीं होती वहाँ की सुख,
शांति, संस्कार, चैन सब
समाप्त हो जाती है। लोगों में सद् साहित्य पठन-पाठन की परंपरा को बढ़ावा मिले
इसलिए हमने नि:शुल्क साहित्य विद्यार्थियों, स्कूलों,
संस्थाओं, कॉलेजों, शोधार्थियों
तथा इच्छुक व्यक्ति जो माँग करता है; उसे हम स्वयं के खर्चे
से पहुँचाते हैं और हमारे इस प्रयास को सफलता भी मिली है। साहित्य के पठन-पाठन से
भाषा का भी उन्नयन होता है। मेरा यह उद्देश्य रहा है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार हो,
नए लेखक तैयार हो और पठन-पाठन के परंपरा को थोड़ा बल मिलें। बस! यही
सोचकर नि:शुल्क किताबें वितरण करता हूँ, सबको पहुँचाता रहता हूँ और कितना क्या
किया हुआ है यह तो आपने बताया ही है।
भिसे
जी: आपके इस
सराहनीय और आदर्श काम को हम सलाम करते हैं। इस प्रकार का कार्य करने वाले उँगलियों
पर गीनने सरीखे बचे हैं। हमें देखना है कि आप विशेष कार्यक्रमों का आयोजन करके
लोगों भी को सम्मानित करते हैं। मैंने खुद एक कार्यक्रम में उपस्थिति दर्शाकर यह
देखा है और अनुभव किया है। इसके पीछे भी आप की विशेष भूमिका रही होगी। आप पुरस्कार
भी देते हैं और सम्मानित करते हैं। क्या स्वरूप है इसका और इसके पीछे आपका क्या
मकसद है?
राजन जी: भिसे जी, यह बड़ा विचित्र प्रश्न मानूँगा
क्योंकि इस तरह से होगा कि अपने कामों के बारे में खुद ढिंढोरा पीटना! मैं नहीं
चाहता कि इस तरह की ज्यादा बातें की जाए लेकिन पूछा है तो संक्षिप्त में मैं बताना
चाहता हूँ कि जैसा कि आजकल हर जगह साहित्य में राजनीति, गुटबाजी,
खेमेबाजी, मठाधीशी हावी है। मेरा यह मानना है
कि जो वास्तव में स्वांत सुखाय और समाज के लिए अच्छा लेखन कर रहा है, वह टुकड़मबाज नहीं है। उसकी कोई आप्रोच नहीं है। न ही उसके साहित्य का कोई
मूल्यांकन हो सकता है और ना ही किसी प्रकार का सम्मान मिल पाता है और हमने यही सोचकर
बाल साहित्य और साहित्य में उत्कृष्ट सृजन करने वाले नवोदित रचनाकारों के साथ
वरिष्ठ रचनाकारों को सम्मानित करने का लगभग 2001 से आयोजन
प्रारंभ किया इसमें पूरे देश से अच्छे लोगों से प्रविष्टियाँ माँगी जाती है नाम माँगे
जाते हैं और पैनल के माध्यम से हम नामों का चयन करते हैं जिससे निष्पक्षता बन जाती
है और हम बाल साहित्य के लिए शायद मेरे ख्याल से निजी क्षेत्र में दिया जाने वाला
सबसे बड़ा सम्मान जो लगातार किया जा रहा है इस सोहनलाल द्विवेदी बाल साहित्य
सम्मान पुरस्कार जो ₹21000 का होता है, वह किसी उत्कृष्ट बाल
साहित्य लेखन के लिए दिया जाता है। इसी तरह राजस्थानी साहित्य के लिए भी पुरस्कार
