
काग़जी फूल
(कविता)
काग़ज़ी फूल चुनते रहे सदा
महक की कहीं गंध नहीं
रिश्ते बुनें नित नए-नए
देते साथ पर अनुबंध नहीं
साथियों, सफ़र जारी है मगर
अपना कहे ऐसा जमाना नहीं।
फूल के खिलाए कितने रंग
साथी भी बने रहते संग
सींचा पसीना और रिसा लहू
मिटता रहा कितना-क्या कहूँ
लूटाना तो जारी है मगर
जुटाने का कोई बहाना नहीं।
खिलें फूल रंगीन बगिया में
भौरों को भी भा गए
जाते रहे करीब पल-पल
तन-मन भी सकपका गए
रूह नासमझ सुन्न है मगर
चेतना का कोई अफसाना नहीं।
अब दिल दहल रहा है
कँटीली चुभन सह रहा है
लथपथ है हर अंग यहाँ
पथराव भी झेल रहा है
दुनिया सुनती हैं सबकुछ मगर
'मंजीत' मन का फुसफुसाना नहीं।
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