
मन के दीप
(कविता)
इस मिट्टी के तन ने आज
मिट्टी का दीप जला दिया
आँगन में उजास फैल गया
मन के तम को भूल गया।
आँगन में जब रंगोली सजी
सबके मन को मोह लिया
मन की लकीरें बेरंग कबसे
रंगीन बनाना भूल गया।
मीठे पकवान भोज से
तन की भूख बुझा गया
मन के कितने खाने खाली
ज्ञान से भरना भूल गया।
पुराने छोड़कर नए वसन से
रौब नवाबी दिखा गया
मन पड़ा है मटमैला-सा
धूल झाड़ना भूल गया।
अपने मन को जाने जो
मन के दीप जलाता गया
प्रतिदिन वह मनाता दिवाली
दो दिनवाली को भूल गया।
तन पर उजाला मन है काला
सफेद करना क्यों भूल गया
सच्ची चमक सद्चरित्र की
चरित्र निर्माण को भूल गया।
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● मच्छिंद्र बापू भिसे 'मंजीत'●
सातारा (महाराष्ट्र)
संपादक
सृजन महोत्सव पत्रिका
मोबाइल: 9730491952
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खुप छान
ReplyDeleteमंजीत सचमुच मन जीत लिया आपने हार्दिक बधाई हो|
ReplyDeleteसच्ची चमक सद्चरित्र की।। बहुत खूबसूरत कविता। हार्दिक बधाई।। आपका सृजन नितनये सफलता के आयाम छुए । मंगलकामनाये
ReplyDeleteबहुत बढिया लेखन एवं कविता बधाई एवं शुभकामनाएं
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