दिया जाता है। फिर कहीं जगह हिंदुस्तान में अपने आयोजन में 20 सम्मान दिए जाते हैं जो लगभग ₹1,11,000 नगद राशि के सम्मान दिए जाते हैं इसके अलावा हिंदुस्तान
में जो संस्थाएँ इस क्षेत्र में काम कर रही है उन संस्थाओं के लिए भी आर्थिक
सहायता एवं साहित्यिक किताबें देकर ऐसा करते हैं। भगवान ने हमें सरस्वती के साथ
लक्ष्मी की विभागीय बरसाई है; तो क्यों ना हम इस लक्ष्मी का उपयोग साहित्यिक
आयोजनों और नवोदित प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए करें, तो देश में कई
स्थानों पर जैसे चाहे शिलांग हो, उज्जैन हो, चाहे भोपाल हो, कई जगहों पर अपनी तरफ
से पुरस्कार दिए हुए हैं ताकि उस संस्था को भी थोड़ा संभल मिलें और सबसे बड़ा
मुख्य यह रहता है कि नए सृजन करने वालों की नई टीम तैयार हो क्योंकि यह भाई-भतीजावाद,
राजनीति आगे आने नहीं देती और हिंदी भाषा के लिए सबसे बड़ा प्रोत्साहन देने कई
आवश्यक है। हिंदी बच पाएगी और हिंदी का प्रचार-प्रसार हो पाएगा।
भिसे
जी: अभी आपने
हिंदी की बात कही है हमने यह भी देखा है और वह भी किया है हिंदी भाषा पर आपका बहुत
प्रेम है आपकी मातृभाषा मातृभाषा राजस्थानी है और इतना होने के बावजूद भी कई बार
अपने हिंदी के बारे में चिंतन प्रकट किया है। आज की हिंदी की स्थिति के बारे में
क्या विचार रखना चाहेंगे?
राजन जी: भिसे जी, यह
भी बहुत बड़ा विस्तार से जवाब देने वाला सवाल है, संक्षेप में परिभाषित नहीं किया जा
सकता; फिर भी मोटे तौर पर कुछ बातें यहाँ पर बताना चाहूँगा कि हिंदी की अस्मिता, स्वीकृति
और व्यावहारिक प्रतिष्ठा के लिए समय-समय पर की जाने वाली चिंताएँ की जाती है वह मेरी
भी है। एक खास बंदरबाँट की भूमिका में अंग्रेजी समस्त भारतीय भाषाओं को परस्पर
लड़ाकर एकछत्र शासन चाहती है। आप भी देख रहे होंगे कि अपने मानसिक दासता चरण सीमा
पर जा पहुँची है क्योंकि हमारा यह समझ ही गायब हो चुकी है कि अपनी भाषा के खिलाफ
स्वयं खड़े हैं। हमारी शिक्षण संस्था में ऐसे लोग बैठे हैं जो साँस तो हिंदी में
लेते हैं पर सोचते अंग्रेजी में है, खाते तो हिंदी का है
पचाते अंग्रेजी में है। हिंदी का एक शब्द समूह या भाषाभरपर नहीं है, हिंदी संपूर्ण
भारत की परिभाषा है और इसके लिए हमें पूरे जोश और खरोश से और स्वाभिमान के साथ आगे
आना होगा तभी हिंदी का स्वाभिमान बनेगा और हिंदी राष्ट्रभाषा बन पाएगी।
भिसे
जी: बहुत अच्छी
आपने बात की जिसमें हिंदी को पीछे रखने की कोशिश जो की जा रही है उसे उजागर किया
है। इतना सब कुछ हो रहा है हिंदी और हिंदी साहित्य क्षेत्र में। चाहे किसी भी
प्रकार का साहित्य हो। हमारे साहित्य की अच्छे दिन कब और कैसे आ सकते हैं, इसके
बारे में आपकी क्या सोच है?
