
पहचान लिख रहा हूँ
(कविता)
स्याही सूख जाएगी
या गल जाएगा कागज
बिना सोच, समझ लिख रहा हूँ
पुन: पुन: मिटा रहा हूँ
अपनी कहानी सजा रहा हूँ।
आएगा कोई पढ़ेगा मुझे
कागजों पर उभर रहा हूँ
उम्मीद से कुछ बोल रहा हूँ
कुछ पन्ने खोल रहा हूँ
आप सम्मुख बिखर रहा हूँ।
दिल का पट खोल रहा हूँ
कभी करूणा कभी रूद्र का
मन तांडव उभर रहा हूँ
ज्वालभरा या खारा समुंदर
मनुज बन सँवार रहा हूँ।
किसी के काम आए वह
रास का कथन बुन रहा हूँ
पन्ने नहीं तो उपहास ही सही
चेहरे मुस्कान खिला रहा हूँ
अनपढ़े पन्ने पुन: खोल रहा हूँ।
होगी इक दिन कहानी पूरी
देखेगी, पढ़ेगी दुनिया सारी
जानी-पहचानी बाणी लिख रहा हूँ
आप अनुज की पहचान लिख रहा हूँ ।
-०-
(रास-कोलाहल)
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