राजन जी: भिसे जी,
आपके एक-एक सवाल पर एक-एक घंटा बात कर सकते हैं लेकिन इसे संक्षेप में कैसे
समेटूँ! फिर भी मैं कहना चाहूँगा की समझना बहुत जरूरी है की साहित्य में साहित्यिक
रचनात्मकता किसी भी प्रकार के वाद से जोड़ना एक संकीर्णता की तरफ इशारा करती है
क्योंकि साहित्य को वादों राजनीतिक गुटों और खेमों में बाँट देने से उदगीर
रचनात्मक दिशा भी भटक जा रही है और भटक रही है और साहित्य की ढेरों परिभाषा की गई
है। अपने भी पढ़ा, लिखा, सुना होगा। कभी इसे दर्पण में कहा गया है तभी इसकी तुलना
प्रेमचंद्र जी ने जलती हुई मशाल के साथ की है। मेरा यह मानना है कि यह साहित्य की मशाल समाज, देश को रोशनी देने वाली हो जलाने
वाली नहीं हो। यह रोशनी जीवन के अँधेरेपन को उजाला देने वाली हो। साहित्यकार ऐसा सृजन करें
जो समाज, देश को रास्ता दिखाएँ। इसी तरह पुस्तकें लिखी जाएगी, इस तरह का सृजन हो
जाएगा और नि:शुल्क साहित्य लोगों तक पहुँचेगा और साहित्य के पठन-पाठन पर जागृति हो
जाएगी तो साहित्य के अच्छे दिन आएँगे और सबसे बड़ी बात है कि पठन-पाठन के बारे में
जो उदासीनता है। भिसे जी , मेरा यह मानना है कि किताबों के प्रति उदासीनता का भाव
यह अपराध बोध से कम नहीं है लेकिन त्रासदी यह है कि हमें अपराध बोध भी नहीं हो रहा
है। जरूरत किताबों के महत्व को समझने की है और उनकी आवश्यकता उनको समझने की है तभी
साहित्य के अच्छे दिन आ सकते हैं।
भिसे
जी: सही कहा
आपने! जब तक यह उदासीनता नहीं निकलती है, तबतक साहित्य और अच्छी बातें हैं- नहीं पहुँचती
है। इसमें जो मानवीय मूल्य हैं या अपने देश और समाज के प्रति उत्तरदायित्व की
भूमिका है वह निश्चित ही गिरती हुई नजर आएगी। हमें इसमें से उभर आना होगा। आप जैसे
साहित्यकार इसके लिए मेहनत करते हैं और हम सभी की जिम्मेदारी है कि साहित्य का
प्रचार-प्रसार करें, पठन-पाठन के लिए लोगों में रुचि उत्पन्न करें। यह सभी के लिए एक आदर्श
कार्य है। आप साहित्य का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं, इसके लिए
आप देश-विदेश में भी घूमें हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी जाकर आए हैं। अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर अपनी हिंदी और हिंदी साहित्य का क्या माहौल है?
राजन जी: भिसे जी, यह सच है कि मैंने कई देशों की यात्राएँ
की हैं। अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में देखा जाए तो हिंदी अपनी स्थिति मजबूत कर रही
है। पूरे विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है किंतुहमारे ही
देश में स्थिति बड़ी दयनीय है। विदेशों में हिंदी के प्रति बहुत बड़ा सम्मान है। वहाँ
के लोग हिंदी बोलना चाहते हैं, लिखना चाहते सीखना चाहते हैं,
पुस्तकें चाहते हैं और हमने भी बाहर के रचनाकारों की रचनाएँ माँगकर हिंदुस्तान की
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करके तुम को प्रोत्साहित करते हैं और बदकिस्मती है कि
अपने देश में ही हिंदी को सम्मानित करने वाले लोग दिन प्रतिदिन कम होते जा रहे हैं
और एक बात और बताऊँ मैं हिंदी प्रेमी हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी सत्ता में आए
हममें कुछ आशा बंधी थी कि हिंदी को जल्द ही हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलेगा
पर दुर्भाग्य है कि भारत देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में
हिंदी शिक्षा की अनिवार्यता को ही समाप्त कर दिया। हिंदी को अनिवार्य भाषा मानने
का जो प्रावधान था वही समाप्त कर दिया है। तो यह कौन सी दोहरी मानसिकता है। एक तरफ
तो आप हिंदी की स्वीकृति को समाप्त कर रहे हो और एक तरफ कह रहे हो हिंदी की स्थिति
क्या है? तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी की स्थिति अच्छी है
और मजबूत है नेपाल में, मॉरीशस में, थाईलैंड में, श्रीलंका में देखा है कि
भारतीयों को देखकर बाजार में हमें हिंदी बोलते देखकर वहाँ के लोग हिंदी में बातें
करना पसंद करते हैं। जबकि हम हिंदी जानते हुए भी अंग्रेजी में बातें करते हैं।
भोपाल में बड़ा अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ था जिसमें चीन के बड़े विद्वान आए थे तो
उन्होंने कहा कि मैं हिंदुस्तान घुमा और आज इस मंच पर आया हूँ; पर हिंदुस्तान में
मुझे हिंदी कहीं दिखाई नहीं दी। मैं हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ और सभी लोग मुझे
हाय! हेलो! करके अभिवादन करते हैं। यह कितना बड़ा करारा व्यंग्य है कि भारत में
हिंदी की स्थिति क्या है!
भिसे
जी: आपने जिस
बात को उजागर किया है वो भारतीय अस्मिता को शर्मसार कर देती है कि यह क्या हो रहा
है बहु हिंदी भाषी देश में! आप एक बाल साहित्यकार और एक कवि है। हम आपसे एक बाल
कविता और बाल साहित्येत्तर रचना सुनना चाहेंगे कृपया आप इसे सुनाइए।
राजन जी: सबसे पहले मैं एक बाल कविता सुनाता हूँ। वर्तमान परिवेश का बच्चा कैसी कविता पसंद करते हैं, यह इस कविता से समझ में आ जाएगा और आज का बच्चा कैसा है, वह आप इस कविता से समझ जाएँगे।
कविता का शीर्षक है ‘रोबोट एक दिला दो राम’भिसे
जी: दोनों
रचनाएँ बहुत सुंदर और अच्छी हैं। हमने आपकी बहुत-सी रचनाएँ पढ़ी हैं। इस वार्तालाप
को विराम देते हुए अंत में एक सवाल करना चाहता हूँ कि आप नव साहित्यकारों को और पाठकों
को क्या संदेश देना चाहेंगे?
राजन जी: भिसे जी, संदेश देना तो मेरी बस की बात नहीं
है और मैं इतना महान व्यक्ति से भी नहीं हूँ कि संदेश दूँ, पर
हाँ! अपने दिल की एक बात जो आपसे करना चाहता हूँ कि आज साहित्य की उपयोगिता
वर्तमान समय में बहुत महत्वपूर्ण हो गई है। आज पठन-पाठन के बाद किए जाने वाले
चिंतन से जीवन को नए आयाम, नई सोच, नई ऊर्जा मिलती है। मेरा
सब से यही अनुरोध है की पुस्तकें पढ़ें। पुस्तकें पढ़ने से मानसिक विकास हो जाता
है। पुस्तकों के लिए हर घर में बजट होना चाहिए आज किताबी कोई खरीदता नहीं है तो
मैं चाहता हूँ कि हर परिवार में हर परिवार में पुस्तकें खरीदने के लिए बजट
निर्धारित होना चाहिए। जब प्रौढ़ आयु के अभिभावक स्वयं किताबें पढ़ेंगे, तो बच्चे भी किताबें पढेंगे। स्वाध्याय से जीवन में मंगलमय का बोध होता
है।
भिसे
जी: राजन जी,
आपने अपनी व्यस्तता में भी समय निकालकर साहित्य, बालसाहित्य, हिंदी और साहित्य प्रचार-प्रसार
की दशा और दिशा के बारे में अपने विचार हम सभी के सम्मुख रखें। सचमुच प्रेरणादायी
एवं चिंतनीय वार्तालाप रहा। मैं समस्त पाठक वर्ग एवं श्रोताओं की ओर से आपके प्रति
कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। साहित्य में आपकी कलम यूँ ही चलती रहे, आपके दीर्घायु
एवं स्वास्थ्य की मंगलकामनाएँ करता हूँ। आपका हार्दिक धन्यवाद!
राजन जी: जी, आपका भी धन्यवाद! आप सभी को मंगलकामनाएँ।
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■ जीवन ही खेल ■ (कविता) हार मिली तो रोते हो जी, व्यर्थ समय क्यों खोते हो जी; कभी तो जीत मिलेगी तुमको, तुम वीर-धीर, जंग-ए-खिलाड़ी हो बस! जी-ज...